शनिवार, 29 अप्रैल 2023

449

 प्रॉ. विनीत मोहन औदिच्य

  1-प्रेम - अमिय

एकाकी अस्तित्व जूझ जब, संघर्षों से हारा।

परछाई बन विपदाओं से, तुमने मुझे उबारा।।

प्रेम अमिय पीकर अधरों से, जीवन नूतन पाया।

तप्त बदन करती आनंदित, शीतल कुंतल छाया।।

 

बरसाना की राधा बन तुम, हृदय कुंज में बसती।

व्यथित दृगों से हिरणी सम तुम, राह मेरी हो तकती।।

कालिंदी तट बाट निहारूँ, निस-दिन मगन तुम्हारी।

परम प्रकाशित रूप निरख कर, जाऊँ नित बलिहारी।।

  

ध्वनित हो रहा नाम तुम्हारा, हर क्षण भूमंडल में।

जगमग तव सौंदर्य झलकता, कांतिमान कुंडल में।।

यात्रा दुष्कर पूर्ण हुई प्रिय, पास तुम्हारे आकर।

अनिर्वाच्य विश्रांति मिली है, गोद सुकोमल पाकर।।

 

श्वास है सीमित, प्रेम असीमित, शेष न मृगतृष्णा है।

राधा मय है जल, थल, नभ ये, तुझसे ही कृष्णा है।।

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 2-पाषाण शिला

 हूँ शापित पाषाण शिला,सहती तीक्ष्ण धूप सूरज की।

यामिनी हिम शीत अंबर, बारिशों में धार जल की।

वियोगी मुझको भिगोते, भावना के ज्वार से बस।

सूख जाता दृगों का जल, सिक्त रह जाता है अंतस।।

 

मौसमों का वार झेलूँ, समय से ना त्राण मुझको।

वेदना रिस-रिसके बहती, मत कहो पाषाण मुझको।।

साथ में है कौन मेरा, सहारा जिसका मैं ताकूँ?

नयन के आगे अँधेरा, गवाक्षों में कहाँ झाँकू?

 

मौन दिखती हूँ भले ही मुखर,हो कुछ कह रही हूँ।

मानवों की यातना को,विवश जड़ बन सह रही हूँ।

पाशविक संसार में अब, छा गया है तम घनेरा।

सो रहे बेसुध मनुज सब, दूर दिनकर का सवेरा।।

 

हूँ अहल्या भी नहीं मैं, राम की जो राह देखूँ।

भाग्य रेखा मिट चुकी है, ना हृदय की चाह देखूँ।।

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गुरुवार, 13 अप्रैल 2023

446-मंत्रमुग्धा के विस्तार पटल

निम्नलिखित लिंक परअनिमा दास द्वारा लिखी  मन्त्रमुग्धा-डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'  की समीक्षा  पढ़ी जा सकती है-

 1-उत्कर्ष  ,

                                                                                                  

2-विवर्ति दर्पण    

                                                                                     

.3-नीरज टाइम्स

शुक्रवार, 7 अप्रैल 2023

445-ये पहली बार नहीं था

 रश्मि विभा त्रिपाठी

 


एक महाशय 

मुझसे बोले- 

अरे!

आपका क्या हाल है?

आप तो गायब ही हैं इन दिनों

कमाल है

कहाँ रहती हैं 

हवा- सी समूचे वायुमंडल में बहती हैं 

धूप- घाम सब सहती हैं

क्या कहती हैं?

कोई लेखा है?

मैं गुस्साई

ये पहली बार नहीं था

जब बी पी बढ़ने की नौबत आई

कहा- 

जी नहीं!

वो तो एक ज्योतिष ने कहा था 

कि समय के साथ- साथ 

बेटी

एक दिन उगेगी 

तेरे माथे पर

एक यायावरी की रेखा

सो घुमक्कड़ी में अनियमिता नहीं

नियमितता ही है फायदेमंद 

तू टहलने का काम कर

पर उन्हें तो सवाल अटपटे ही पसंद थे 

सो आदत से बाज नहीं आए 

फिर मुस्काए और दाग दिए

जो भी सवाल चंद थे

नहीं माने 

मारने लगे ताने

इसी बहाने 

तो फिर मैं भी ऐसा काम कर गुजर गई 

कि वे होश में आ गए

कोफ्त से भर गए

सारी उतर गई 

एकदम 

जैसे कि मर गए 

जबान खोली

मैं तपाक से बोली-

भाई साहब मैं... 

