डॉ . कविता भट्ट 'शैलपुत्री'
हँस
कर राजा के कान।
तुझसे पहले भी अनेक
हुए
मुझ पर विराजमान।
उनकी भी थी शब्दसभा
उनके
भी थे मंगलगान।
चारण उनके भी यों ही
करते
रहते थे यशोगान।
समय कटा, प्रसाद बँटा
हुआ
पुष्पित सम्मान।
थे अवाक सुन ढोल
काल
चक्र से अनजान।
पुष्प बरखा अकूत हुई
जब गूँजा
विजय-विहान।
आज मरघट हो गए
उनके घर भी
सुनसान।
क्यों मद में इठलाता
क्यों इतना
अभिमान?
कुछ तो कर लोकार्पित
पीढ़ियाँ
करेंगी गुणगान।
जी, हार्दिक आभार
जवाब देंहटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंसिंहासन वहीं है बैठने वाले बदलते जा रहे हैं
बहुत सुन्दर सृजन।
सुंदर पंक्तियाँ। गणेश चतुर्थी की शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आप सभी मित्रो का।
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
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