रविवार, 26 सितंबर 2021

279-आभास

 डॉ.कविता भट्ट 'शैलपुत्री'

(बेटी दिवस पर विशेष)

 


सिसक कली आँखों में झाँके
,

            खड़ी अपनी सखी के पास।

दुस्साहस कलियों का खिलना,

           काँटों का नित गूँजे अट्टहास।

बहारों का वो शूल सहलाना,

           आज पंखुड़ियाँ गुमसुम उदास।

भौंरों के विषैले होंठ चूमते यों,

              डालियाँ हुई अब बदहवास।

रातों को ओस रुला जाती,

               सवेरे सूरज करता उपहास।

ये जो खिलने को उत्सुक थीं,

              खिलतीं तो होता जग सुवास।

हवा ने भी बहुत हर घोला,

              माली को भी है यह आभास।

काँटे कितना भी चीरें आँचल

               रस-रंग-सुंगन्ध का होगा वास।

इक दिन कलियाँ खिलकर झूमेंगी

               है 'शैलसुता' को दृढ़ विश्वास।

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुन्दर व भावपूर्ण रचना।

    सुन्दर सृजन की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ आदरणीया दीदी जी।

    सादर 🙏🏻

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  2. भावपूर्ण सुंदर रचना
    हार्दिक बधाइयाँ

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