रविवार, 17 जुलाई 2022

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 दिनेश चंद्र पाठक बशर

 


यूँ किसी रोज़ जा भी सकता हूँ

मैं तुम्हें याद आ भी सकता हूँ।।

 

ग़म को तकिये तले छुपाकर के

चुटकुले कुछ सुना भी सकता हूँ।।

 

मैं नहीं दिल के हाथ बेचारा

तुम कहो तो भुला भी सकता हूँ।।

 

वो सरे शाम याद आने लगा

इक नया गीत गा भी सकता हूँ।।

 

बशर आज कुछ तो होना है।

तीर नज़रों के खा भी सकता हूँ।।

 

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