सुलेखा...

आप मुझे कोई दूसरी स्त्री समझ रहे हैं

और इतना कहकर 

धीमे से हम रोड क्रॉस कर गए

खैर!

अब वे पूछते तो नहीं

कि आपको कबसे नहीं देखा है

तबसे 

हमारी बातचीत 

बिल्कुल बंद है

पर फिर भी मन नहीं माना 

करते रहते हैं शक

कि मेरी हद है तहाँ तक

जो उनको नहीं देती हूँ 

थोड़ा भी हक

क्या करते हैं 

सवाल ही तो करते हैं

अपना भी मन हरा करते हैं

इसमें क्या बुरा 

कम से कम वे सामने से तो 

नहीं चलाते हैं मेरी छाती पर छुरा

अब उनकी नजर है जिधर 

बेशक मेरी पीठ है

तो मैं कहूँ कि बंदा ढीठ है

स्त्री की आवाज ही मधुर है

पर मेरा तो आजकल 

कुछ ज्यादा ही

बदला हुआ सुर है

हरेक आदमी का पाँव तो

मुझे यों लगता है कि जानवर का खुर है

दो सींग हैं

हाँकते डींग हैं 

पूँछ में लपेटकर अभी मुझे उछाल देंगे 

गिरूँगी, हड्डी टूटेगी तो इलाज के पैसे

वो अपने बैंक खाते से निकाल देंगे

नहीं!

मैं गिरूँगी

तो ठीक होने की दुआ भी 

अगले साल देंगे 

जब मैं ठीक हो जाऊँगी

तो ठीक होने की दुआ लेकर क्या पाऊँगी

 

वैसे ऐसा कुछ नहीं

ये मेरे मन का सारा वहम है

वो मुझे पूछ ही लेते हैं 

यही क्या कम है

मेरी तो मन:स्थिति ऐसी ही है 

उधर मेरी चिंता में घुल- घुलकर 

उनकी हालत भी वैसी ही है

आशा है वे जान जाएँगे 

तो भी

इस बात को टाल देंगे

वे इतने भले हैं 

कि मेरे लिए हर काम को 

ठण्डे बस्ते में डाल देंगे

अकेली सुनसान गली में 

घुप्प अँधेरे में 

वे ही मेरे पीछे चले हैं 

मेरी चेहरे पर लगातार 

अपनी आँखें चिपकाकर 

मेरी परेशानी को आँकते हैं

चुपके- चुपके झाँकते हैं

मैं घर में अकेली! 

कोई आहट करूँ 

तो सबसे पहले आधी रात को वे ही खाँसते हैं

मैं समझ जाती हूँ कि उनको मेरी फिक्र तो है!

अब जो है सो है!

इतना भी कोई करता है?

संसार स्त्री- पुरुष को लेकर

कोई राय बनाने से पहले क्यों नहीं डरता है?

देखें!

कब तक पाप का घड़ा भरता है

अब देखो!

हमारे घर की खिड़की में 

जो सं है

वे सुबह- सुबह बाहर निकलते ही 

उसी में से देखते हैं 

कि दरवाजा 

अब तक क्यों बंद है

कोई मेरी चौखट पर कदम रखे 

तो निरीक्षण करते हैं 

कि क्यों आया

कैसे आया?

अब दुनिया की तो बुद्धि ही मंद है

मगर 

बड़ी विवशता है 

मैं कठोर हो जाती हूँ

और उनसे कुछ नहीं बताती हूँ

चिड़चिड़ापन में

सोचती हूँ उल्टा ही

कि उनको क्या अधिकार है

उनका अपना भी तो घर- परिवार हैं

उसे सँभालें

बीबी- बच्चे पालें

वही बेतुके सवाल

मैं जबाव करारा दे देती हूँ 

मेरा ये है हाल

कि कहती हूँ

इसके अलावा भी तो 

और भी हैं बहुतेरे काम

करना- धरना कुछ नहीं

कोरे सवाल पूछने में ही 

इंसान का दुनिया में 

क्या रौशन होता है नाम?