डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'
मेरे भीतर उतर आई हो
कहीं जैसे;
करने को आतुर हों
अनन्त यात्रा
मेरी आत्मा तक
उसकी आँखें
यों देख रही हैं
एकटक मुझे
भीतर से भीतर तक
अभी तो स्पर्श भी न किया
फिर ये कैसा जादू है!
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