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रविवार, 17 सितंबर 2023

476-हे! हिमालय

 

  हे !हिमालय/

 डॉअनुपम ‘अनन्य’

 


ऊँचा, विशाल,

धवल तन

धारण कर

पालते नहीं

अहम आवरण

क्षण भर।

तुम्हारे श्वेत शीतल

उत्तुंग शिखर पर

रमते हैं

शिव के अनादि चरण

शाश्वत सानिध्य यह

अमृत जीवन का

प्रत्यक्ष प्रमाण रहा

सृष्टि रक्षार्थ

हलाहल पान

जब किया

आशुतोष ने

सन्तप्त हुई विश्व-धरा

उस गरल के

मारक ताप से

शमन कर ताप को

कर दिया था

शांत-शीतल

नीलकंठ को

हे!हिमवान

तुम्हारे! शीतल हृदय से

निःसृत अविरल अमृत जल-धार

तृप्त करती

चर-अचर को

जाकर मिलती है

विशाल सागर से

यह मिलन

सृष्टि के सृजन का

 बन कारक

  रक्षित कर रहा

  मानवता को।

रविवार, 29 जनवरी 2023

420-ॠतुराज

 

डॉ. अनुपम अनन्य



वसन्त! तुम्हारा आगमन

सब कुछ रसमय हो जाता है

बदल जाता है सब कुछ स्वभावतः

प्रकृति की कठोरता

नीरसता मौसम की

प्राणों का छीजता सत्त्व

मन की निष्ठुरता

कायरता चरित्र की

जीने पन की मरती चाह

अपनों बिल्कुल अपनों के साथ भी

प्रकट अप्रकट शीतित शुष्कता

सब कुछ बदल जाता है

गुनगुनी धूप

खिलखिलाते उपवन

पवन की मादक गति

अंदर की ऊष्मा

चेहरे की कांति में ढलकर

दिव्य हो जाती है

सम्बंधो की प्राकृतिक नरमी-गरमी

अनायास ही प्रकट हो

फैल जाती है

स्नेह ऊष्मा से

नहा उठते हैं सभी

तुम्हारे!आते ही

सच मे ऋतुराज हो तुम।

 

-0- रामनगर, उत्तराखंड