डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'
जिसे जो भी चाहिए, उसे वे अधिकार दे दो,
अभिशाप जितने हैं जग में, मुझे वे भंडार दे दो।
धड़कनें अब थक रही, शेष सब दुत्कार दे दो।
प्रभु! यदि कुछ शेष हों, जूठनें और कतरनें;
मेरी ही झोली में डालो, इक ये पुरस्कार दे दो।
मौन धरती- गगन चुप, कैसी निर्मम भाग्यरेखा;
स्वप्न में ही खो गईं, अब तो वह मनुहार दे दो।
जो भी अमृत तुम दिए थे, बाँट आई अँजुरियाँ;
विष ही मेरे नाम का तो, उसके ही अम्बार दे दो।
खिंच गई हैं क्यों कटारी, मैंने ऐसा क्या किया;
प्यार देकर घृणा पाई, सब शेष हाहाकार दे दो।
अंकुरण से पूर्व ही, मरुथल- सी धरती हो गई;
ताप कोई भी शेष हो, इस बीज को संहार दे दो।
है पवन भी रुक्ष- सी, वृक्ष कंटक बन खड़े;
इतनी -सी मेरी
प्रार्थना, मृत्यु को आकार दे दो।
रक्तधारा शिथिल- सी, हृदयगति विश्रांत है;
अब मुझे ले लो,शरण इतना- सा उपहार दे दो।
सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंअत्यंत मर्मस्पर्शी रचना... आद. कविता जी 😢🌹🙏
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर हृदपि को छू जाने वाली रचना है आदरणीया
जवाब देंहटाएंअद्भुत
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर
जवाब देंहटाएंवाह! सुंदर!!
जवाब देंहटाएंअत्यंत उत्कृष्ट सृजन।
जवाब देंहटाएंहार्दिक बधाई आदरणीया दीदी।
सादर
खिंच गई हैं क्यों कटारी, मैंने ऐसा क्या किया;
जवाब देंहटाएंप्यार देकर घृणा पाई, सब शेष हाहाकार दे दो।///
मन के सूक्ष्म भावों की बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति है कविता जी म।हार्दिक शुभकामनाएं 🙏
अपेक्षा अब नहीं कोई, जगत के व्यापार से;
जवाब देंहटाएंधड़कनें अब थक रही, शेष सब दुत्कार दे दो।
सहुत ही उत्कृष्ट एवं लाजवाब सृजन
वाह!!!