डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'
विष पीते हुए जीवन क्या यूँ ही बीत जाएगा।
या ऋतुराज भी अपना वचन कोई निभाएगा।
प्रस्तर हो चुकी धरती, कंटक- वन हैं मुस्काते।
क्या मेरे मन - आँगन में कुसुम कोई
खिलाएगा।
रंगों ने
है संग छोड़ा, तूलिका भी है सिसकती।
क्या इन रूखे कपोलों पर कोई लाली सजाएगा।
अब पत्रक भी भीगे हैं, लेखनी मौन है बैठी।
क्या मेरे शुष्क अधरों पर कोई रूपक
बनाएगा।
धरा चुप है, गगन चुप है, चुप है सृष्टि ये सारी।
क्या कोई खग विकल होकर सुर-गंगा बहाएगा।
आज तुम डूबे स्वयं में हो, नहीं सुध ले रहे मेरी।
किंतु भूलो नहीं तुम यह विरह भी
मुस्कराएगा।
अभी ठोकर में हैं जग की- अडिग संकल्प ये
मेरे।
समय मुस्कान देकर कल गले इनको लगाएगा।