डॉ. कविता भट्ट
(ए. प्रोफेसर तथा योग विशेषज्ञ, दर्शनशास्त्र
विभाग,हे.न.ब.गढ़वाल (केन्द्रीय) विश्वविद्यालय,श्रीनगर (गढ़वाल), उत्तराखण्ड
भौतिक सुख-सुविधाओं हेतु
संसाधनों को अर्जित करने की अंधी दौड़ ने मानव समाज को अथक भागदौड़ और गलाकाट
प्रतिस्पर्धा के अंधे कुएँ में धकेल दिया है। इससे कितना भी बचना चाहो बचा नहीं जा
सकता। मनुष्य की अंधी दौड़ ने उसे प्रकृति से विमुख किया और अपने वास्तविक स्वरूप के
प्रति अनभिज्ञ भी बनाया। आज हमारे पास अपने आप से संवाद करने और अपने व्यक्तित्व
को स्वस्थ बनाए रखने का समय ही नहीं है। हम एक मशीनी जीवन जी रहे हैं। व्यक्ति
केवल नोट छापने की मशीन बनकर रह गया है। यह अत्यंत घातक दौर है। जब हम स्वस्थता की
बात करते हैं, तो हम केवल
शारीरिक रूप से नीरोग रहने को स्वस्थ नहीं कहते; अपितु योग
और आयुर्वेद जैसी भारतीय दर्शन शाखाएँ मानती हैं कि स्वस्थ का अर्थ है- स्वयं में
अवस्थित होना। जब व्यक्ति शारीरिक रूप से व्याधिरहित हो, मानसिक
रूप से आधि रहित हो और अपनी आत्मा के स्वरूप को समझे; तब उसे
स्वस्थ कहा जाएगा। प्रसन्नता का विषय है कि डब्ल्यू एच ओ ने भी स्वस्थता के
मापदण्ड प्रस्तुत करते हुए माना है कि स्वस्थ वही व्यक्ति कहलाएगा, जो शारीरिक, मानसिक, आत्मिक और
सामाजिक इन सभी पक्षों पर सम्यक् रूप से यथोचित स्थिति में हो। इस प्रकार डब्ल्यू
एच ओ ने भी भारतीय परम्परा में प्रस्तुत स्वस्थता की परिभाषा का ही अनुगमन किया।
स्वस्थता के लिए योग और आयुर्वेद दोनों ही भारतीय परम्परा का अभिन्न अंग रहे हैं
तथा आज पूरा विश्व इनके लिए भारत का ऋणी है। ये विश्व स्तर पर सर्वाधिक लोकप्रिय
हैं। योग की लोकप्रियता में तब और अधिक वृद्धि हुई जब 2014
मंे भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने 21 जून को अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस घोषित करवाने के लिए अविस्मरणीय योगदान
दिया।
आधुनिक जीवन शैली भागदौड़ और तनाव से भरी है; किन्तु
यदि कुछ समय निकालकर योगाभ्यास किया जाए तो व्यक्ति पूर्णतः स्वस्थ, प्रसन्न और आनन्दित रह सकता है। इसके लिए कुछ तथ्यों को जानना चाहिए। पहली
बात तो यह कि केवल कुछ आसन आदि कर लेना योग नहीं है; अपितु
यह पूरा अनुशासन और जीवन पद्धति है। इसमें व्यक्ति के लिए स्वस्थता और परमकल्याण
की व्यवस्था है। जनसामान्य को भी यह जानना चाहिए कि योगदर्शन भारतीय दर्शन की एक
व्यावहारिक शाखा है। प्रारम्भ में यह भ्रान्ति व्याप्त थी कि योग केवल आध्यात्मिक
लक्ष्य हेतु ही किया जाता है; किन्तु कालान्तर में जैसे-जैसे
वैज्ञानिक अनुसंधान होते गए; सर्वसम्मति से यह स्वीकार किया
जाने लगा कि योग के अभ्यास पूर्णरूप से चिकित्सीय निहितार्थों से युक्त हैं। इन
