डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'
गुरु होना और यान्त्रिक रूप से शिक्षक होना दोनों पर्याप्त रूप से भिन्न हैं। इन दोनों शब्दों और पदों का प्रयोजन और अभिप्राय नितांत भिन्न है।
गुरु अर्थात अंधकार या अज्ञान से प्रकाश या ज्ञान की ओर ले जाने वाला। गुरु ज्ञान देता है, शिक्षक शिक्षा देता है। भारतीय परिदृश्य में ज्ञान नॉलेज नहीं है; यह पूरी तरह से शिक्षा भी नहीं कहा जा सकता। कैसे? आइए थोड़ा विस्तार से समझें।
गुरु वही व्यक्ति हो सकता है; जो निर्विकार, निर्लोभ, निश्छल हो। अहंकार जिसे छू भी न सका हो। जो सुपात्र शिष्य को 64 कलाओं में निपुण कर सके। साथ ही ब्रह्मविद्या या परा विद्या और अपराविद्या या लौकिक विद्या में पारंगत कर सके। आत्मज्ञानी ही सही अर्थ में गुरु हो सकता है।
इस संदर्भ में में श्रीकृष्ण के गुरु महर्षि सांदीपनि का व्यक्तित्व और कृतित्व विशेष है। वे श्रीकृष्ण के साथ ही बलराम और सुदामा के भी गुरु थे। उन्होंने एक ओर श्रीकृष्ण को 64 कलाओं में निपुण किया तो दूसरी ओर सुदामा जैसे अकिंचन को भी समभाव से ज्ञान का प्रकाश प्रदान किया। गुरु वे होते हैं जो सुपात्र शिष्य को परा और अपरा विद्या प्रदान करें।
भारतीय दर्शन, सभ्यता और संस्कृति के सन्दर्भ में, परा विद्या से तात्पर्य स्वयं को जानने (आत्मज्ञान) या परम सत्य को जानने से है। उपनिषदों में इसे उच्चतम स्थान दिया गया है। वेदान्त कहता है कि जो आत्मज्ञान पा लेते हैं उन्हें मुक्ति या अपवर्ग या कैवल्य की प्राप्ति होती है, वे दुःखों से मुक्त हो जाते हैं और ब्रह्म पद को प्राप्त होते हैं।
मुण्डकोपनिषद में वर्णन प्राप्त है कि शौनक ने जब अंगिरस से पूछा, – "कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति"
(महोदय, वह क्या है जिसके विज्ञात होने पर सब कुछ विज्ञात हो जाता है?)
अंगिरस ने उत्तर दिया-
द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च ।
तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति । अथ परा यया तदक्षरमधिग्म्यते ॥ - (मुण्डकोपनिषद्)
( दो प्रकार की विद्याएँ होतीं हैं जिन्हें ब्रह्मविदों
ने बताया है,
1- परा विद्या 2- अपरा विद्या।
परा विद्या- जिसके द्वारा वह ब्रह्म या 'अक्षर' (नष्ट न होने वाला) जाना जाता है।) इसका सम्बन्ध आत्म-साक्षात्कार, कैवल्य, मुक्ति, त्रिदुःख निवृत्ति से है।
अपरा विद्या- इसके अंतर्गत ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्तं, छन्द और ज्योतिष आते हैं ।
अपरा विद्या को परा विद्या के लिए मार्ग सुलभ बनाने का साधन कहा जा सकता है। इसका सम्बन्ध लौकिक जीवन को कुशलतापूर्वक व्यतीत करते हुए अंत में अपराविद्या तक मार्ग प्रशस्त करने से है। लेकिन यदि साधक या मनुष्य इसी में उलझ जाए तो वह परा विद्या या अक्षर तक नहीं पहुँच सकेगा।
तथ्यपरक यह है कि शिक्षा देना अपरा विद्या का एक छोटा सा भाग है और शिक्षक उसे ही सम्पन्न करते हैं। इसलिए गुरु होना बहुत व्यापक अर्थ को लिए हुए है। शिक्षक और गुरु दोनों अलग-अलग प्रयोजन और अभिप्राय के द्योतक हैं ।
शिक्षक शिक्षा देते हैं और व्यावहारिक ज्ञान अर्थात जितना भी आधुनिक शिक्षा के विभाग यथा- व्यापार, प्रबंधन, तकनीकि, चिकित्सा, गणित तथा विज्ञान इत्यादि हैं; ये सभी शिक्षा के अंतर्गत ही हैं। अब सोचिए शिक्षा आधुनिक जीवन में कितना व्यापक होने पर भी भारतीय वांग्मय के अनुसार कितना छोटा सा स्थान रखता है मानव जीवन में।
सार यह है कि शिक्षा का उद्देश्य आजकल अर्थोपार्जन के अतिरिक्त कुछ नहीं रह गया। व्यावसायिक अथवा अव्यावसायिक शिक्षा द्वारा व्यक्ति को मात्र अर्थोपार्जन या आजीविका या अच्छे सुख-सुविधायुक्त जीवन जीने के लिए तैयार किया जाता है।
इसके लिए अच्छे वेतन पर शिक्षकों की व्यवस्था होती है।
यह तो सीधी सी बात है कि वे ब्रह्मविद्या या परा विद्या तो नहीं दे
सकते, अपरा
विद्या को भी पूरा नहीं दे सकते और शिक्षा भी अपने शिष्यों को समान रूप से जीवन की
64 कलाओं में निपुण करते हुए भी प्रदान नहीं सकते; क्योंकि जीवन पद्धति परिवर्तित हो चुकी है। इसलिए यह सम्भव नहीं। एक कला
में भी शिक्षार्थी को पूरी तरह निपुण कर दिया जाए तो तब भी शिक्षक धर्म पूर्ण होगा;
