पेज

रविवार, 17 जुलाई 2022

371

 दिनेश चंद्र पाठक बशर

 


यूँ किसी रोज़ जा भी सकता हूँ

मैं तुम्हें याद आ भी सकता हूँ।।

 

ग़म को तकिये तले छुपाकर के

चुटकुले कुछ सुना भी सकता हूँ।।

 

मैं नहीं दिल के हाथ बेचारा

तुम कहो तो भुला भी सकता हूँ।।

 

वो सरे शाम याद आने लगा

इक नया गीत गा भी सकता हूँ।।

 

बशर आज कुछ तो होना है।

तीर नज़रों के खा भी सकता हूँ।।

 

-0-

2 टिप्‍पणियां: