नदी तट पर(काव्य संग्रह- ‘हिमाद्रि आंचल’ से)
हृदय की मेरी निश्चल भावना में,
तुम शाश्वत सत्य कल्पना
मीत हो।
कभी उच्छृंखल बन झकझोरती,
कभी गुनगुनाती आक्रोश
गीत हो।
नित समयबद्ध गामिनी
बनकर,
तुम निरुत्तर समय की सारथी हो।
कभी -कभी जीवन
बाँध चलती,
कभी असहाय की मृत्यु पारथी हो।
आक्रोश में रंग बदलती
हो लेकिन,
सत्य समझाने तुम हुंकार भरती।
जुड़े हैं मेरे संस्कार तुम्हारे नीर से।
सजीव निर्जीव मन प्रीत उमड़ती।
निरंतर तुम्हारी यात्रा देख मन में,
ईर्ष्या भाव ज्वार बन उमड़ पड़ती।
निष्ठुर बेपरवाह बन गई ये जिंदगी,
देह कर्मभाव की क्यों नहीं जगती।
जब कभी जो पथ नहीं भाता
तुम्हें,
बदलने में क्षणिक पल नहीं
लगता।
अकृत्य राह चलते विवेक मानव,
एहसास पर भी राह नहीं बदलता।
अचेत दीर्घा से मुझमें ओज भरती।
शांत निर्मल मन में स्वाभिमान को,
दूरदर्शिता की नीति आगाज़
करती।
-0-
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 30 अगस्त 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआदरणीया जी सादर आभार एवं अभिनन्दन।जी बिल्कुल।
हटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंजी धन्यवाद एवं स्नेहिल आभार।
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंआत्मीयता से सादर आभार।
हटाएंहार्दिक आभार सभी का
जवाब देंहटाएंजी अभिनंदन एवं आभार नीलाम्बरा पत्रिका का।
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंसुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंआदरणीय जोशी जी सादर अभिनन्दन।
हटाएं