डॉ. कविता भट्ट
नग्न
तरुवर मैं हूँ नहीं
शरद
में ठिठुरता विकल
जिजीविषा हूँ कोंपलों की-
मैं
वसंत की प्रतीक्षा प्रबल ।
अश्रु
लेकर कल खड़ा था
पीत-पतझर
की राह में
सहलाएगा गर्म सूरज
अब भरके अपनी बाँह में ।
बर्फ
अवसादों की थी जो,
अब
हँसी से गल जाएगी
ऊषा अब उन्मुक्त
है;
शीत-निशा ढल जाएगी ।
किरणें
कोमल पीठ पर जब
अपनी
उँगलियाँ फेरेंगी
गुदगुदाती लिपट लूँगी
जब
तीखी हवाएँ हेरेंगी ।
मुक्त
हूँ- जड़ बंधनों से
मैं
हूँ सरस होंठों की छुवन
दिव्य-प्रेम पथ की नर्तकी
हूँ
थिरक-थिरक
करती हूँ नर्तन।
बाँधकर
आशा के घुँघरू
मदमस्त अब जो पग धरे
गुंजित होंगे पर्वत-शिखर
गाएँगे प्रेम-तरु हरे-भरे।
जीजिविषा हूँ कोंपलों की-
जवाब देंहटाएंमैं वसंत की प्रतीक्षा प्रबल ।
अश्रु लेकर कल खड़ा था
पीत-पतझर की राह में
सहलाएगा गर्म सूरज
अब भरके अपनी बाँह में ।
बर्फ अवसादों की थी जो,
अब हँसी से गल जाएगी । ये पंक्तियाँ वसन्त और उसकी जिवीविषा का बहुत ही सुन्दर चित्रांकन करती हैं। बहुत बधाई इस अनुपम सौन्दर्य को आकार देने के लिए
सुंदर कविता 👌
जवाब देंहटाएंबहुत बधाई!!
सार्थक सृजन के लिए हार्दिक बधाई कविता जी ।
जवाब देंहटाएंसार्थक सृजन के लिए हार्दिक बधाई प्रिय कविता जी ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना ।हार्दिक बधाई कविता जी
जवाब देंहटाएंबहुरत सुंदर सृजन कविता जी ! बहुत -बहुत बधाई आपको !!
जवाब देंहटाएंसुंदर कविता! हार्दिक बधाई कविता जी!
जवाब देंहटाएं~सादर
अनिता ललित
बहुत ही रोमांटिक पंक्तियां हैं कविता जी..... हृदयस्पर्शी। बहुत बहुत बधाई आपको
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर कथन। मैम बहुत बहुत बधाई हो।
जवाब देंहटाएंआप सभी का हार्दिक आभार
जवाब देंहटाएंकविता जी की कविता में एक नव जीवन का संदेश है | एक आशावादी लहर है | बार -बार पढने को मन करता है | इतने सुंदर भावों को का हृदय से स्वागत ! श्याम त्रिपाठी हिन्दी चेतना
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार, महोदय, आपने उत्साहवर्धन किया/
हटाएंहार्दिक आभार, महोदय, आपने उत्साहवर्धन किया/
हटाएंकिरणें कोमल पीठ पर जब
जवाब देंहटाएंअपनी उँगलियाँ फेरेंगी
गुदगुदाती लिपट लूँगी
जब तीखी हवाएँ हेरेंगी ।
मुक्त हूँ- जड़ बंधनों से
मैं हूँ नर्म होंठों की छुवन
दिव्य-प्रेम पथ की नर्तकी हूँ
थिरक-थिरक करती हूँ नर्तन। -इस कविता मेंं प्रत्येक शब्द जैसे अनुगूँज छोड़ जाता है। 'किरणें कोमल पीठ पर जब/अपनी उँगलियाँ फेरेंगी/गुदगुदाती लिपट लूँगी/जब तीखी हवाएँ हेरेंगी।' में जीवन की आश्वस्ति है। नर्म होंठों की छुवन वास्तव में हर जड़ बन्धन से परे होती है- मुक्त हूँ- जड़ बंधनों से/मैं हूँ नर्म होंठों की छुवन। ये ही कोंपलों की जिजीविषा हैं। आशा का संचार करने वाली कविता, गहन भावों के मोतियों के रूप में अनुस्यूत ।- रामेश्वर काम्बोज
बहुत ही सुंदर कविता
जवाब देंहटाएंआपकी लेखनी से निकली एक और मोती
हार्दिक बधाई स्वीकार करें
बहुत ही सुंदर कविता
जवाब देंहटाएंआपकी लेखनी से निकली एक और मोती
हार्दिक बधाई स्वीकार करें
हार्दिक आभार आपकी सुन्दर प्रतिक्रिया एवं टिप्पणी हेतु/
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर कविता। बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबधाई
वाह!!!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविता है...मेरी हार्दिक बधाई स्वीकारें...|
जवाब देंहटाएंआप सभी का हार्दिक आभार
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर रचना । बधाई आपको
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आपका
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना हमेशा की तरह 🌹बधाई 🙏
जवाब देंहटाएंजिजीविषा हूँ कोंपलों की-
जवाब देंहटाएंमैं वसंत की प्रतीक्षा प्रबल ।
आशा का संचार करती बहुत सुंदर कविता।हार्दिक बधाई कविता भट्ट जी।