शनिवार, 30 सितंबर 2023

478

 फिर से

 

राधा मैंदोली

 


लौ-सी फड़फड़ाकर 

शांत हो जाने के बाद

एक हिचकी अनमनी- सी 

फिर जला जाती है, जी ।

 

टूटकर सब तार, वीणा के

 बिखर जाने के बाद

एक सरगम मधुबनी -सी

फिर जुड़ा जाती है, जी ।

 

 क्या कहूँ ? तुमको ,जो 

मुझ में ही रहेवर्षों  के बाद

 छुअन तेरी, मूर्छिता का

 फिर जिला जाती है, जी ।

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गुरुवार, 28 सितंबर 2023

477-अतृप्ता संग्रह से

 

लिली मित्रा

 



1- प्यार को पूर्णता कहाँ ?

 

क्या होगा

जब हमारा प्यार

अंतर्मुखी हो जाएगा ?

रस्मों रिवाज़ों से

हो मजबूर दूर से ही

प्रीत की उष्मा पाएगा,

कोई राह तुम तक

नहीं पहुँची होगी,

बस कल्पनाओं में ही

अपनी मंज़िल पाएगा,

 

मन घर का कोई

ऐसा कोना खोजेगा,

जहाँ कोई और

न आएगा जाएगा,

आँखें मूँदकर

फिर तुम्हारी यादों का

बटन दबाएगा,

मानस पटल पर

कल्पनाओं का

 स्क्रीन सेट करेगा,

 

उस पर उभरेंगे

वो सजीव से चलचित्र

जिसमें हमारी

अभिलाषाएँ और

इच्छाएँ मेरे निर्देशन में

अभिनय करती नज़र आएँगी,

शुरुआत से

अंत सब मेरे मुताबिक़

घटित होगा,

हाँ तब तक मैं

 बहुत परिपक्व हो जाऊँगी,

 

तुम्हें पाने की चाह को

 मन में छुपाकर,

 सबके साथ पूर्णता से

जीना आ जाएगा

किसी की पुकार पर

अचानक उसे बंद कर

 दिया जाएगा,

 कुछ बिखरे कामों को

समटते हाथ,

पर मन उन्हीं लम्हों को दोहराएगा,

 

कोई शब्द  तुमसे जुड़ा

कानों मे गूँज जाएगा,

 लिखे अल्फ़ाज़ में

तुम्हारा चेहरा नज़र आएगा,

 'बातों का समय' तब भी

यादों का अलार्म बजाएगा,

प्यार को पूर्णता कहाँ

यह सत्य भली-भाँति समझ आ जाएगा ।

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2-न जाने कैसा हो मेरा अवसान

 

मैं गुजरते वक़्त के दरख्तों पर

कुछ कोपलें लम्हों की रख आती हूँ....

न जाने कैसा हो अवसान मेरा मैं

 खिड़कियों के क़रीब

बड़े पेड़ों की पंगत गोड़ आती हूँ...

 

बरसाती मौसम की लाचारी भाँपते हुए

देखती हूँ चींटियों को अथक,

एकजुट दाना जुगाड़ते हुए ...

यही सोच मैं भी

सुनहरे दानों का जुगाड़ करती हूँ...

 न जाने कैसा हो अवसान मेरा

 मैं दिल के गोदाम में

यादों के भोज्य पहाड़ करती हूँ....

 

दीवारें कमरों की रंगीन ही सही

 मगर छतों की कैनवस सफ़ेद ही रखती हूँ

न जाने कैसा हो अवसान मेरा

सीधे लेटकर उकेरने के लिए

कुछ तस्वीरें करीबी...

मैं आँखों में बहुरंगी जमात

 रखती हूँ....

