ज्योति नामदेव
बंद कर बहाना आँखों से पानी
क्या कहूँ, कैसे कहूँ, नारी तेरा बखान
आज तक तू खुद ही है, अपने से अनजान
कस्तूरी मृग जैसे ढूँढता है, अपनी सुगंध
पगला घूमे, देख-फिरे वन-मन में लिये द्वंद्व।
ऐसे ही तू भी अपनी शक्तियों से नहीं परिचित,
छली-ठगी जाती है, पग-पग पर इसलिए निश्चित,
जरा गौर से देख स्वयं को नहीं किसी से कम,
चाहे हो उजला सवेरा या हो घनघोर तम l
नदियों के जल को जहाँ रोज है पूजा जाता,
वहाँ हर रोज गंगा सी काया को निर्मम बेचा जाता l
तू मानवी है- अखंडित, खंड -खंड होकर भी संगठित l
कोई न आएगा बचाने, तू स्वयं सशक्त अकल्पित
कैसे मूर्ख प्राणी है इस समाज में बसते,
गंगाघाट पर रहकर भी गंगा स्नान से तरसते l
तू अगम, सुगम अपने को पहचान,
तू होगी ,तभी तो होंगे, इस समाज में प्राण l
कुदरत की सबसे सुन्दर कृति है तू,
सद्गुणो की पुंज और असीम शक्ति है तू
हा !हा ! हा !मत कर विलाप; शोषकों का कर विनाश
है तू अपराजिता तू गुंजायमान हास
बनना छोड़ अब तू रसिकों की रसिका।
स्वावलम्बी हो और चला अपनी आजीविका l
शोधक है तू , भोजक नहीं, कर सतीत्व का नृत्य,
क्यों सोचे इतना, तुझ संग अपने ही करते कुकृत्य l
मत बन दुःख का बादल जो आज उमड़े कल मिट चले,
काल बन अपराधियों की, जो तेरी अस्मिता से खेलेंl
तू रीत नहीं ,जो निभाई जाए,तू बाँसुरी नहीं ,जो बजाई जाए।
तू वस्तु नहीं ,जो भोगी जाए,तू नशा नहीं जो पिया जाए।
तू प्रकृति, गंगाजल, दूध, ममता, शक्तियों का भंडार है दयानिधे!
तू अनंत, अगम्य, रागिनी- सी बजती,
क्या कहूँ, कैसे कहूँ, नारी तेरा बखान
आज तक तू खुद ही है, अपने से अनजान
कस्तूरी मृग जैसे ढूँढता है, अपनी सुगंध
पगला घूमे, देख-फिरे वन-मन में लिये द्वंद्व।
ऐसे ही तू भी अपनी शक्तियों से नहीं परिचित,
छली-ठगी जाती है, पग-पग पर इसलिए निश्चित,
जरा गौर से देख स्वयं को नहीं किसी से कम,
चाहे हो उजला सवेरा या हो घनघोर तम l
नदियों के जल को जहाँ रोज है पूजा जाता,
वहाँ हर रोज गंगा सी काया को निर्मम बेचा जाता l
तू मानवी है- अखंडित, खंड -खंड होकर भी संगठित l
कोई न आएगा बचाने, तू स्वयं सशक्त अकल्पित
कैसे मूर्ख प्राणी है इस समाज में बसते,
गंगाघाट पर रहकर भी गंगा स्नान से तरसते l
तू अगम, सुगम अपने को पहचान,
तू होगी ,तभी तो होंगे, इस समाज में प्राण l
कुदरत की सबसे सुन्दर कृति है तू,
सद्गुणो की पुंज और असीम शक्ति है तू
हा !हा ! हा !मत कर विलाप; शोषकों का कर विनाश
है तू अपराजिता तू गुंजायमान हास
बनना छोड़ अब तू रसिकों की रसिका।
स्वावलम्बी हो और चला अपनी आजीविका l
शोधक है तू , भोजक नहीं, कर सतीत्व का नृत्य,
क्यों सोचे इतना, तुझ संग अपने ही करते कुकृत्य l
मत बन दुःख का बादल जो आज उमड़े कल मिट चले,
काल बन अपराधियों की, जो तेरी अस्मिता से खेलेंl
तू रीत नहीं ,जो निभाई जाए,तू बाँसुरी नहीं ,जो बजाई जाए।
तू वस्तु नहीं ,जो भोगी जाए,तू नशा नहीं जो पिया जाए।
तू प्रकृति, गंगाजल, दूध, ममता, शक्तियों का भंडार है दयानिधे!
तू अनंत, अगम्य, रागिनी- सी बजती,
उपमान भी फीके पड़े, जब तू गरजती l
अब तू रच एक कठोर कहानी,
अब तू रच एक कठोर कहानी,
बंद कर बहाना आँखों से पानी ।
क्या कहूँ, कैसे कहूँ, नारी तेरा बखान,
क्या कहूँ, कैसे कहूँ, नारी तेरा बखान,
आज तक तू खुद ही है अपने से अनजान।
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Great Kavita. Superb
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार
हटाएंबहत सुंदर कविता
जवाब देंहटाएंधन्यवाद भाई
हटाएंअदभुत रचना है, ज्योति जी.
जवाब देंहटाएंहार्दिक अभिनन्दन व आभार
हटाएंहार्दिक आभार
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