सभी अभ्यासों का आधार पूर्णरूप से वैज्ञानिक है। वास्तव में भारतवर्ष की गौरवशाली
परम्परा में ऋषि-मुनि महान वैज्ञानिक, दार्शनिक और मनीषी थे।
इन्होंने निस्वार्थ रूप से दुःखनिवृत्ति हेतु योग के विभिन्न
अभ्यासों का संधान किया। आधुनिक जीवनशैली में योग अत्यंत उपयोगी सिद्ध हो रहा है;
इसे समझने के लिए सर्वप्रथम हम योग परम्परा की बात करेंगे।
योग वैदिक काल से ही हमारी
परम्परा का अभिन्न अंग था। ऐसा माना गया है कि हिरण्यगर्भ योग के आदि वक्ता हैं।
वेदों के उपरान्त उपनिषदों आदि में भी योग को यत्र-तत्र निर्देशित किया गया; किन्तु सूत्रकाल में इस बिखरे हुए ज्ञान को महर्षि
पतंजलि ने योगसूत्र नामक ग्रन्थ में संकलित करते हुए सुव्यवस्थित रूप से प्रस्तुत
किया। यही पातंजलयोगसूत्र के नाम से योग के सर्वाधिक व्यवस्थित ग्रन्थ के रूप में
प्रतिष्ठित है। इस ग्रन्थ में समाधि का विशिष्ट विवेचन है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं
समाधि के रूप में आठ अंगों का अभ्यास समाहित होने के कारण, इसे
अष्टांग योग कहा जाता है। इसे राजयोग की संज्ञा भी दी गयी है। राजयोग समाधि और
उससे पूर्व के सभी अभ्यासों के सैद्धान्तिक पक्ष को सूत्ररूप में प्रस्तुत करता है
और इसके प्रायोगिक या अभ्यास वाले पक्ष को हठयोग में विस्तारपूर्वक समझाया गया है।
इस प्रकार राजयोग और हठयोग का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। यह भी कहा जा सकता है कि
राजयोग के लक्ष्य प्राप्त करने हेतु हठयोग का अभ्यास करना आवश्यक है। हठयोग में
षट्कर्म, आसन, प्राणायाम, मुद्रा एवं बन्ध, प्रत्याहार, धारणा-ध्यान
एवं समाधि का विवेचन है।
यदि वर्तमान परिस्थितियों की
बात की जाए तो दबाव, तनाव,
दुश्चिंता तथा अवसाद आदि मानसिक समस्याओं के कारण व्यक्ति मानसिक
रूप से तो अस्वस्थ है ही; इन्हीं से वह गम्भीर शारीरिक रोगों
का भी शिकार बन जाता है। आयुर्वेद तथा आधुनिक चिकित्सा विज्ञान एकमत हैं कि अधिकतर
शारीरिक रोगों की उत्पत्ति मानसिक अस्वस्थता से होती है। इसके साथ ही यह भी जानना
चाहिए कि यदि व्यक्ति शारीरिक रूप से अस्वस्थ है तो वह मानसिक रूप से भी अस्वस्थ
हो ही जाता है। हमें यह जानना चाहिए कि योग के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के शरीर
में वात, पित्त तथा कफ उपस्थित होते हैं। ये त्रिदोष स्थूल
रूप से व्यक्तित्व का अभिन्न अंग हैं। जिस प्रकार दीपक, तेल
और बाती मिलकर प्रकाश फैलाते हैं; ठीक उसी प्रकार त्रिदोष
व्यक्तित्व को संचालित करते हैं। इसी प्रकार सूक्ष्म रूप से सत्त्व, रजस् और तमस् व्यक्तित्व में समाहित होते हैं। इन्हें त्रिगुण कहा जाता
है। ऐसा भी माना गया है कि इन त्रिगुणों के स्थूल प्रतिनिधि त्रिदोष हैं। आयुर्वेद
