डॉ. उपमा शर्मा (नई दिल्ली)
समकालीन हिंदी काव्य में अतुकांत कविता ने बहुत दिनों तक अपना साम्राज्य स्थापित रखा; लेकिन
छंद जैसी गेयता और लावण्य प्राप्त करने में यह पूर्णतः सफल नहीं हो सकी। आदिकाल से ही काव्य को कसौटी पर कसते छंदों का लावण्य कवियों और श्रोताओं को अपनी ओर खींचने मे सक्षम रहा है। उसी कड़ी में आज दोहा जैसे मात्रिक छंद ने अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त की है। दोहा साहित्य के आदिकाल से लिखा जाने वाला छंद है। तुलसी, कबीर ,बिहारी के दोहे सुनते पढ़ते ही हम बड़े हुए हैं।
छंद वस्तुत: एक ध्वनि समष्टि है। छोटी-छोटी अथवा छोटी- बड़ी ध्वनियाँ जब एक व्यवस्था के साथ सामंजस्य प्राप्त
करती हैं तब उसे एक शास्त्रीय नाम छंद दे दिया जाता है । जब मात्रा अथवा वर्णॊं की संख्या, विराम, गति, लय तथा तुक आदि के
नियमों से युक्त कोई रचना होती है, उसे छंद अथवा पद्य कहते
हैं, इसी को वृत्त भी कहा जाता है।
वाक्य में प्रयुक्त अक्षरों की संख्या एवं क्रम, मात्रा-गणना तथा
यति-गति से सम्बद्ध विशिष्ट नियमों से नियोजित पद्यरचना ‘छन्द’ कहलाती है। यदि
गद्य की कसौटी ‘व्याकरण’ है तो कविता की कसौटी ‘छन्दशास्त्र’ है।
पहले गुरु की वंदना, करूँ हाथ मैं जोड़।
जिसने चमकाया सदा, जीवन का हर मोड़।
लिखती कथा कहानियाँ, मीठे मोहक गीत।
लिख-लिख खत मनुहार के,कलम मनाती मीत।
तुमसे जुदा न शारदे, कभी कमल का नाम।
यश तो मिलता है मुझे, करती हो तुम काम ।
बिंब विधान से हमारा तात्पर्य काव्य में आए हुए उन शब्द चित्रों
से है, जिनका संबंध जीवन के व्यावहारिक क्षेत्रों से तथा
कल्पना के शाश्वत जगत से होता है। कवयित्री की सजीव अनुभूति, तीव्र भावना से परिपूर्ण होते हैं और गत्यात्मकता ,सजीवता
, सुंदरता एवं सरसता के कारण जीते-जागते,
चलते फिरते बिम्ब बातचीत करते से जान पड़ते
हैं। इनके दोहों में बिंब का सटीक प्रयोग
हुआ है। यथा-
ओस कणों से भीग के, हुई तरल अति भोर।
कलियॉं मुखड़े धो रहीं, गुलशन हुए विभोर।
अंबर के अँगना तनी, लाल केसरी डोर।
ठुमक -ठुनकर नाचती, नटनी जैसी भोर।
सुलग रही अंगार- सी, जेठ -माह की धूप।
रूपवती गुलनार का, बिगड़ा सुंदर रूप।
पायल- सी छनका रही, मीठी मंद बयार।
रवि मेघों की ओट से, बरसाता है प्यार।
जीवन बहुआयामी है। अनेक परिस्थितियाँ और घटनाएँ जीवन को उद्वेलित करती हैं। सामान्य मनुष्य और कवि भी अपने इर्द-गिर्द रोजाना बहुत कुछ घटित होते हुए देखता है, परंतु उसकी संवेदनाएँ सामान्य मनुष्य के अपेक्षाकृत अधिक उत्कट और प्रखर होती हैं। कवि प्रकृति के दृश्यों में वह सौंदर्य खोज लेता है, जो साधारण मनुष्य की दृष्टि नहीं खोज पाती। कमल कपूर का रचना संसार प्रकृति के साथ ही फैला नज़र आता है। एक अंकुर के प्रस्फुटन से लेकर पतझड़ तक बहुत कुछ समसाती है प्रकृति। यही विविधता कमल कपूर के दोहों में द्रष्टव्य है-
रंग बिरंगे फूलों से भरे हरे-भरे घास के मैदानों, सुन्दर नीले आकाश और
ऊँचे पेड़ों के साथ घने जंगलों के साथ पक्षियों की चहचहाहट मन को सुख और जीवन को
उमंग देने वाली प्रकृति, किसी के साथ किसी प्रकार का कोई भेदभाव
न करने वाली प्रकृति। हमें साँसें देने वाली प्रकृति। कवयित्री के दोहों में
प्रकृति की खूबसूरती जैसे उतरी पड़ी है। उन्हें जाड़े के सूरज में धीमा सुलगता
अलाव नज़र आता है, तो वो कनक सेज पर बैठे हुए कोई राजा भी
लगते हैं। उन्हें जेठ की तपती दोपहरी का सूरज भी उतना ही सुंदर और उपयोगी लगता है, जो लाल मनभावन गुलमोहर को अपनी लालिमा प्रदान करता प्रतीत होता है। उन्हें
जितनी ख़ूबसूरती दिन में नजर आती है, उतनी ही रात में। वे कहती हैं- रात नींद और सपनों की मधुर सौगात बाँटती
है। जितना उन्हें बसंत के फूलों में आकर्षण लगता है, उतना ही पतझड़ की ऋतु भी आवश्यक लगती है। प्रकृति का कोई रूप कोई रंग
अनावश्यक नहीं है, उनके दोहों में ये स्पष्ट संदेश है-
पतझड़ ऋतु है खोलती, नए-नवेले द्वार।
जिनसे आती फिर नई, मधुरिम एक बहार।
-0-रंग भरे दिन रैन( दोहा-संग्रह): कमल कपूर; पृष्ठ: 106; मूल्य: 260 रुपये, संस्करण: 2022, प्रकाशक: अयन
प्रकाशन, जे-19/39, राजा पुरी, उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059
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