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शनिवार, 22 अगस्त 2020

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डॉ . कविता भट्ट 'शैलपुत्री'
सिंहासन धीरे से बोला

       हँस कर राजा के कान।
तुझसे पहले भी अनेक
       हुए मुझ पर विराजमान।
उनकी भी थी शब्दसभा
       उनके भी थे मंगलगान।
चारण उनके भी यों ही
       करते रहते थे यशोगान।
समय कटा, प्रसाद बँटा
       हुआ पुष्पित सम्मान।
थे अवाक सुन ढोल
       काल चक्र से अनजान।
पुष्प बरखा अकूत हुई
      जब गूँजा विजय-विहान।
आज मरघट हो गए
      उनके घर भी सुनसान।
क्यों मद में इठलाता
      क्यों इतना अभिमान?
कुछ तो कर लोकार्पित
      पीढ़ियाँ करेंगी गुणगान। 

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