और योग में माना गया है कि सामान्य रूप से ये संतुलन और यथोचित अनुपात में ही
हमारे व्यक्तित्व में समाहित हैं; किन्तु अनियमित दिनचर्या,
खान-पान, रहन-सहन और आचार-व्यवहार से ही
असंतुलित और प्रकुपित हो जाते हैं। इसी कारण व्यक्ति शारीरिक तथा मानसिक रूप से
अस्वस्थ हो जाता है। सीधी सी बात यह है कि यदि स्वस्थ रहना है तो त्रिदोष को
संतुलित और यथोचित अनुपात में रखना आवश्यक है। इसके लिए नियमित अनुशासित दिनचर्या,
योगाभ्यास, सात्त्विक भोजन, शास्त्रोचित रहन-सहन और आचार-व्यवहार मूलमंत्र हैं।
ध्यान देने योग्य तथ्य यह है
कि योग के आसन, प्राणायाम व
ध्यान जैसे अभ्यास ही तुलनात्मक रूप में अधिकांशतः प्रचलित हैं; वह भी मात्र शारीरिक व मानसिक लाभ जैसे लक्ष्यों को केन्द्र में रखकर ही
किये जाते हैं। जबकि विभिन्न योगाभ्यास शारीरिक एवं मनोचिकित्सीय निहितार्थों के
साथ आध्यात्मिक एवं नैतिक उन्नति के लिए भी अत्यंत उपयोगी हैं। परिणामस्वरूप,
योग के विभिन्न अभ्यास विश्व-स्तर पर मनोशारीरिक चिकित्सा अथवा
उपचार (Cure ) के दृष्टिकोण से ही नहीं अपितु प्रतिरोध/पूर्व-सुरक्षा (Prevention) के लिए
भी अपनाये जा रहे हैं। प्रचलित कहावत है ‘Prevention
is better than cure’ अर्थात्
प्रतिरोध/बचाव/पूर्व-सुरक्षा उपचार से अधिक श्रेष्ठ है। इस दृष्टिकोण से मनोकायिक
व्याधियों के निवारण के साथ ही प्रतिरोध/बचाव/पूर्व-सुरक्षा के रूप में योग के
विभिन्न अभ्यास प्रसिद्ध हैं। इस प्रकार आधुनिक काल में शारीरिक और मानसिक दोनों
ही दृष्टिकोणों से योगाभ्यास अत्यंत उपयोगी है।
आधुनिक जीवनचर्या में
अधिसंख्य वर्ग मानसिक कार्य में ही उलझा हुआ है तथा शारीरिक श्रम की कमी हो गयी
है। इस दृष्टि से योग में निर्देशित आसन अत्यंत उपयोगी हैं। योग में तीन प्रकार के
आसनों का निर्देश है- शरीर संवर्धनात्मक, ध्यानात्मक तथा शरीर शिथिलीकारक आसन। शरीर संवर्धनात्मक आसन शरीर के
संवर्धन हेतु किए जाते हैं। ये खड़े होकर, बैठकर, पेट तथा पीठ के बल लेटकर किए जाते हैं। ध्यान के लिए ध्यानात्मक आसनों का
निर्देश है; जो विशेष शारीरिक स्थितियों में बैठकर किए जाते
हैं। शरीर को आराम देने के लिए शरीर शिथिलीकारक आसन किए जाते हैं। आज के समय में
लगभग प्रत्येक व्यक्ति वात, पित्त तथा कफ के असंतुलन से
उत्पन्न घातक रोगों का शिकार बना हुआ है। ऐसे में आसन शरीर के सभी तन्त्रों को
स्वस्थ रखने हेतु अत्यंत उपयोगी हैं। ये हॉर्मोन्स को भी संतुलित रखते हैं और मन
पर भी सकारात्मक प्रभाव डालते हैं; जिससे शरीर और मन दोनों
से स्वस्थ होता है। प्राणायाम प्राणशक्ति को श्वास-प्रश्वास द्वारा नियमन और
विस्तारण का श्रेष्ठ साधन है। यह भी त्रिदोष और त्रिगुण को यथोचित अनुपात और
