मंगलवार, 25 अगस्त 2020

162-विदाई

 प्रो. संजय अवस्थी

 

न सिंदूर, न सप्तपदी की कसमों का बंधन,

फिर भी बाँध लिया जन्म -जन्मान्तर का बंधन।

एक -एक पल तुम्हारी बेरुखी के साथ गिनना,

फिर भी पलकों पर आँसुओं को रख,आशाओं को सँजोना ।

जीवन पथ शूलों से भरा, राह कठिन, डूबता विश्वास,

फिर भी तुम्हारी राह के शूलों को बीन, लहूलुहान होने का साहस।

दुःख साथी, सुख दूर खड़ा, खण्ड- खण्ड होता विश्वास,

फिर भी सामने पा, आँसुओं को रोक, आँखें न मिलाने का साहस।

तुम्हारा कभी मिलना, कुछ देर आँखों में बसना, साथ रहना,

फिर लौट जाना, स्वप्न- मिलन को भी जीवन समझना।

तुम सुरभित,सुवासित, मस्त,दिग्- दिगन्तर तक उड़ने का विश्वास,

मैं धरा पर भी अस्थिर, पंख नहीं, तुम्हें पास रखने का विश्वास।

रातें काली नागिन- सी रोज डसने होती हैं आतुर,

फिर भी तुम्हें देखने हेतु, सुबह का इंतज़ार।

जग निराला, रोज नए रंग दिखाता, मैं विरह बदरंग,

फिर भी कच्चे बंधन को भूल, विश्वास केवल, भरता बदरंग में रंग।

कब बचपन बीता, कब आई जवानी, एहसासों से अनजान,

अज्ञात सम्बन्ध, करता दुःसाहस, चला करने अमर  यौवन।

स्वप्न- संसार, दलदल पर बने काँच- से आशाओं के महल,

पत्थर किस दिशा से आएँगे, क्यों सोचना, बिखरेंगे महल।

मुझे जिद है, बाहों में समेटने की, तुम्हें जल्दी है दूर जाने की,

तुम उन्मुक्त, मैं भाव- विह्वल, लगता है जिद हारेगी, टूटती साँसों की।

मैंने प्यार की हर रस्म निभाई, सिंदूर से गहरे विश्वास की तरह,

डाल देना वो वेणी, जो कभी बाँधी थी- अर्थी पर, प्रेम मुक्ति की तरह।

-0-

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें