डॉ
कविता भट्ट ‘शैलपुत्री’
तुम्हारी प्रीत चुनावी वायदे सी,
मजदूरन जिंदगी अब थकने लगी।
मेरी निष्ठा मतदाता के कायदे सी,
एक ही घोषणा में फुदकने लगी।
तुम मंच हो स्वप्न-शृंखला के,
मैं लोकतंत्र की ताली सी बजने लगी।
स्वप्न मेरे- उन्माद; मधुशाला के,
मत-वालों की महफ़िल सजने लगी।
फूलमालाओं में मैं बदलने लगी l
भीड़ में बैठा मजदूर- है मेरा प्यार,
धीरज की घड़ी अब निकलने लगी I
गणतंत्र दिवस- मुस्कराहट तुम्हारी,
राजपथ पर रोशनी सी बहने लगीl
फुटपाथ पर सिसकती हँसी हमारी,
मजदूर दिवस सी सहमने लगी I
बहुत सुंदर श्रमिक की मन स्थिति और उसके साथ हो रहे वादों के छलावे पर चोट करती रचना
जवाब देंहटाएंकविता जी इतनी सुंदर उपमाओं की कल्पना को इतने रसिक प्रकार से कविता के शब्दों में पिरोना एक बहुत ही कठिन कर्म है | हर बार आपकी कल्पना देखकर मन हर्षित हो जाता है | बार -बार पढकर भी मन नहीं भरता है| आप अतुलनीय हो | शुभकामनाओं के साथ -श्याम हिन्दी चेतना
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर रचना कविता जी ह्रदय को छू देने वाली मार्मिक कृति है।
जवाब देंहटाएंवर्तमान
जवाब देंहटाएंस्थिति में हदय को छु जाने वाली रचना
हमेशा की तरह उम्दा
जवाब देंहटाएंGreat great & always great
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंअच्छे प्रयोग हैं।
सुन्दर रचनात्मक अभिव्यक्ति । सु. व.।
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचनात्मक अभिव्यक्ति । सु व ।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआप सभी स्नेहीजन को हार्दिक धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंSuch stunning poem 😇
जवाब देंहटाएंआप सभी आत्मीयजन को हार्दिक धन्यवाद।
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