1- मोती प्रसाद साहू
1-कोख
में भी नहीं
कच्चे मकान की
कोठरियों के कोने में
रखी हुई कुठलियाँ और
बीच की शेष जगह...
अरगनी पर रखे हुए कपड़ों के पीछे
खटिया-मचिया के नीचे
कभी चरनी व नाद में बैठ कर लेटकर
छुपन-छुपाई खेलते हुए
बाप तथा बड़े भाई की कड़क आवाज से घबराकर
बहुरुपियों के खूनी मंजर से डरकर
स्वयं को
छिपा लेती थीं लड़कियाँ
आसानी से
ग्रामीण परिवेश में ये जगहें
माँ के अतिरिक्त
उनके लिए कवच हुआ करती थीं
शुक्र है गूगल सर्च नहीं होता था
उस समय
अब
सीमेण्ट के मकान में
वे कुठलियाँ नहीं,
अरगनियाँ नहीं
खटिया-मचिया
चरनी व नाद भी नहीं
जरूरत भी नहीं...
लड़कियाँ अब कोख में भी
नहीं छिप सकतीं...
2-मैं
आदमियों से डरता हूँ
पहली बार रेंगते हुए गोजर को देखकर
घिघियाया
थोड़ा बड़ा हुआ तो
खुद पर शर्म आई कि
आदमी का बच्चा होकर डर गया
इंच दो इंच के गोजर से
शर्म कभी समय पर नहीं आती
देर से आना और खिल्ली उड़ाकर नौ-दो ग्यारह
अम्लीय इतना कि पत्थर भी गलते देर नहीं
कितना भी कर लो स्वयं को मजबूत
अतड़ियों के अंतहीन कन्दराओं में छिपा बैठा डर
निकल ही आता है बाहर
अन्हार-धुन्हार
खेत-खलिहान, निपटान आदि
आते-जाते।
जिस बंसवाड़ी से मैं गुजर रहा हूँ
इसी में रहती है सफेद वस्त्रों वाली चुड़ैल
जिसकी चर्चाएँ गाँव के हर पुरुष को है
वाया स्त्रीमुख
गाँव की अधिकतर स्त्रियाँ करती
हैं।
इसी कुईं में तो कूद कर मरी थी
जितुवा नट की घरवाली
शराबी पति की आदतों से परेशान होकर
अब हवा बनकर करती है चोप
सीवान वाले रास्ते पर जो आम का पेड़ है
वहीं पर बैठकर निपट रहा था
अशर्फी बिन्न का लड़का
कि कड़क उठी थी बिजुरी...
अब बिजुरिया बाबा का भूत।
खैर;
इनके लिए हनुमान चालीसा है
रामबाण ...
अब बंसवाड़ी नहीं
कुइयाँ भी नहीं
बिजुरिया बाबा का पेड़ खुद पहुँच
गया
लोगों के घर
खिड़की, दरवाजा व ईंधन बनकर
विधाता ने उन्हें मुक्त करते हुए कहा
आज से तुम आदमी हुए
मैं आदमियों से डरता हूँ...
-0-
3-आउट
ऑफ डेट
जो ताड़ न सकी शिकारी की नजरें
उड़ने को पंख तो थे तुम्हारे पास
और धरती पर टिके रहने के लिए दो पैर
उसने नहीं दिखलाई कोठियाँ
गाड़ियों की रंग-बिरंगी सीरीज़
ज्वेलरी, ब्राण्डेड कपड़े
और
न ही कोई बैंक-बैलेंस
उसने चारा नहीं फेंका अबकी
और न ही फैलाया कोई मायाजाल
छोड़ो भी;
ये सब पुरानी पद्धतियाँ हैं
चिड़ीमार बहेलियों की
'आउट आफ-डेट'
उसने श्लाघा को बनाया सीढ़ी
तुम तक पहुँचने को
नहीं, नहीं...
तुम तक नहीं;
बस तुम्हारे शरीर तक...
-0-motiprasadsahu@gmail. com
अल्मोड़ा
-0-
2-बाबू राम प्रधान
सुर के साथ साज देखिए
कहने का अंदाज देखिए
बातों की तह में जाकर
दिल में छुपे राज देखिए
प्यार में हुआ था पागल
कैसे गिरी है गाज देखिए
कल अहं था आसमाँ पर
पैरो में उसके ताज देखिए
रहा गुनाहगारों की सफ़ में
आज उसके नाज देखिए
नीचे निगाह ऊँची उड़ान
घात लगाता बाज देखिए
जिसके लिए मरे वही मारे
आती नहीं है लाज देखिए
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इतनी सारी कविताएँ पढकर मन भावुक हो गया | इतने अनमोल भाव भरें हैं इनमें | धन्यवाद शब्द बहुत ही कमजोर है इनके आदर के लिए | श्याम -हिन्दी चेतना
जवाब देंहटाएंसुंदर टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार आपका एक एक शब्द उत्साह को ऊर्जा देगा पुनः धन्यवाद
हटाएंलड़कियाँ अब कोख में भी / नहीं छिप सकतीं...
जवाब देंहटाएंनहीं, नहीं... / तुम तक नहीं; /बस तुम्हारे शरीर तक...
जिसके लिए मरे वही मारे / आती नहीं है लाज देखिए
एक से बढ़कर एक रचनाएँ ... सभी रचनाएँ बेहद सुन्दर
हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय मोती प्रसाद जी और बाबूराम जी
आपकी टिप्पणी का एकक एक एक शब्द मेरे उत्साह और ऊर्जा का प्रेरणा स्रोत का काम करेगा ह्रदय की गहराइयों से डॉ पूर्व शर्मा जी आपका आभार व्यक्त करता हूँ बहुत बहुत धन्यवाद
हटाएंसभी रचनाएँ बहुत संवेदनशील और प्रभावशाली हैं. मोती प्रसाद जी ने ग्रामीण परिवेश और शहरीकरण से उपजे आज के हालात का बहुत सटीक चित्रण प्रस्तुत किया है. सचमुच अब स्त्रियाँ कोख में भी छुप नहीं सकती. भावपूर्ण लेखन के लिए आप दोनों को हार्दिक बधाई.
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आपका शबनम जी
जवाब देंहटाएंकुछ रचनाएँ दिल को छू जाती हैं, यहाँ प्रस्तुत आप दोनों की रचनाएँ वैसी ही हैं |
जवाब देंहटाएंदोनों को हार्दिक बधाई