शुक्रवार, 29 जुलाई 2022

376-नदी माँ (हरिगीतिका)

रोशनी पोखरियाल (चमोली, उत्तराखंड)

     1  

आवाज देती है कहीं माँ, आ रही हूँ शैल से,


माँ दौड़ती कैलाश से
, है भीत नंदी बैल से

आधार धारा है बनी माँ, छोड़ आई रूप को ,

कैलाश में भोले शिवाला, छोड़ आई भूप को ।।

2

बाधा अनेकों राह में हैं, माँ सभी को लाँघती,

संसार को देने चली वो, है नहीं माँ माँगती ।

शाखा-विशाखा पेड़ -पौधे, हैं खड़े तेरे लिए,

देते तुझे वे फूल -पाती, वे खिले आभा लिए ।।

3

मोती बनी है श्वेत बूँदें, फूल- माला हाथ में ,

आशीष भोले का लिये , शिवानी साथ में ।

माँ ज्ञानधारा को लिए,  है बाँटती संसार में,

आती लुटाती जा रही माँ, प्यार गंगा धार में ।।


-0-

सोमवार, 25 जुलाई 2022

374-छोटी सी जिंदगी

 जितेंद्र राय 'जीत'(उत्तराखंड)

 

 


मरियल
- सा हो गया था वह, कंकाल मात्र। पिछले माह उसके आस पास बहुत चहल पहल थी, बहुत लाड़ प्यार से लाया गया था उसे यहाँ। बहुत से लोगों की आँखों का तारा- सा हो गया था वह। फूले नहीं समा रहा था वह भी।फिर अचानक न जाने क्या हुआ, उसके आसपास जो चहल पहल थी, वह उस दिन के बाद फिर न दिखी उसे। जिस स्नेह की वर्षा उस पर की जा रही थी, वह बादल फिर बने ही नहीं ।

          उस दिन के ठीक एक माह और 12 दिन बाद अचानक फिर से वही चहल-पहल उसे महसूस हुई अपने आसपास। मरणासन्न था वह, तब भी धुँधली आँखों से कुछ कुछ देख पा रहा था। बहु-त से लोग थे, जिस हर्ष और उल्लास के साथ उसे यहाँ लाया गया था, आज कुछ और ला जा रहे थे। हँसी, ठहाकों से गुंजित हो उठी थी मरुधरा। आँखें बंद होने लगीं, तब भी कुछ कुदालों की आवाजें, मिट्टी हटाने की खर- खर और तालियों की गड़गड़ाहट वह सुन पा रहा था।


 
फिर उसे रौंदते हु
कई लोग जाने लगे, वह मृत्यु के आगोश में समा गया।

  5 जून को रोपी गई उस नन्ही जान की जान कब निकल गई, उसे रोपने वाले को भी नहीं पता। नया पौधा हर्षित है अभी, किन्तु कल....

-0-्चित्रः गूगल से साभार

बुधवार, 20 जुलाई 2022

372-भावना की अभिव्यक्ति के सहज स्वर: ‘रंग भरे दिन -रैन’

डॉ. उपमा शर्मा (नई दिल्ली)

समकालीन हिंदी काव्य में अतुकांत कविता ने बहुत दिनों तक अपना साम्राज्य स्थापित रखा; लेकिन


छंद जैसी गेयता और लावण्य प्राप्त करने में यह पूर्णतः सफल नहीं हो सकी।  आदिकाल से ही काव्य को कसौटी पर कसते छंदों का लावण्य कवियों और श्रोताओं को अपनी ओर खींचने मे सक्षम रहा है।  उसी कड़ी में आज दोहा जैसे मात्रिक छंद ने अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त की है।  दोहा साहित्य के आदिकाल से लिखा जाने वाला छंद है।  तुलसी, कबीर ,बिहारी के दोहे सुनते पढ़ते ही हम बड़े हुए हैं।  

छंद वस्तुत: एक ध्वनि समष्टि है।  छोटी-छोटी अथवा छोटी-ड़ी ध्वनियाँ जब एक व्यवस्था के साथ सामंजस्य प्राप्त करती हैं तब उसे एक शास्त्रीय नाम छंद दे दिया जाता है ।  जब मात्रा अथवा वर्णॊं की संख्या, विराम, गति, लय तथा तुक आदि के नियमों से युक्त कोई रचना होती है, उसे छंद अथवा पद्य कहते हैं, इसी को वृत्त भी कहा जाता है।

