1-डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'
1
इक बार चले आओ तुमसे लिपटूँगी
अब आस फले आओ।
2
खुशबू बनके रहना
मन के आँगन में
वासंती -सा बहना।
3
जब से तुम आए हो
जीवन है बगिया
माली -से भाए हो।
-0-
1-डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'
1
इक बार चले आओ तुमसे लिपटूँगी
अब आस फले आओ।
2
खुशबू बनके रहना
मन के आँगन में
वासंती -सा बहना।
3
जब से तुम आए हो
जीवन है बगिया
माली -से भाए हो।
-0-
ज्योति नामदेव (हरिद्वार उत्तराखण्ड)
भारतवर्ष में ऐसे चमके, ज्यों दुल्हन की बिंदी
समूचे भारत की भाषाओं की सखी -सहेली हिन्दी
प्रिय, प्रयोगात्मक, व्यावहारिक, वैज्ञानिक भाषा हिन्दी
स्वरूप इसका लचीला, सुन्दर भावनात्मक है हिन्दी
विभिन्न प्रदेशों की
प्यारी, है भाषा अपनी हिन्दी
भारतवर्ष में ऐसे चमके, जैसे दुल्हन की बिंदी ।
--0-
-डॉ. संजय अवस्थी
मैं स्त्री हूँ, प्रकृति हूँ।
तुम पुरुष, सदैव ठगते रहे,
जैसे मैं ठगने के लिए ही बनी हूँ।
लोग कहते हैं-
हमारा मिलन,हमें पूर्ण बनाता है,
पर इस सत्य को ,
तुम ही क्यों झुठलाते
रहे।
जन्म पर, तुम्हारे माथे की सलवटें,
माँ बतलाती थी,
फिर भी,थी मैं पहली:
इसलिए पिता बन
सब भूल, कैसे दुलराते रहे।
पर क्यों बड़ी होने पर,
मेरी नज़रों पर भी पहरा?
भाई, तू बाद में आया,
मैं फूली नहीं समाती थी,
बहन बन कैसे इतराती थी
खुद नन्ही, फिर भी तुम्हें गोद,
में लिये,दम न फुलाती थी।
मेरा बचपन, मेरा खेल,
न्योछावर, तुम्हारे स्नेह में।
पर अब बड़े होकर, क्यों
मेरे आँचल पर पहरा बिठाते हो
पिता के लिए बोझ, भाई का भय,
बोध हुआ मुझे, मैं जवान हो गई।
मैं लड़की हूँ, सदा ठगे जाने के लिए
कभी माँ के रूप में
कभी बहन बनकर।
मैं सदैव, तुममें स्नेह सुरक्षा
ढूँढती रही,
तुम पुरुष, सदैव ठगते रहे ।
प्रेयसी बन, तुम्हारी बॉहों में
सर्वस्व समर्पित किया।
तुम पुरुष, वहाँ भी मुझे जिस्म समझ,
मुझमें वासना टटोलते रहे।
मेरी स्वतंत्रता, तुम्हारा अवसर,
तुम्हारी आँखें, द्रौपदी बनाती रही।
मैं भी जीना चाहती हूँ,
दूर दिगंत तक उड़ना चाहती
हूँ,
पर तुम मेरी आत्मा को
झुठलाकर,
मुझे भोग्या बना ठगते
रहे।
-0-
दोहे
1-ज्योत्स्ना प्रदीप
1
टूट रहे हैं रात-दिन, नदियों के भी
नेह॥
2
तलहटियाँ अब बाँझ-सी, पैदा नहीं प्रपात।
दंश गर्भ में दे गया, कोई रातों रात॥
3
लुटी- पिटी नदियाँ कई, सिसक रहे हैं ताल।
सागर में मोती नहीं, ओझल हुए मराल॥
4
बादल से निकली अभी, बूँद बड़ी नवजात।
जिस मौसम में साँस ली, अंतिम वह बरसात।
5
नभ ने सोचा एक दिन, भू पर होता काश।
नदियाँ बँटती देखकर, सहम गया आकाश।
6
मनमौजी लहरें हुईं, भागी कितनी दूर।
सागर आया रोष में, मगर बड़ा मजबूर॥
7
देह हिना की है हरी, मगर हिया है
लाल।
सपन सजाये ग़ैर के, अपना माँगे काल॥
8
पेड़ हितैषी हैं बड़े, करते तुझको प्यार।
चला रहा दिन-रात है , इन पर
तू औज़ार॥
9
जुगनूँ, तितली, भौंर भी, सुख देते भरपूर।
जाने किस सुनसान में, कुदरत के वह
नूर॥
10
झरनें गाते थे कभी, हरियाली के गीत।
मानव ने गूँगा किया, तोड़ी उसकी प्रीत॥
11
जबसे मात चली गई, मन-देहरी बरसात।
दो आँखें पल में बनीं, जैसे भरी परात॥
12
क़ुदरत ख़ुद रौशन हुई, बनकर माँ का
रूप।
जीवन जब भी पौष-सा, माँ ही कोमल
धूप॥
-0-
2- प्रीति अग्रवाल 'अनुजा'
1-मुलाकात
चलो आज खुद से,
मुलाकात कर लें!
वो मासूम बचपन,
लड़कपन की शोख़ी,
चलो आज ताज़ा,
वो दिन रात कर लें।
वो बिन डोर उड़ती,
पतंगों सी ख्वाहिशें,
बेझिझक, जिंदगी से,
होती फ़रमहिशे,
चलो ढूँढे उनको
कभी थे जो अपने,
पिरो लाएँ, मोती-से,
कुछ बिखरे सपने।
यूँ तो बुझ चुकी है,
आग हसरतों की,
कुछ चिंगारियाँ पर हैं
अब भी दहकती,
दबे, ढके अंगारों की
किस्मत सजा दें,
नाउम्मीद चाहतों को
फिर से पनाह दे!
न गिला, न शिकवा,
सब कुछ भुला दें,
खुश्क आँगन में दिल के,
बेशर्त, बेशुमार,
नेह बरसा दें!!
चलो आज खुद से
मुलाकात कर लें.......!
-0-
2- आवारा मन
घूमता फिर रहा है,
कहो तो उससे, जो माने
ये तो अपनी ही ज़िद पे अड़ा है!
होगा कुछ भी नही,
यूँही, खाक छानकर, थका लौटेगा
क्या हुआ?
क्यों हुआ?
ऐसा होता तो?
वैसा न होता तो?....
इसी गर्दिश में धक्के खाकर,
फिर चुप चाप सिमट कर बैठेगा।
कह कर देखूं,
शायद मान ले-
"मन, अब तू बच्चा नहीं
बड़ा हो चला है,
जो है,
आज और केवल आज है,
काल की रट ने
सिर्फ
और सिर्फ छला है!!"
-0-
3-रश्मि विभा त्रिपाठी 'रिशू'
ज्यों बूँद झर
रुखसार से
हँसी याद मुझपे
कहती-क्यों तू
बिलखे विरहन
क्यों अश्रुजल
क्यों पनीले नयन
लुटा न मोती
नेह मत यूँ गिरा
चुन प्रेम बिखरा !
-0-