1-डॉ.सुरंगमा यादव
पीड़ा का संसार
विचलित कर पाएगा मुझको
क्या यह पीड़ा का संसार
पीड़ाएँ बन अंतर्दृष्टि
जीवन रहीं निखार
सुमन देखकर लोभी बनना
मुझे नहीं स्वीकार
मुस्काते अधरों से ज्यादा
सजल नयन से प्यार
गहरा है करुणा का सागर
कितने हुए न पार
कुहू-कुहू में रमकर भूलूँ
कैसे करुण पुकार
दुख है अपना सच्चा साथी
सुख तो मिला उधार
तुम्हें रुठना था ही मुझसे
भाती क्यों मनुहार
प्रेम तुम्हारा कैसा था ये
जैसे हो उपकार।
-0-
2-सुरभि
डागर
माँ
शब्दों में
भी कम हैं
वह पुस्तक है माँ
जीवन देकर दुनिया में
लाती है माँ
तप रहे हो पाँव
धूप में, फिर भी
मुस्कुराती है माँ
जीवन के अँधियारे में
संग रहती है माँ
तपती धूप में आँचल
बन जाती है माँ
घर के कोने-कोने में
खुशबू बन जाती है माँ
फटकारती है
तो भी
ममता लुटाती है माँ
तेज़ झोंके में साया
बन जाती है माँ
सही राह की ओर
फेर दे रुख़ख जो
वह शक्ति है माँ
नौ दिन बन दुर्गा
भरती है झोली
वह भक्ति है माँ
-0-
3-स्वाति बर्णवाल
1-जीवन
और साहित्य
जीवन में साहित्य का होना
और साहित्य में जीवन का होना
चाहे मुश्किल हो, लेकिन बहुत
जरूरी है।
बालमन का
अरमानों से सजना
चाहे मुश्किल हो, लेकिन बहुत
जरूरी है।
कठिन समय में,
उम्मीदों से धैर्य बँधाना
चाहें मुश्किल हो, लेकिन बहुत
जरूरी है।
मन-अपंग, टूटी-सोच को
भावों की पट्टी बाँधना
चाहें मुश्किल हो, लेकिन बहुत
जरूरी है।
जीवन में कमजोरी होना,
अनदेखा, अनहोनी हो
तुलसी के जैसे, मन पर काबू पाना
चाहें मुश्किल हो, लेकिन बहुत
जरूरी है।
रंग मिलें न मिलें
मन से मन का मिलना
चाहें मुश्किल हो, लेकिन बहुत
जरूरी है।
जीवन में साहित्य का होना
और साहित्य में जीवन का होना
चाहे मुश्किल हो, लेकिन बहुत
जरूरी है।
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2-खुद से लड़ती लड़कियाँ
अन्दर-अन्दर तम रहता है।
खुलती हैं जब चौंधियाई ऑंखें
सब्र की कलई भी खुल जाती है।
समय के पृष्ठ पर
मटमैली भी अजनबी के
फ़ुटप्रिन्ट्स पर
अपनी पहचान बनाए चलती है!
बार- बार किस्मत की चाबी भी
सतपुड़ा के घने जंगलों में खो जाती है l
एक मेरा मन जो धरती की
हरियाली ऊपर सफे़दी ओढ़े सो जाता है!
गेरुआ में रँगी एक जोगिन
भटकती रहती है
वृंदावन की गलियों में
माँगती है हक अपना और
बढ़ता जाता है कर्ज मन्नतों का!
जब भी बारिश होती है
वहम का सिक्का उछलता है!
खुद से लड़ती लड़कियाँ
एक दिन दुनिया जीत लेती हैं।
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कर रही हूँ सफर
सफर तेरे सपनों का
जानती हूँ, संघर्ष की मेरे
कोई कीमत नहीं किसी के लिए।
फिर भी पता नहीं क्यों,
बही जा रही हूँ समय के साथ।
कुछ अपने लिए, कुछ अपनों के लिए।
एक क्षण लगता है-
कहने में कि तू किसी काम की नहीं है।
कोई मेरे दिल से पूछे,
कैसा लगता है इसे।
जिनके लिए क्षण-क्षण पिसते हैं,
उन्हें वह चक्की ही दिखाई नहीं देती
या... देखना ही नहीं चाहते।
जानती हूँ प्यार है, लगाव है,
सँभाल भी है; लेकिन मान नहीं
मिलता।
तुमसे प्यार है परंतु माफ़ करना,
कोशिश बहुत की;
पर अभिमान न कर सकी तुम पर।
तुम जब, जैसे चाहो और जो चाहो,
वह सब सही।
इसलिए सब कुछ छोड़ तेरे लिए,
तेरे सपनों के लिए जीना सीखा,
लेकिन फिर भी तेरा साथ न मिला,
दुत्कार ही मिली हर मोड़ पर, हर कदम पर।
कितना भी चाहूँ तेरे संग चलने की,
तुम आगे निकल ही जाते हो।
और एहसास करवा ही जाते हो
कि मैं तेरे बराबर नहीं, पीछे ही रहूँगी।
ख़ुश हूँ तेरे पीछे चलकर भी,
पर हाथ तो थाम ही सकते हो।
जैसे सात फेरे लेते हुए मुझे साथ रखा था,
क्या पूरी उम्र नहीं बीत सकती ऐसे।
समझ नहीं आता कि क्या करूँ!
थक गई हूँ।
नहीं मन करता अब और लड़ने का,
इस भाग्य से, इस जीवन से।
कहीं से हौसला भी तो नहीं मिलता,
अब तो शरीर भी साथ नहीं देता।
फिर भी कर रही हूँ सफर,
ज़िन्दगी का भी, तेरे सपनों का
भी।
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सभी कविताएँ सहज प्रवाह में चलती हुई अपना-अपना प्रभाव छोड़ने में समर्थ हैं,स्वाति वर्णवाल की 'जीवन और साहित्य'गम्भीर अर्थव्यजंक है।सभी को बधाई।
जवाब देंहटाएंसुंदर भावपूर्ण रचनाएँ...आप सभी रचनाकारों को बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंपीड़ा का संसार जीता, माँ की ममता की गहनता और साहित्य व जीवन की पूरकता। सभी रचनाएँ अति सुन्दर।
जवाब देंहटाएंसभी रचनाएँ भावपूर्ण. सभी रचनाकारों को बधाई.
जवाब देंहटाएंमौलिक भावों से सजी सभी रचनाएँ प्रेम, करुणा तो कहीं हौंसले जगाती। बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंजैसे पाठक के मन के भावों को उकेर दिया गया है इन सभी रचनाओं में...सबको बहुत बधाई
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