वाक्य में प्रयुक्त अक्षरों की संख्या एवं क्रम, मात्रा-गणना तथा यति-गति से सम्बद्ध विशिष्ट नियमों से नियोजित पद्यरचना ‘छन्द’ कहलाती है। यदि गद्य की कसौटी ‘व्याकरण’ है तो कविता की कसौटी ‘छन्दशास्त्र’ है।  

 दोहा 48 मात्राओं से बुना गया विषम मात्रिक छंद है। दो पंक्तियों के इस छंद में चार चरण होते हैं। पहले और तीसरे चरण में 13-13 मात्राएँ और दूसरे व चौथे चरण में 11-11 मात्राएँ और गुरु-लघु की तुकान्तता होती हैं। दोहे अपने स्वरूप और अपनी अंतर्वस्तु से ही नहीं जाने जाते; अपितु उनमें अभिव्यक्ति की सहजता, भावों की गहनता, मार्मिकता और सम्प्रेषणता की त्वरा उन्हें विशिष्ट बनाती है।  

 अनेक न और पुराने कवि-कवयित्रियों ने अपनी काव्याभिव्यक्ति का माध्यम दोहे को बनाया। आज दोहाकारों की एक पूरी पंक्ति तैयार हो गई है। उसी कड़ी में जुड़ने वाला कमल कपूर एक प्रतिष्ठित नाम है। वैसे तो कमल कपूर के दोहों में आपको कई स्वर और अनेक छटाएँ मिलेंगी; लेकिन इनके दोहों का मूल स्वर प्रकृति की अनुपम छटा है। कमल कपूर की लेखनी प्रकृति के अनुपम दृश्य उकेरती नज़र आती है। 480 दोहों से सजा  दोहा संग्रह 'रंग भरे दिन-रैन' विभिन्न विषयों को छूता है;  परंतु कवयित्री के मूल स्वर में कहीं न कहीं प्रकृति से गहरा लगाव है। संग्रह की शुरूआत गुरु और माँ सरस्वती को समर्पित 10 दोहे से हुई है। गुरु की महिमा सर्व व्याप्त है। कमल कपूर भी गुरु की महिमा का वर्णन कुछ ऐसे करती हैं-

पहले गुरु की वंदना, करूँ हाथ मैं जोड़।

जिसने चमकाया सदा, जीवन का हर मोड़।  

 कमल कपूर जी पर माँ शारदे का वरदहस्त है। विभिन्न विधाओं में उनकी लेखनी ने कलम चलाई है। इसी संदर्भ में उनके कुछ दोहे द्रष्टव्य हैं-

लिखती कथा कहानियाँ, मीठे मोहक गीत।

लिख-लिख खत मनुहार के,कलम मनाती मीत।

तुमसे जुदा न शारदे, कभी कमल का नाम।

यश तो मिलता है मुझे, करती हो तुम काम ।  

 कमल कपूर के दोहे भाषा की सहजता, कथ्य की दृष्टि, अलंकार बिम्ब योजना व संप्रेषण की दृष्टि से अपने उद्देश्य में सफल प्रतीत होते हैं। भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा में 'बिंब' शब्द अपेक्षाकृत नया है। पुराने लक्षण ग्रंथो में इसका उल्लेख कहीं नहीं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार "काव्य का काम है कल्पना में बिंब अथवा मूर्त भावना स्थापित करना।"

बिंब विधान से हमारा तात्पर्य काव्य में आ हुए उन शब्द चित्रों से है, जिनका संबंध जीवन के व्यावहारिक क्षेत्रों से तथा कल्पना के शाश्वत जगत से होता है।  कवयित्री की सजीव अनुभूति, तीव्र भावना से परिपूर्ण होते हैं और गत्यात्मकता ,सजीवता , सुंदरता एवं सरसता के कारण जीते-जागते, चलते फिरते बिम्ब बातचीत करते से जान पड़ते हैं। इनके दोहों में बिंब का सटीक प्रयोग हुआ है।  यथा-