क्योंकि शिक्षक को वेतन उतने के लिए ही दिया जा रहा है।
यहाँ यह भी समझना होगा कि यद्यपि शिक्षक वेतनभोगी हैं, तथापि
प्रदत्त वेतन में यदि शिक्षक अपना कार्य निष्ठा से करें तो निश्चित रूप से शिक्षक
भी गुरु के समान आदरणीय ही हैं; किन्तु इसके लिए प्रत्येक
शिक्षक को आत्म-विश्लेषण की आवश्यकता है कि क्या वे अपना शिक्षण कार्य यथोचित ढंग
से कर भी रहे है? अथवा केवल खानापूर्ति कर रहे हैं। निश्चित
रूप से शिक्षक यदि यान्त्रिकता और आत्म-प्रवंचना से स्वयं को ऊपर उठाकर व्यापक
दृष्टिकोण अपनायें तो वे श्रेष्ठ होंगे। अन्यथा वे मात्र एक यांत्रिक व्यवस्था का
वेतनभोगी व्यक्ति से अधिक कुछ नहीं कहलाएँगे।
शिक्षकों को गुरु के समान आदरणीय और पूजनीय होने के लिए महर्षि सांदीपनि जैसा समभाव अपनाना होगा। जो श्रीकृष्ण जैसे तेजस्वी और आर्थिक सम्पन्नता युक्त बालक और सुदामा जैसे अकिंचन के जीवनपथ को एक ही दृष्टिसम्पन्नता के साथ सुगम बना सकें। शिक्षकों के कर्त्तव्यबोध के अतिरिक्त इस हेतु आमूलचूल व्यवस्था-परिवर्तन की भी आवश्यकता है। यह शिक्षा में ही परिवर्तन लाएगा।
सार यह है कि यह भी शिक्षक को गुरु नहीं बना सकता, किसी शिष्य विशेष की शिक्षक विशेष के प्रति आस्था एक अलग विषय है। हो सकता है कोई शिष्य किसी आदर्श शिक्षक को अपना गुरु मानता हो। यह एक व्यक्तिगत निष्ठा है।
सार यह है कि यथोचित गुरु-शिष्य परंपरा चाहिए, तो पुनः गुरुकुल पद्धति की ओर जाने की आवश्यकता है। गुरु पूर्णिमा गुरु को समर्पित है, शिक्षक को समर्पित शिक्षक दिवस है।
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लेख बहुत कसा हुआ , परिमार्जित एवं तार्किक है। शास्त्रीय उद्धरण से इसकी पुष्टि की आपने। इस तरह के निबन्ध अतिरिक्त अध्ययन की माँग करते हैं। वह अध्यवसाय आपने किया है इस लेख में। कोटि -कोटि बधाई शैलपुत्री जी। आपके इस रचनात्नक लेखन पर हम सभी को गर्व हैं। इस विधा में अध्ययनपरक लेखन घट रहा है। आप इसे आगे बढ़ाइए। अशेष शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक, उत्कृष्ट आलेख के लिए हार्दिक बधाई कविता जी।
जवाब देंहटाएंबहुत ही ज्ञानवर्धक ... विचारणीय एवम सशक्त आलेख ... के लिए बहुत-बहुत बधाई सहित अनंत शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंबेहद शोधपरक लेख, सभी शिक्षकों को आत्मचिंतन की आवश्यकता है। व्यवस्था के अनुरूप ही अब शिक्षकीय दायित्व का निर्वहन मात्र हो रहा है।
जवाब देंहटाएंआपको भी गुरु पूर्णिमा की बधाई।
अच्छा लेख।
विचारणीय चिन्तनीय प्रेरक लेख
जवाब देंहटाएंआदरणीया गुरु पूर्णिमा की बहुत बहुत बधाई
बहुत ही उत्कृष्ट, सशक्त, ज्ञानवर्धक लेख जिसका कि वर्तमान शैक्षिक प्रणाली में अध्ययन किया जाना परमावश्यक है।
जवाब देंहटाएंहार्दिक बधाई एवं अनंत शुभकामनाएँ आदरणीया।
गुरु पूर्णिमा की भी हार्दिक बधाई।
सादर
रश्मि विभा त्रिपाठी
शोध आधारित व ज्ञानवर्धक लेख। आपको भी गुरु पूर्णिमा की शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंसारगर्भित, सुंदर लेख। बधाई।
जवाब देंहटाएंज्ञान चक्षु खोलने वाला आलेख। वैदिक और भारतीय दर्शन की पूर्ण समझ के उपरांत ही इस तरह के तार्किक और सारगर्भित आलेख लिखे जा सकते हैं। नमन ।
जवाब देंहटाएंगुरु पूर्णिमा की बधाई व अनन्त शुभकामनाएं।
बहुत ही बढ़िया, ज्ञानवर्धक लेख
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट सृजन के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ
सुंदर
जवाब देंहटाएंउम्दा सारपूर्ण लेख...हार्दिक शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंसारगर्भित, सुंदर, विचारणीय लेख!धन्यवाद आदरणीया कविता जी!
जवाब देंहटाएंबहुत ज्ञानवर्धक लेख कविता जी ..बहुत बहुत बधाई...👏👏👏
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी जानकारी कविता जी, गुरु और शिक्षक के अंतर को आपने अपने गहन अध्ययन से बहुत सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है l आपको हार्दिक बधाई l
जवाब देंहटाएंअत्यंत ज्ञानवर्धक आलेख.. सर्वोत्तम सृजन... नतमस्तक हूँ कविता जी 🌹🙏
हटाएंअत्यंत विचारणीय, अनुकरणीय एवं सारगर्भित लेख🙏👌
जवाब देंहटाएंअत्यंत सुंदर-ज्ञानवर्धक आलेख।
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