डॉ. कविता भट्ट
किसको जलाया जाए
जब सरस्वती दासी बन; लक्ष्मी का वंदन करती हो
रावण के पदचिह्नों का नित अभिनन्दन करती हो
सिन्धु-अराजक, भय-प्रीति दोनों ही निरर्थक हो जाएँ
और व्यवस्था सीता- सी प्रतिपल लाचार सिहरती हो
अब बोलो राम! कैसे आशा का सेतु बनाया जाए
अब बोलो विजयादशमी पर किसको जलाया जाए
जब आँखें षड्यंत्र बुनें; किन्तु अधर मुस्काते हों
भीतर विष-घट, किन्तु शब्द प्रेम-बूँद छलकाते हों
अनाचार-अनुशंसा में नित पुष्पहार गुणगान करें
हृदय ईर्ष्या से भरे हुए, कंठ मुक्त प्रशंसा गाते हों
चित्र ; गूगल से साभार |
क्या मात्र, रावण-दहन का झुनझुना बजाया जाए
अब बोलो विजयादशमी पर किसको जलाया जाए
विराट बाहर का रावण, भीतर का उससे भी भारी
असंख्य शीश हैं, पग-पग पर, बने हुए नित संहारी
सबके दुर्गुण बाँच रहे हम, स्वयं को नहीं खंगाला
प्रतिदिन मन का वही प्रलाप, बुद्धि बनी भिखारी
कोई रावण नाभि तो खोजो कोई तीर चलाया जाए
अब बोलो विजयादशमी पर किसको जलाया जाए
-0-
इस कविता का नीचे दिए गए लिंक 'डॉ. कविता भट्ट-काव्य -पाठ-24' पर वीडियो देख सकते हैं -
डॉ.कविता भट्ट काव्य-पाठ-24
डॉ.कविता भट्ट काव्य-पाठ-24
नैतिक अवनयन को विवेचित करती रचना। वाह।
जवाब देंहटाएं