सॉनेट
मूल: गिरिजा बलियारसिंह
अनुवाद: अनिमा दास
(सॉनेटियर,कटक, ओड़िशा )
1.महानदी
अक्षरों के अमाप आषाढ़ में, अनंतर शब्दों के सावन
में
तिल से त्रिकाल पर्यंत, तुम्हें तीर्ण करती हे,
तिलोत्तमा,
तृष्णा के नक्षत्रों को सहेजता रहूँगा तुम्हारे ताल वन में
माँग में सजाती रहो, मेरे रक्त
की रंगीन ऊषा, हे प्रियतमा
!
समय के उस पार से, आओ स्वरवर्ण सा कर शृंगार
व्यंजन वर्ण की व्यथा हो विस्मृत- इस जन्म के प्रेत को
भाषातीत भाद्रपद में, आशातीत आश्विन
में लिये उभार
मेरे मोक्ष की महानदी..आओ, लाँघकर संकट संकेत को
आवर्तन तुम्हारे आलिंगन का रहे सदा के लिए दिगंत पर्यन्त
बह जाए भय-भ्रांति जितनी प्राचीन प्रणय की, जो गई हैं पसर
कौन बाँध सकता है तुम्हें, यदि तुम्हारी अनिच्छा
हो अत्यंत ?
हे, ओतप्रोत ओजपूर्ण ओंकार ! उतर आओ आज अधरों पर
महोदधि के हृदय में हो जाओ लीन, हे
महानदी तरंग !
प्रेम के इस प्रलय में विश्वास ही बन वटपत्र रहे अंतरंग।
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2. तिलोत्तमा
यदि मोहग्रस्त किया है विश्व को मेरा विदित विग्रह
तुषानल की तीव्रता से त्रिभुवन को मैंने दिया है त्राण
सम्मोहित किया है सहस्रासुर, सुन्द-उपसुन्द दुःसह
मेरे कटाक्ष से हुआ एक कंपित अन्येक पाया निर्वाण।
हुई रूपांतरित क्षुद्र रत्नकणों में : मैं तन्वी तिलोत्तमा
करता विमोहित.. महेंद्र से महादेव : मेरा चारु अवयव
स्वर्गीया मैं शून्या नारी, न हूँ मैं पत्नी,
न हूँ मैं प्रियतमा
तथापि मेरे अव्यक्त अनल में सदा पुरुष बनता है शलभ ।
मेरे रूप से तीव्र होती तृष्णा, तृष्णा
से बढ़ती है वेदना
चित्त भ्रमित अत्यंत शोभित..तिलांकित तन मेरा तदापि यथावत्
हृदय में है किसका हाहाकार? आहा! किसकी है यंत्रणा ?
क्या मेरा निर्जन सिक्त नारीमन है अनंत काल से क्रंदनरत?
हे विश्वकर्मा! ईश्वर की इच्छा से यदि किया मुझे निर्मित
किस सप्त सागर के स्रोत में, मैं करती स्वप्न समस्त
विसर्जित?
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