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अतृप्ताः
  लिली मित्रा, पहला संस्करण : 2019, पृष्ठः 116, मूल्य : ₹200 $8, -0-ISBN: 978-93-87464-37-7 पहला संस्करण : 2019, पृष्ठः 116, मूल्य : ₹200 $8, -0-
ISBN: 978-93-87464-37-7, प्रकाशक :हिन्द-युग्म ब्लू,  201 बी पॉकेट ए, मयूर विहार फेस-2, दिल्ली- 110091

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रविवार, 17 सितंबर 2023

476-हे! हिमालय

 

  हे !हिमालय/

 डॉअनुपम ‘अनन्य’

 


ऊँचा, विशाल,

धवल तन

धारण कर

पालते नहीं

अहम आवरण

क्षण भर।

तुम्हारे श्वेत शीतल

उत्तुंग शिखर पर

रमते हैं

शिव के अनादि चरण

शाश्वत सानिध्य यह

अमृत जीवन का

प्रत्यक्ष प्रमाण रहा

सृष्टि रक्षार्थ

हलाहल पान

जब किया

आशुतोष ने

सन्तप्त हुई विश्व-धरा

उस गरल के

मारक ताप से

शमन कर ताप को

कर दिया था

शांत-शीतल

नीलकंठ को

हे!हिमवान

तुम्हारे! शीतल हृदय से

निःसृत अविरल अमृत जल-धार

तृप्त करती

चर-अचर को

जाकर मिलती है

विशाल सागर से

यह मिलन

सृष्टि के सृजन का

 बन कारक

  रक्षित कर रहा

  मानवता को।

शनिवार, 9 सितंबर 2023

475-सॉनेट

 

सॉनेट

मूल: गिरिजा बलियारसिंह

अनुवाद: अनिमा दास

(सॉनेटियर,कटक, ओड़िशा )

 






1.महानदी 

 

अक्षरों के अमाप आषाढ़ में, अनंतर शब्दों के सावन में 

तिल से त्रिकाल पर्यंततुम्हें तीर्ण करती हे, तिलोत्तमा

तृष्णा के नक्षत्रों को सहेजता रहूँगा तुम्हारे ताल वन में 

माँग में सजाती रहो, मेरे रक्त की रंगीन  ऊषा, हे प्रियतमा !

 

समय के उस पार से, आओ स्वरवर्ण सा कर शृंगार 

व्यंजन वर्ण की व्यथा हो विस्मृत- इस जन्म के प्रेत को

भाषातीत भाद्रपद में, आशातीत श्विन में लिये उभार 

मेरे मोक्ष की महानदी..आओ, लाँघकर संकट संकेत को 

 

आवर्तन तुम्हारे आलिंगन का रहे सदा के लिए दिगंत पर्यन्त 

बह जाए भय-भ्रांति जितनी प्राचीन प्रणय की, जो ग हैं पसर 

कौन बाँध सकता है तुम्हें, यदि तुम्हारी अनिच्छा  हो अत्यंत

हे, ओतप्रोत ओजपूर्ण ओंकार  ! उतर आओ आज  अधरों पर 

 

महोदधि के हृदय में हो जाओ लीन, हे महानदी तरंग  !

प्रेम के इस प्रलय में विश्वास ही बन वटपत्र रहे अंतरंग।

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2. तिलोत्तमा

 

यदि मोहग्रस्त किया है विश्व को मेरा विदित विग्रह

तुषानल की तीव्रता से त्रिभुवन को मैंने दिया है त्राण 

सम्मोहित किया है सहस्रासुर, सुन्द-उपसुन्द दुःसह

मेरे कटाक्ष से हुआ एक कंपित अन्येक पाया निर्वाण।

 

हुई रूपांतरित क्षुद्र रत्नकणों में : मैं तन्वी तिलोत्तमा

करता विमोहित.. महेंद्र से महादेव : मेरा चारु अवयव 

स्वर्गीया मैं शून्या नारी, न हूँ मैं पत्नी, न हूँ मैं प्रियतमा

तथापि मेरे अव्यक्त अनल में सदा पुरुष बनता है शलभ ।

 

मेरे रूप से तीव्र होती तृष्णा, तृष्णा से बढ़ती है वेदना

चित्त भ्रमित अत्यंत शोभित..तिलांकित तन मेरा तदापि यथावत् 

हृदय में है किसका हाहाकार? आहा!  किसकी है यंत्रणा ?

क्या मेरा निर्जन सिक्त नारीमन है अनंत काल से क्रंदनरत?

 

 

हे विश्वकर्मा! ईश्वर की इच्छा से यदि किया मुझे निर्मित

किस सप्त सागर के स्रोत में, मैं करती स्वप्न समस्त विसर्जित?

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