डॉ.कविता भट्ट
सुलग रहा मानव समाज है,
झुलस रही है मानवता।
राष्ट्र हमारा जलता निशिदिन,
इस आतंक की ज्वाला में।
आज भारत माँ की साड़ी में,
जितने रंग हैं, उतनी गाँठें।
रेशमी, धानी चूनर में,
जितने रेशे उतने टाँके।
हिम-मुकुट माँ का पिघल रहा है,
आग की लपटों और बारूद की गर्मी से।
कोई पैरों पर वार कर रहा,
और कोई रक्तरंजित कर रहा भुजाएँ ।
कोई छेद रहा हृदय को,
और कोई अंतःकरण कुरेदे।
यह अट्टाहास विकृति का प्रलय समान,
अरे! काल की यह कटु-मुस्कान।
और कितने यौवन, शैशव, प्रौढ़
चढेंगें इस बलि वेदी पर,
कितने निरपराध भूने जाएँगे
इस आतंक की ज्वाला से
घर की चौखट के सटा बाहर
रख छोड़ा था हमने एक दीपक
सोचा था यह प्रस्फुटित करेगा
कुछ मंद-मुस्कुराता हुआ प्रकाश
क्या करें हमारे घर को उसी से है
जलने का भय दिन रात हर पहर !
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