तिरता फूल / अनीता सैनी 'दीप्ति'
घर की दीवारों से टकराते विचार
वे पहचानने से इंकार करती हैं
आँगन भी बुझा-बुझा-सा रहता है!
मैंने कब उससे
उसकी कमाई
का हिसाब माँगा है?
अंतस् के पानी ने
भावों की डंडी से रंगों का घोल बनाया
वे वृत्तियों के साथ तिरकर
मन की सतह पर आ बैठे
शिकायत साझा नहीं कर रहा हूँ
अपनों से मिलने की तड़प सिसकियाँ भर रही थीं
कि मैं
उतावलेपन में जवानी सरहद पर भूल आया।
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार प्रिय कविता जी नीलांबरा में स्थान देने हेतु।
जवाब देंहटाएंसादर स्नेह
बहुत सुंदर रचना...बधाई आपको।
जवाब देंहटाएं