ओस कणों से भीग के, हुई तरल अति भोर।

कलियॉं मुखड़े धो रहीं, गुलशन हुए विभोर।

 इस दोहे में कमल जी ने प्रकृति की गति को शब्दों में बाँधने का अद्भुत प्रयास किया है। उन्होंने भोर की आसमानी गति की धरती की हलचल भरे जीवन से तुलना की है। इसीलिए वो सूर्योदय के साथ एक जीवंत परिवेश की कल्पना करती हैं, जो उपवन की सुबह से जुड़ता है। कवयित्री ने नए बिंब, नए उपमान का सटीक प्रयोग किया है। उनके सुंदर बिंब से सजे कुछ और दोहे यहॉं द्रष्टव्य हैं।

अंबर के अँगना तनी, लाल केसरी डोर।

ठुमक -ठुनकर नाचती, नटनी जैसी भोर।

सुलग रही अंगार- सी, जेठ -माह की धूप।

रूपवती गुलनार का, बिगड़ा सुंदर रूप।

पायल- सी छनका रही, मीठी मंद बयार।

रवि मेघों की ओट से, बरसाता है प्यार।


 
जीवन बहुआयामी है। अनेक परिस्थितियाँ और घटनाएँ जीवन को उद्वेलित करती हैं। सामान्य मनुष्य और कवि भी अपने इर्द-गिर्द रोजाना बहुत कुछ घटित होते हुए देखता है, परंतु उसकी संवेदनाएँ सामान्य मनुष्य के अपेक्षाकृत अधिक उत्कट और प्रखर होती हैं। कवि प्रकृति के दृश्यों में  वह सौंदर्य खोज लेता है, जो साधारण मनुष्य की दृष्टि नहीं खोज पाती। कमल कपूर का रचना संसार प्रकृति के साथ ही फैला नज़र आता है। एक अंकुर के प्रस्फुटन से लेकर पतझ तक बहुत कुछ समसाती है प्रकृति। यही विविधता कमल कपूर के दोहों में द्रष्टव्य है-

रंग बिरंगे फूलों से भरे हरे-भरे घास के मैदानों, सुन्दर नीले आकाश और ऊँचे पेड़ों के साथ घने जंगलों के साथ पक्षियों की चहचहाहट मन को सुख और जीवन को उमंग देने वाली प्रकृति, किसी के साथ किसी प्रकार का कोई भेदभाव न करने वाली प्रकृति। हमें साँसें देने वाली प्रकृति। कवयित्री के दोहों में प्रकृति की खूबसूरती जैसे उतरी पड़ी है। उन्हें जाड़े के सूरज में धीमा सुलगता अलाव नज़र आता है, तो वो कनक सेज पर बैठे हुए कोई राजा भी लगते हैं। उन्हें जेठ की तपती दोपहरी का सूरज भी उतना ही सुंदर और उपयोगी लगता है, जो लाल मनभावन गुलमोहर को अपनी लालिमा प्रदान करता प्रतीत होता है। उन्हें जितनी ख़ूबसूरती दिन में नजर आती है, उतनी ही रात में। वे कहती हैं- रात नींद और सपनों की मधुर सौगात बाँटती है। जितना उन्हें बसंत के फूलों में आकर्षण लगता है, उतना ही पतझड़ की ऋतु भी आवश्यक लगती है। प्रकृति का कोई रूप कोई रंग अनावश्यक नहीं है, उनके दोहों में ये स्पष्ट संदेश है-

