ज्योति नामदेव
चारों ओर संग्राम,
संग्राम में दोनों ओर की,
सेना निरंतर थी लड़ रही.
तभी मधुसूदन की उँगली में चोट लगी,
बह निकली रक्त की धार,
द्रौपदी
ने देखा तो,
हुई द्रवित ह्रदय- सार l
ना उधर देखा, ना इधर देखा,
झट फाड़ा अपना अंग वस्त्र,
एक टुकड़ा बस उस अम्बर का,
बाँधा उसने पूरे विश्व को l
देखा द्वारकाधीश ने
तो बोले.. हे सखी
यह क्या किया तुमने?
क्यों फाड़ा तुमने इस चीर को?
सखी परेशान न हो,
कुछ ना होगा इस वीर को l
द्रौपदी
बोली.. शान्त रहिए मधुसूदन
जानती हूँ, आप हैं इस जगत् के जीवन,
लेकिन सामने बहती धार ये कैसे देखूँ
जो सबके जीवन के आधार
उसका ही रक्त बहे, ये कैसे देखूँ ?
छोड़ो सखी... चिंता न करो अब,
बाँध लिया तुमने ऋण में मुझे अब,
समय साथ देगा तो बताना है ऐसा,.
कि मित्रता भाव होता है कैसा l
समय चक्र बड़ा,
काल का पहिया चला,
चौरस व्यूह मे शैतानी जंग,
हार गए सब कुछ कौरवों से, पांडव बस रह गए दंग l
भृकुटी तनी थी, दुर्योधन की
विनाश काले विपरीत बुद्धि,
अन्धकारमय सारा हस्तिनापुर,
अंतर्मन बिलख-बिलखकर रो रहा मन l
मौके का फायदा उठा,
केश पकड़ते खींचता दु:शासन,
द्रौपदी
को धरती पर घिसटते चला,
हाय हाय ये क्या हो रहा,
इस धरती पर स्त्री का,
चीर हरण हो रहा l
हा हा हा!! हँसते कौरव,
इस भयानक कृत्य पर,
प्रसन्नचित्त होते कौरव,
लगा खींचने दु:शासन द्रौपदी की साड़ी
हाय हाय हस्तिनापुर आज
तुझे क्या लाज नहीं आई?
थी सभा सन्न,
सबके मुख थे सिले हुए,
क्या पांडव, क्या भीष्म,
क्या बड़े, क्या छोटे,
धरती में जैसे पग थे
गड़े हुए l
जैसे ही द्रौपदी ने कृष्ण का
आह्वान किया,
उसे द्रवित ह्रदय से पुकारा,
उनको तो आना ही पड़ा l
दु:शासन खींचता चला, खींचता चला, खींचता चला,
पर यह क्या?
साड़ी है या अनंत आकाश
जो कभी खत्म न हुआ l
धराशायी हुआ दु:शासन,
नीची दृष्टि गड़ा दुर्योधन,
आज सती को चले लूटने,
उनका ही टूटा अभिमान l
जिसकी रक्षा की सौगंध ली
थी पांडवों ने
उसकी रक्षा की निश्छल
मित्रता ने
मित्रता एक भाव
प्रेम का,
मित्रता नाम है
सुन्दर मन का l
प्रसंग नहीं
यह सत्य है
निर्लज्जों की हुई हार
ये शाश्वत सत्य है
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सहायक अध्यापिका ,राजकीय प्राथमिक विद्यालय ,कर्णप्रयाग चमोली ,उत्तराखंड