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बुधवार, 18 अक्तूबर 2023

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तिरता फूल / अनीता सैनी 'दीप्ति'



घर की दीवारों से टकराते विचार 

वे पहचानने से इंकार करती हैं

आँगन भी बुझा-बुझा-सा रहता है!

मैंने कब उससे

उसकी कमाई का हिसाब माँगा है?

अंतस् के पानी ने 

भावों की डंडी से रंगों का घोल बनाया 

वे वृत्तियों के साथ तिरकर

मन की सतह पर आ बैठे  

शिकायत साझा नहीं कर रहा हूँ 

अपनों से मिलने की तड़प सिसकियाँ भर रही थीं

 कि मैं

उतावलेपन में जवानी रहद पर भूल आया।

3 टिप्‍पणियां:

  1. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  2. हार्दिक आभार प्रिय कविता जी नीलांबरा में स्थान देने हेतु।
    सादर स्नेह

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  3. बहुत सुंदर रचना...बधाई आपको।

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