शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2023

425-अंतर्यात्रा

डॉ. एम. एन. गैरोला



 द्वार खोला घुप्प अँधेरा ।

और नीरव,

दूर धूमिल ज्योति ,

लेकिन

रास्ता कोई न सूझा।

पाँव ठोकर खा रहे थे,

हाथ साथी की ललक में

 और निर्बल हो रहे थे।

मन बहुत घबरा गया था।

 दूर से ही ज्योति  का आलोक कर,

 अब न मुमकिन हो सकेगा

यह  सफ़र- ज्योति का आवेश मुझमें।

 लौट आया, तेज कदमों

 हड़बड़ाहट, बदहवासी ।

द्वार के इस पार,

मनमोहक  वसंत,

चटख रोशनी, आकाश नीला

झरनों का कलरव, अल्हड़ बहती नदियाँ।

उषा का आगमन, चिड़ियों की चहचहाहट।

गोधूलि की बेला , आकाश की स्वर्णिम आभा।

वही परिचित मित्र, हँसते ठहाके  लगाते,

खुशी में खुश और दु:ख में दु:खी होते।

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अब रम गया हूँ  मैं इसी संसार में,

खुशी में हँसने और दुःख में रोने के लिए।

 अब नहीं दिखती मुझे वह

       ज्योति निर्मल।

  खो चुका आवेश सारा---।

मस्त होकर  झूमता  हूँ इस धरा पर,

खुशी में हँसना मुझे,

और रोना है दु:खों में।

 यही है अब नियति मेरी,

 दूर  खोकर ज्योति को।

-0-श्रीनगर (गढ़वाल),उत्तराखण्ड


1 टिप्पणी:

  1. वाह!एक सर्जन की सर्जक क्षमता का अद्भुत निदर्शन है यह कविता।सर्जन के व्यक्तित्व में मानसिक मजबूती के साथ ही गहरी संवेदनशीलता होती है,जो इस कविता में परिलक्षित हो रही है।

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