संतुलन में रखता है। इस प्रकार आधुनिक जीवन शैली में आसन और प्राणायाम स्फूर्ति,
सकारात्मक दृष्टिकोण, स्वस्थ मानसिकता,
प्रसन्नता और तनाव नियन्त्रण में अत्यंत उपयोगी हैं। आसन और
प्राणायाम से पूर्व किए जाने वाले षट्कर्म भी त्रिदोष को संतुलित करते हुए व्यक्ति
को स्वस्थ रखने के प्राथमिक अनिवार्य अभ्यास हैं; यदि इनको न
करके केवल आसन आदि किया जाता है तो उनका पूर्ण लाभ प्राप्त नहीं होता। इसीलिए
षट्कर्म अर्थात् छह शुद्धिकर्म- धौति, वस्ति, नेति, नौलि, त्राटक और
कपालभाति को यथोचित ढंग से किया जाना आवश्यक है। इसी प्रकार प्राणायाम और इसके
उपरान्त के साधन जैसे प्रत्याहार और ध्यान को भी अवश्यमेव अपनाया जाना चाहिए।
मुद्रा और बन्ध आदि भी स्वास्थ्य और परम कल्याण हेतु अपनाये जाने चाहिए।
ध्यान जैसे अभ्यास मानसिक
तनाव तथा अवसाद आदि से मुक्त करते हैं। साथ ही पूरे शरीर तन्त्रों पर सकारात्मक
प्रभाव डालते हैं। हॉर्मोन्स को यथोचित संतुलन की स्थिति में लाकर व्यक्ति को
स्वस्थ बनाते हैं। जब योगाभ्यास किया जाता है तो मन में सन्तोष और परमशान्ति के
भाव उत्पन्न होते हैं। ऐसा होने पर व्यर्थ के प्रपंच में उलझने का मोह भी समाप्त
होता है। नैतिक आज समाज में नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है। ऐसी स्थिति में आसन
से पूर्व यम तथा नियम का अनुपालन आवश्यक है। यम के अन्तर्गत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का विधान है। इनके अनुपालन से वैरभाव समाप्त होता
है, विश्वास का भाव दृढ़ होता है, कामवासना
के अधीन होकर किए जाने वाले अपराधों पर रोक लगती है और अनावश्यक लालच के वश में
होकर जमा की जाने वाली सम्पत्ति के प्रति मोह भंग हो जाता है। नियम के अन्तर्गत
शौच से शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शुद्धि होती है। सन्तोष से
सन्तुष्टि का भाव उत्पन्न होता है। तप से विपरीत परिस्थितियों को सहन करने की
क्षमता में वृद्धि होती है। स्वाध्याय से ज्ञान में वृद्धि होती है। ईश्वर
प्रणिधान से अनावश्यक चिंता, तनाव एवं अवसाद से मुक्ति मिलती
है। व्यक्ति समाज की इकाई है और जब वह आसन आदि से पूर्व यम तथा नियम का अनुपालन
करता है तो एक नैतिक तथा स्वस्थ समाज की नींव तैयार होती है। आज जब धर्म, जाति, लिंग तथा वर्ग के नाम पर सर्वाधिक हिंसा,
वैमनस्य तथा आतंक फैलाया जा रहा हो; ऐसे में
इन सभी परिधियों से ऊपर उठकर सकारात्मक भाव के साथ स्वस्थ और आदर्श मानव समाज हेतु
योग का अभ्यास किया जाना चाहिए। यह शारीरिक, मानसिक तथा
आत्मिक स्वस्थता प्रदान करते हुए मानक मात्र को कल्याण के पथ पर अग्रसर
करेगा।
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