मंगलवार, 30 जनवरी 2018

मैं हूँ सरस होंठों की छुवन

डॉ. कविता भट्ट  

 नग्न तरुवर मैं  हूँ नहीं
शरद में ठिठुरता विकल
जिजीविषा हूँ कोंपलों की-
मैं वसंत की प्रतीक्षा प्रबल ।
 अश्रु लेकर कल खड़ा था
पीत-पतझर की राह में  
सहलाएगा गर्म सूरज
 अब भरके अपनी बाँह में ।
 बर्फ अवसादों की थी जो,
अब हँसी से गल जाएगी
 ऊषा  अब उन्मुक्त है;
 शीत-निशा  ढल जाएगी ।
 किरणें कोमल पीठ पर जब
अपनी उँगलियाँ फेरेंगी
गुदगुदाती लिपट लूँगी
जब  तीखी हवाएँ  हेरेंगी ।
 मुक्त हूँ- जड़ बंधनों से
मैं हूँ सरस  होंठों की छुवन  
दिव्य-प्रेम पथ की नर्तकी हूँ
 थिरक-थिरक करती हूँ नर्तन।
 बाँधकर आशा के घुँघरू  
      मदमस्त अब जो पग धरे
गुंजित होंगे पर्वत-शिखर
      गाएँगे प्रेम-तरु  हरे-भरे।
 -0-


26 टिप्‍पणियां:

  1. जीजिविषा हूँ कोंपलों की-
    मैं वसंत की प्रतीक्षा प्रबल ।
    अश्रु लेकर कल खड़ा था
    पीत-पतझर की राह में
    सहलाएगा गर्म सूरज
    अब भरके अपनी बाँह में ।
    बर्फ अवसादों की थी जो,
    अब हँसी से गल जाएगी । ये पंक्तियाँ वसन्त और उसकी जिवीविषा का बहुत ही सुन्दर चित्रांकन करती हैं। बहुत बधाई इस अनुपम सौन्दर्य को आकार देने के लिए

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  2. सार्थक सृजन के लिए हार्दिक बधाई कविता जी ।

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  3. सार्थक सृजन के लिए हार्दिक बधाई प्रिय कविता जी ।

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  4. बहुत सुंदर रचना ।हार्दिक बधाई कविता जी

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  5. बहुरत सुंदर सृजन कविता जी ! बहुत -बहुत बधाई आपको !!

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  6. सुंदर कविता! हार्दिक बधाई कविता जी!

    ~सादर
    अनिता ललित

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  7. बहुत ही रोमांटिक पंक्तियां हैं कविता जी..... हृदयस्पर्शी। बहुत बहुत बधाई आपको

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  8. बहुत ही सुन्दर कथन। मैम बहुत बहुत बधाई हो।

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  9. कविता जी की कविता में एक नव जीवन का संदेश है | एक आशावादी लहर है | बार -बार पढने को मन करता है | इतने सुंदर भावों को का हृदय से स्वागत ! श्याम त्रिपाठी हिन्दी चेतना

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    1. हार्दिक आभार, महोदय, आपने उत्साहवर्धन किया/

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    2. हार्दिक आभार, महोदय, आपने उत्साहवर्धन किया/

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  10. किरणें कोमल पीठ पर जब
    अपनी उँगलियाँ फेरेंगी
    गुदगुदाती लिपट लूँगी
    जब तीखी हवाएँ हेरेंगी ।
    मुक्त हूँ- जड़ बंधनों से
    मैं हूँ नर्म होंठों की छुवन
    दिव्य-प्रेम पथ की नर्तकी हूँ
    थिरक-थिरक करती हूँ नर्तन। -इस कविता मेंं प्रत्येक शब्द जैसे अनुगूँज छोड़ जाता है। 'किरणें कोमल पीठ पर जब/अपनी उँगलियाँ फेरेंगी/गुदगुदाती लिपट लूँगी/जब तीखी हवाएँ हेरेंगी।' में जीवन की आश्वस्ति है। नर्म होंठों की छुवन वास्तव में हर जड़ बन्धन से परे होती है- मुक्त हूँ- जड़ बंधनों से/मैं हूँ नर्म होंठों की छुवन। ये ही कोंपलों की जिजीविषा हैं। आशा का संचार करने वाली कविता, गहन भावों के मोतियों के रूप में अनुस्यूत ।- रामेश्वर काम्बोज

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  11. बहुत ही सुंदर कविता
    आपकी लेखनी से निकली एक और मोती
    हार्दिक बधाई स्वीकार करें

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  12. बहुत ही सुंदर कविता
    आपकी लेखनी से निकली एक और मोती
    हार्दिक बधाई स्वीकार करें

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  13. हार्दिक आभार आपकी सुन्दर प्रतिक्रिया एवं टिप्पणी हेतु/

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  14. बहुत अच्छी कविता है...मेरी हार्दिक बधाई स्वीकारें...|

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  15. बहुत ही सुंदर रचना । बधाई आपको

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  16. सुंदर रचना हमेशा की तरह 🌹बधाई 🙏

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  17. जिजीविषा हूँ कोंपलों की-
    मैं वसंत की प्रतीक्षा प्रबल ।

    आशा का संचार करती बहुत सुंदर कविता।हार्दिक बधाई कविता भट्ट जी।

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