डॉ.कविता भट्ट
वह आहें
भर, अब
भी ढो रही है,
जब अटूट
श्वासों की उष्णता,
जीवन की
परिभाषा खो रही है।
अब भी
पल्लू सिर पर रखे हुए,
आडम्बर
के संस्कारों में जीवन डुबो रही है।
क्या लौहनिर्मित है यह सिर या कमर?
जिस पर
पहाड़ी नारी पशुवत् बोझे ढो रही है।
जहाँ
मानवाधिकार तक नहीं प्राप्य
वहाँ
महिला-अधिकारों की बात हो रही है।
इस
लोकतन्त्र पंचायतराज में वह अब भी,
वास्तविक
प्रधान-हस्ताक्षर की बाट जोह रही है।
नशे में
झूम रहा है पुरुषत्व किन्तु,
ठेकों को
बन्द करने के सपने संजो रही है।
कहीं तो
सवेरा होगा इस आस में,
रात का
अँधियारा अश्रुओं से धो रही है।
ममतामयी
फिर भी परम्परा ढो रही है।
पत्थर-मिट्टी
के छप्पर जैसे घर में,
धुँएँ
में घुटी, खेतों में खपकर मिट्टी हो रही है।
शहरी
संवर्ग का प्रश्न नहीं,
पीड़ा
ग्रामीण अंचलों को हो रही है
वातानुकूलित
कक्षों की वार्ताएँ-निरर्थक, निष्फल,
यहाँ
पहाड़ी-ग्रामीण महिलाओं की चर्चा हो रही है।
एक ओर
महिलाओं की सफलता है बुलंदियों पर,
दूसरी ओर
महिला स्वतन्त्रता बैसाखियाँ सँजो रही है।
-0- [चित्र गूगल से साभार]
संघर्ष को स्वर देने वाली प्रेरक कविता 1 जीवन -जगत से जुड़ी रचना का अपना महत्त्व होता है। हार्दिक बधाई
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार महोदय।
जवाब देंहटाएं