काश!
तुम जी लेती
नन्ही -सी
कली थी,
कल ही तो
खिली थी।
आँखों
में लिये सपने,
कैसे
होंगे उसके अपने?
बिंदास
अंदाज से भरी,
प्रीत-प्रेम
भाव से भरी ।
एक बन्धन
की स्वीकृति,
अनजाने
रचती हुई कृति।
सब कुछ
ठीक- ठाक था,
अनवरत-
सा दिन- रात था।
धीरे-
धीरे गुमशुम होती रही,
आँखों
में वो चमक न रही।
किसी ने
न दिया ध्यान
अपने भी
बने रहे अंजान।
कभी नहीं
की कोई शिकायत
किसी से कोई नहीं शिकायत।
अनमने
करती रही प्रयाण
खोजते
रहे जीवन के प्रमाण।
खुला जब
छुपा- सा तमाशा,
भाव
उमड़े थे तब बेतहाशा ।
आत्महत्या
नोट ,खुला
राज,
क्यों
बेजुबान बने सब आज।
ये छद्म
रूप था अपनों का,
मत देना
अधिकार मेरे सपनों का।
नहीं
अधिकार उन्हें अब कोई,
बेअसर थे, जब
मैं फूटकर रोई।
दाह
संस्कार, न करे वो स्पर्श,
जीते जी
दिया जिसने भाव -दंश।
हिंसा बस
मारपीट ही नहीं होती,
नैसर्गिक
ख़ुशी पर रोक भी होती।
पर
काश!तुम न हारती,
काश तुम
जिन्दा रह लेती।
अपनी
लड़ाई लड़ तो लेती,
एक इतिहास रच तो लेती.....।
-0- प्रो0
इन्दु पाण्डेय खंडूड़ी
(विभागाध्यक्षा,दर्शनशास्त्र विभाग,हे न ब गढ़वाल विश्वविद्यालय
श्रीनगर
गढ़वाल उत्तराखण्ड)
बहुत अच्छी मार्मिक यथार्थवादी रचना। गुरु जी को सादर बधाई नमन।
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण कविता...
जवाब देंहटाएंमार्मिक रचना जिससे ना बने बात उसकी उपेक्षा में ही भलाई है रचना शिक्षाप्रद भी है
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