डॉ. एम. एन. गैरोला
द्वार खोला घुप्प अँधेरा ।
और नीरव,
दूर धूमिल ज्योति ,
लेकिन
रास्ता कोई न सूझा।
पाँव ठोकर खा रहे थे,
हाथ साथी की ललक में
और निर्बल हो रहे थे।
मन बहुत घबरा गया था।
दूर से ही ज्योति का आलोक कर,
अब न मुमकिन हो सकेगा
यह सफ़र- ज्योति का आवेश मुझमें।
लौट आया, तेज कदमों
हड़बड़ाहट, बदहवासी ।
द्वार के इस पार,
मनमोहक वसंत,
चटख रोशनी, आकाश नीला
झरनों का कलरव, अल्हड़ बहती नदियाँ।
उषा का आगमन, चिड़ियों की चहचहाहट।
गोधूलि की बेला , आकाश की स्वर्णिम आभा।
वही परिचित मित्र, हँसते ठहाके लगाते,
खुशी में खुश और दु:ख में
दु:खी होते।
----- ------
अब रम गया हूँ मैं इसी संसार में,
खुशी में हँसने और दुःख
में रोने के लिए।
अब नहीं दिखती मुझे वह
ज्योति निर्मल।
खो चुका आवेश सारा---।
मस्त होकर झूमता हूँ
इस धरा पर,
खुशी में हँसना मुझे,
और रोना है दु:खों में।
यही है अब नियति मेरी,
दूर खोकर
ज्योति को।
-0-
वाह!एक सर्जन की सर्जक क्षमता का अद्भुत निदर्शन है यह कविता।सर्जन के व्यक्तित्व में मानसिक मजबूती के साथ ही गहरी संवेदनशीलता होती है,जो इस कविता में परिलक्षित हो रही है।
जवाब देंहटाएं