1-प्रेम करती हो /सुदर्शन
रत्नाकर
हाँ, करतीं हूँ मैं तुमसे
प्रेम
पर
तुम्हें पाना नहीं चाहती
देखती हूँ तुम्हें,
सितारों की झिलमिलाहट में
चाँद की चाँदनी में
नक्षत्र बन चमकते हो।
छूती है जब शीतल हवा
मेरे बदन को
महसूसती हूँ तुम्हारा स्पर्श
बर्फ की तरह ठंडा
बिन एहसास के।
जब
महकते हैं चटक लाल गुलाब
उनकी ख़ुशबू से
होते हुए
मेरे दिल में उतरते हो
और
छू
लेते हो मेरी रूह को
जो
भटकती है तुम्हें पाने के लिए
लेकिन, तुम केवल तृष्णा हो
मेरे मन की
अस्थायी है यह प्रेम
मुझे चाहिए पूरा प्रेम
जो
आत्मा में बस जाए।
झिलमिलाहट नहीं तारे चाहिए
चाँदनी नहीं, चाँद चाहिए
स्पर्श नहीं हवा चाहिए
ख़ुशबू नहीं, फूल चाहिएँ
दे
सकते हो मुझे!
नहीं ना
फिर यह कैसा है प्रेम !
जो
आत्मा में बसा ही नहीं
फिर क्यों पूछते हो मुझसे,
प्रेम करती हो
हाँ, करती हूँ मैं प्रेम
पर
ऐसा प्रेम
जो आत्मा
में समाकर
एकाकार
हो जाए।
-0-ई-29,नेहरू
ग्राउंड,फ़रीदाबाद 121001
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2-बच्चे / डॉ. पद्मजा शर्मा
जिस घर में बच्चे
खिल-खिल हँसते हैं
उस घर में
किसी प्रार्थना की जरूरत नहीं
अभी सब चैन की नींद सो जाओ
कि जाग रहे हैं बच्चे
पृथ्वी पर
इस रात हम सब टहलने जा सकते हैं
कि बच्चों की निगरानी पर हैं
आसमान के सारे तारे
आओ बच्चों से तुतलाकर बात करें
कल ये बड़े हो जाएँगे
बच्चे चिड़ियों की तरह चहक रहे हैं
सीख लें इनसे चहकना
हम भी
अभी बच्चे सपनों में उड़ रहे हैं
अनंत आसमान में
ध्यान रहे कोई बाज न आ जाए
यह दृश्य कितना मनभावन है
कि ट्यूशन का समय है
और बच्चे गेंद खेल रहे हैं
सर्दी की धूप - से बच्चे
कच्चे सूत - से बच्चे
पहुँचे हुए अवधूत - से बच्चे
-0-डॉ. पद्मजा शर्मा,15 – बी, पंचवटी
कॉलोनी ,सेनापति भवन के पास रातानाडा, जोधपुर (राज.) 342011
ई मेल – padmjasharma@gmail.com ।
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3-उत्फुल्ल नयन / डॉ. उपमा
शर्मा
मैं धरती तुम निस्सीम गगन
तुमको तकते उत्फुल्ल नयन
जाना तुमने प्रिय सच कह दो
है बीच हमारे क्या बंधन
तुम हो पारस मैं लौह भले
तुमको छूकर मैं हूँ कुंदन
माथे से छू कर ली जाती
तुम दीपक की वो लौ पावन।
मैं धरती तुम निस्सीम गगन
तुमको तकते उत्फुल्ल नयन।।
क्या जोड़ें हमको आपस में
नदिया के हम दो छोर लगे
बँधकर अनुबंधों की जैसे
कोई रेशम की डोर लगे
मीरा जैसा ये प्रेम बना
कान्हा- सा तुझमें सम्मोहन ।
मैं धरती तुम निस्सीम गगन
तुमको तकते उत्फुल्ल नयन।।
कैसे
मैं सारी बात कहूँ
खोलूँ
ये सारे अवगुंठन
ऊसर मन का कोना- कोना
तुमसे हो जाता वृंदावन।
डूबा तुझमें मेरा तन- मन
जाने यह कैसा आकर्षण ।
मैं धरती तुम निस्सीम गगन
तुमको तकते उत्फुल्ल नयन।।
तेरी
मूरत यूँ मन
में है
देवालय में हो देव कोई
पूजा करती निशदिन तेरी
सुध-बुध अपनी खोई-खोई।
सुमिरन तेरा ही अब हर क्षण
करती
तेरा मैं हूँ
वन्दन।
मैं धरती तुम निस्सीम गगन।
तुमको तकते उत्फुल्ल नयन।।
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4-जन्मों
का गठबंधन / अनिता ललित
बोली मुस्कान आँसू से
एक दिन आकर -
क्यों आते हो तुम -अँखियों में भर-भर?
हो मजबूर, मैं जाती हूँ बिखर!
बोला आँसू -
तुम आओ जो खिल-खिलकर,
मैं भी तो हो जाऊँ बेघर!
दया तुम्हें न आए मुझ पर?
दुख की गगरी संग मेरे -जब नैनों में भर-भर आती,
मेरे घर भी, उस पल हर सू -बहारें ही बहारें छातीं!
लेकिन जैसे ही चौखट पर, दबे पाँव से तुम आतीं -
देख के तुमको झूम ही जाती!
दुनिया मुझको भूल ही जाती!
दुनिया में सबको तुम प्यारी, अदा तुम्हारी सबसे न्यारी,
ओढ़ा दो अपनी चादर मुझको -ज़ालिम! साँसें रोके मेरी!
फिर मिल बैठे, लगे सोचने -होता ऐसा आख़िर क्योंकर?
दोनों जब जज़्बात के बस में –
फिर दुश्मनी क्यों आपस में?
देख नम मुस्कान की आँखें, आँसू हौले से मुस्काया,
दोनों के शिक़वों का उसको, राज़ समझ में अब आया!
थाम हाथ मुस्कान का, आँसू फिर उस से बोला -
अँखियों में जब मैं, भर आता -मुझमें
वजूद तेरा मुस्काता!
जब भी तुम लब पर लहराती -अँखियों से मैं बह-बह जाता!
तुम मेरी! मैं तेरा! दोनों हम -
एक-दूजे के पूरक हैं हम!
ग़र तुम न हो -क्या हस्ती मेरी?
जो मैं नहीं -क्या क़दर तुम्हारी?
दुनिया क्या जाने साथ निभाना, ये ठहरी बेईमान!
ग़रज़परस्त, मतलबी यहाँ के - हैं सारे इंसान!
अपने अंधे सुख-दुःख में ये -हमको लाट बनाए
है!
कभी सजाए, कभी बहाए, जी भर हमें नचाए है !
ग़ुलाम सही हालात के हैं हम -मगर अधूरे अलग-अलग हम!
अपना तो बस अनूठा बंधन -
ये है -जन्मों का गठबंधन!!!
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