पतझड़ ऋतु है खोलती, नए-नवेले द्वार।

जिनसे आती फिर नई, मधुरिम एक बहार।

 
कमल कपूर ने भी विभिन्न विषयों को छूते हुए सार्थक सृजन किया है। उनके दोहों में विभिन्न विषयों का सुंदर समावेश है। इनके दोहों में भावपक्ष का अधिक  ध्यान है। दोहा- सर्जक अति गंभीर, परिपक्व, समर्पण के साथ ही पैना दोहा लिख अपने लेखन की सार्थकता को प्रमाणित करते हैं। इस दृष्टि से कमल कपूर के दोहे उन्हें एक सक्षम व समर्थ दोहाकार की श्रेणी में रखते हैं। उनके दोहों में मौलिकता, विविधता, उत्कृष्टता एवं अंतर्निहित चेतना स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। दोहा विधा पर कलम चलाना कठिन कार्य है जिसमें शब्द भंडार समृद्ध होना, शब्द चयन में कुशलता आदि विशेषताएँ लेखक से अपेक्षित रहती हैं। कमल कपूर प्रखर और सजग चिंतक हैं, जिसकी छाप इस संग्रह में स्पष्ट परिलक्षित होती है। 'रंग भरे दिन रैन' के लगभग सारे ही दोहे उल्लेखनीय हैं। काव्य-जगत् में इस संग्रह का भरपूर स्वागत होगा।  

-0-रंग भरे दिन रैन( दोहा-संग्रह): कमल कपूर; पृष्ठ: 106; मूल्य: 260 रुपये, संस्करण: 2022, प्रकाशक: अयन प्रकाशन, जे-19/39, राजा पुरी, उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059

-0- dr.upma0509@gmail.com

रविवार, 17 जुलाई 2022

371

 दिनेश चंद्र पाठक बशर

 


यूँ किसी रोज़ जा भी सकता हूँ

मैं तुम्हें याद आ भी सकता हूँ।।

 

ग़म को तकिये तले छुपाकर के

चुटकुले कुछ सुना भी सकता हूँ।।

 

मैं नहीं दिल के हाथ बेचारा

तुम कहो तो भुला भी सकता हूँ।।

 

वो सरे शाम याद आने लगा

इक नया गीत गा भी सकता हूँ।।

 

बशर आज कुछ तो होना है।

तीर नज़रों के खा भी सकता हूँ।।

 

-0-

रविवार, 10 जुलाई 2022

370-स्मार्ट पशुशाला

 डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'

 

सखी! तबेले वाला खुश है


सुना है- तबेले में

पालतुओं की किस्में बढ़ा लीं उसने

वो पहले केवल भैंसे और गाएँ रखता था;

लेकिन अब नई गाय-भैंस कम ही पालता है

अब तबेला केवल तबेला नहीं रहा

स्मार्ट पशुशाला बन गया है

अब गधों को गुलाबजामुन खिलाना

उसे खुशी देता है

और अपने अस्तित्व के स्थायित्व हेतु आवश्यक भी

वैसे गधों की प्रजाति पर

शोध बाकी हैं

और हाँ, सुना है-कुछ घोड़े भी तबेले में ही रख लिये

जो दौड़ते अच्छा हैं।

खच्चर बड़ी संख्या में-

घोड़ों के बीच ही बँधे हैं

और निश्चिंत हैं;

क्योंकि घोड़ों पर खर्च अधिक है

खच्चर थोड़े सस्ते में पाले जा सकते हैं।

और चढ़ाई- उतराई के लिए विश्वसनीय भी हैं।

कुत्ते भी हैं कुछ उसके पास-

जो उसके  सभी आदेशों पर

भौंककर लोगों को डरा सकें

और हाँ भेड़- बकरी- मुर्गे इत्यादि का बड़ा मालिक भी है वो

भेड़ ऊन उतारकर स्वेटर तैयार करवाने के लिए जरूरी है

बकरी मिमियाती अच्छा है

और मुर्गों को पालने का

दर्शन यह है कि

उनकी गर्दन बिना विरोध के मरोड़ी जा सकती है -

कभी भी, कहीं भी

सवाल यह है कि

तबेले वाला गाय - भैंस को पूरी तरह इस पशुशाला से

हटा क्यों नहीं देता;

क्योंकि इनका तो कोई ऐसा उपयोग नहीं

दूध तो आजकल सिंथेटिक भी

मिल जाता है

तो पशुशाला का मालिक

क्या बेवकूफ है?

जो बेवजह ही इन्हें पालता है?

उत्तर है - नहीं

दूध को असली सिद्ध करने के लिए

यह उसे आवश्यक लगता है।

आखिर उसे आदर्श पशुशाला का

मालिक जो कहलाना है।

-0-