शुक्रवार, 31 दिसंबर 2021

304-सुख-साज

डॉ . कविता भट्ट 'शैलपुत्री'

 

पक्षियों के पर रँगीले


रेशम के बन्धन सजीले

हरीतिमा डाली निराली

नव किसलय, अमृत प्याली

रोक लेंगे क्या ये सब मुझे?

 

स्वप्नों की बारातें प्यारी

स्मृतियों की सौगातें न्यारी

नीलगिरि की बहती धारा

और भोर का उगता तारा

रोक लेंगे क्या ये सब मुझे?

 

पर्वतों के श्वेत सोते

प्राची मस्तक उषा अरुण होते

अश्रुओं की प्यारी करुणा

और ये सारी मृगतृष्णा

रोक लेंगे क्या ये सब मुझे?

 

अभी-अभी बीते क्षण में

और मृदु मृदाकण में

जगी थी एक स्फूर्ति

सजी थी एक मूर्ति

 

फिर यह आलस्य कैसा

मुझे तो चले जाना है

कहीं दूर… अति दूर…

ये सब असीम भौतिक सुख-साज

रोक लेंगे क्या ये सब मुझे?

(‘आज ये मन’- संग्रह से)

मंगलवार, 21 दिसंबर 2021

302-वक्त बड़ा बलवान


बाबूराम प्रधान

 

शांत समुद्र को  हिलाने जा रहा

दरिया खुद को  मिटाने जा रहा

 

धरती  ने   कहीं  टेर    लगाई है

बादल   पानी  पिलाने   जा रहा

 

मर्ज   उसका  है दिल का पुराना

देखो कहाँ नब्ज दिखाने जा रहा

 

जिसको सलूक का सलीका नहीं

सदर  से   हाथ  मिलाने जा रहा

 

जो बेचता रहा  जमीं  नजूल की सरकारी

हकूकों को हक़ दिलाने  जा रहा

 

समाज में जो विष  फैलाता रहा

बज्म  को अमृत पिलाने जा रहा

 

वक्त  बड़ा   बलवान  है  साहिब

बेअक्ल अदब  सिखाने जा रहा

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baburampradhan8@gmail.com

गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

300-अब अरुणोदय होगा

 डॉ.कविता भट्ट 'शैलपुत्री'
















उसने कुटिल मुस्कान के साथ कहा,

मैं तो राहु हूँ- तुम्हें ग्रास बना लूँगा।

मैंने मंद मुस्कान सहित निर्भीक कहा-

मैं तो सूरज हूँ - कालिमा निगलता हूँ

 

तनिक सोच- भौहें नचाकर उसने कहा,

केतु हूँ मैं- तुम्हारा तेज तो हर ही लूँगा।

मैं चंदा हूँ - मैंने प्रसन्न मुद्रा में कहा,

कलाओं में निपुण- उगता चलता हूँ

 

नए रूप धर, धमकाता वह आजकल

और मैं उन्मुक्त, उषा के अंक में पड़ा हूँ

अब अरुणोदय होगा - कुछ क्षणों में ही

मेरे साथ समग्र विश्व हँसेगा- उसे हराकर।

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मंगलवार, 7 दिसंबर 2021

298-प्रश्न

 

प्रश्न- बीना जोशी हर्षिता

 

महामारी,लॉकडाउन और


ऑनलाइन मुलाकातों के सिलसिले! 

स्नेह का स्रोत-सा,

मन के धरातल पर

अकस्मात् प्रस्फुटित होता है

और प्रेम की नन्ही- सी धार

निकलकर धीरे- धीरे बते हुए

एक विशाल नदी का

आकार ले लेती है।

हम दोनों के बीच

बहने वाली यह प्रेम-नदी

दो शहरों के तटबंधों को तोड़कर

सुदूर तुम्हारे घर तक जा पहुँचती है

और धकियाते  हुए

सभी रक्त-संबंधों

परिचितों एवं मित्रों को

तुम्हें अपने ही

आगोश में डुबो लेती है।

अपनेपन के मोह में उलझा

यह कोई पुराना नाता है,

 या इसी जन्म का रिश्ता?

 मेरी जिज्ञासा अकसर

 मुझसे प्रश्न करती है।

-0-6/12/2021

सोमवार, 6 दिसंबर 2021

297-मन अभिमन्यु

 डॉ.कविता भट्ट 'शैलपुत्री'




मन अभिमन्यु

 

आश्वासन दे कामनाओं को,

मैंने चिरनिद्रा में सुला दिया।

 

सौ - सौ बार हुआ जीवन रण,

मन अभिमन्यु सा सदा रहा।

 

बार - बार मृत मन को नोंचा,

स्वजन ने प्रहार भला किया।

 

भावनाओं की अर्थी निकली,

संवेदनाओं को जला दिया।

 

विज्ञ अर्थहीन सम्बन्धों से थी,

फिर भी आमंत्रण खुला दिया।

 

परिपथ धैर्य ने साथ न छोड़ा,

रंगमंच पटल - संग खड़ा रहा।

 

निज साहस ने सिंगार किया

ये दीपक आँधी में जला रहा।

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रविवार, 5 दिसंबर 2021

296

 डॉ.कविता भट्ट 'शैलपुत्री'





























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बिछड़ा साथी

 

क्या कभी नदिया का एक किनारा

दूसरे किनारे से जा मिला है?

बंजर -सूखे- कँटीले रेगिस्तान में

आशा का कोई फूल खिला है?

आम की कुसुमित डाली से

सुरभित मधुवन हुआ है?

हर उगलती विषकन्या को

प्यार से किसी ने छुआ है?

क्या कभी मानव-देह का परिचय

समक्ष ईश्वर के हुआ है?

जीतकर भी सब हारे यहाँ पर

ज़िन्दगी तो एक जुआ है?

क्या कभी चाँदनी रात में

तारों का कोई सिलसिला है?

खण्डहर फिर से बसा और

बिछड़ा साथी फिर से मिला है?