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गुरुवार, 22 जून 2023

461

 

खोल दो खिड़कियाँ—काव्य संग्रह

सुदर्शन रत्नाकर

 


 लेखन की कोई  आयु नहीं होती और इसका ज्वलंत उदाहरण है  डॉ .गोपाल बाबू शर्मा जिन का अयन प्रकाशन से सद्य प्रकाशित काव्य-संग्रह ‘खोल दो खिड़कियाँ’

इस संग्रह में  उनकी गीतिकाएँ, दोहे, हाइकु एवं व्यंग्य कविताएँ संगृहीत है।

 

गीतिकाओं में आज की परिस्थितियों,समाज की सोच, स्वार्थपरता और उसमें व्याप्त बुराइयों का वर्णन करते हुए लिखा है—

    आज तो आदमी/ आदमी से डरे / और को दोष दें / लोग बने खरे ।

 अपने भी कब अपने अब / बस मतलब की काई है / बस्तियाँ जल रही / हम गीत गा रहे।

 उम्र की एक दहलीज़ पर आकर मनुष्य कितना बेबस हो जाता है और सच्चा भी—

नींद आती नहीं/ गोलियाँ खा रहे / साथ जाता न कुछ / आदमी ऐंठा रहे।

 

दूसरे भाग में गागर में सागर भरते दोहे हैं जिनमें कवि ने सामाजिक बुराइयों, मानवीय मूल्यों के ह्रास, सरकारी तंत्र में कुव्यवस्था,वर्तमान राजनीति में होने वाली धाँधली, निजी स्वार्थ पर कटाक्ष करते हुए सुंदर विश्लेषण किया है। जनता की कौन परवाह करता है।धर्म के नाम पर लोगों को ठगा जाता है, वोट बैंक बनाए जाते हैं-

लोक तंत्र में रोज़ ही, नेता करें हलाल।

 जनता को ठेंगा दिखा, स्वयं चीरते माल।।

दु:शासन हैं हर जगह, कहाँ द्रौपदी जाय।

बिना सुदर्शन चक्र के , कैसे लाज बचाय।।

अस्पताल तब जाइए, घंटों फुर्सत होय।

बिना सिफ़ारिश आँख क्या,दाँत न देखे कोय।।

    कहने को तो नारी का उत्थान हो रहा है लेकिन वह एक सीमा तक ही सीमित है—

नारी तक सीमित हुआ, नारी का उत्थान। कितनी हैं तेजस्विनी, कितनी बनी महान।।

हम कितना भी कहें बेटा- बेटियाँ समान हैं;  लेकिन उसकी स्थिति में आज भी कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया। उसे पूरे अधिकार प्राप्त नहीं और न ही वह सुरक्षित है—

घर में बेटी को कहाँ, बेटे जैसा प्यार।

 बाहर का भी क्या पता, किसकी बने शिकार।

 

तीसरे खंड में विविध विषयों को संजोए एक सौ दो हाइकु हैं। यदि जिज्ञासु पाठक उत्कृष्ट हाइकु पढ़ना चाहें तो डॉ. गोपाल बाबू शर्मा के हाइकु पढ़कर अपनी पिपासा को शांत कर सकते हैं। इन हाइकुओं में कवि के जीवन दर्शन के साथ ही समाज में व्याप्त बुराइयों, विद्रूपताओं, ज़िंदगी की दुरुहता, पर्यावरण का चित्रण किया गया है—-

 

नहीं फूलों सी / आज की ज़िंदगी/ सेज शूलों की।

  अंधविश्वास/ अभी तक जीवित / बने विनाश।

 

 झूठ की नींव पर टिके रिश्ते मज़बूत नहीं होते कभी भी टूट सकते हैं—

 रिश्ते न रहें / झूठ की नींव पर/ कभी भी ढहें।

         घर परिवार में जिस संवेदनशीलता, आपसी सहयोग, स्नेह, प्यार, सुरक्षा, विश्वास, सम्मान की आवश्यकता होती है, वे सब खंडित हो रहे हैं जिसके कारण कवि का चिंतित होना स्वाभाविक है—

ईंट-पत्थर/ मकान ही मकान/ कहाँ है घर।  

अपना घर / फिर भी बुढ़ापे में / डर ही डर। 

विकास के नाम पर हम प्रकृति से दूर हो रहे हैं उसके के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है—

कैसा विकास/ होली भी मिलावटी/ टेसू उदास।

हो रही रेड /  विकास की आँधी में/ ढहते पेड़।

लोकतंत्र में सबको समान अधिकार प्राप्त होते हैं लेकिन झूठ फ़रेब पर आधारित दोमुँही राजनीति में ऐसा कहाँ है। नेताओं का तो घर भरा रहता है लेकिन गरीब तो हर प्रकार से लुटता रहता है—

ख़ास की छूट/ लोकतंत्र का अर्थ/ आम को लूट।

देश की खाट / खड़ी की जिन्होंने भी / उन्हीं के ठाठ।

 

 कवि राजनीति की गिरती साख को देखकर चिंतित हैं तभी तो समाज में सुधार लाने के लिए  वह जनता को सचेत करते हैं—

  नींद से जागें / समाज को बदलें / दूर न भागें।

दीप हो जाएँ / भटके पथिकों को / राह दिखाएँ।

अंतिम खंड में व्यंग्य- कविताएँ हैं-

 

      हमारे नेता यह कहते नहीं थकते कि हमारे देश की जनता को सब सब सुख-सुविधाएँ प्राप्त हैं लेकिन वे इस सच से अनभिज्ञ हैं कि दो जून की रोटी के लिए अपने बच्चों तक को बेच देते हैं।उनकी जान की कोई क़ीमत नहीं उन्हें पशुओं से भी बहत्तर समझा जाता है  विकास के नाम पर सरकारी योजनाएँ  बदहाली हालात में लोगों को चिढ़ाती हैं। (स्मार्ट -शहर सच, तेंदुआ ,सुव्यवस्था )

  सच तो यह है कि / अब भी ग़रीबी के कारण / आदिवासी इलाक़े में / आठ माह की बिटिया / दो सौ रुपये में बिकती है।

ठीक भी है / अब,/ तेंदुओं की / ज़्यादा परवाह है / इंसान से अधिक / उसकी  चाह है।

 

फिर भी नेता ग़रीबों के नाम पर राजनीति करते है और बेचारी जनता हर बार उनके झूठे आश्वासनों में फँस जाती है।(गरीब)

    बे-चारे / गरीब ही काम आते है / झूठ-मूठ कुछ पाकर भी/ खुश हो जाते हैं।

   भ्रष्टाचार और बेईमानी से धन कमाने वाले लोग सभी सुख-सुविधाओं से लैस रहते हैं, सुखमय जीवन जीते हैं लेकिन ईमानदार लोग दो-जून रोटी को तरसते हैं।(फ़र्क़)

 

देश की क़ानून व्यवस्था पर कटाक्ष करते हुए (मौन) कविता में कवि कहते हैं कि दरिन्दे गुनाह करके भी वर्षों निर्णय न होने के कारण सज़ा से बचते रहते हैं, पीड़ित को न्याय नहीं मिल पाता।कवि चिंतित हैं कि इसका उत्तर, समाधान किसके पास है।

 

मीडिया का छोटी-सी बात को बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करना, साहित्यिक संस्थाओं का सम्मान के नाम पर धंधा करके पैसा और प्रसिद्धि पाना, सरकारी तन्त्र की बीमार मानसिकता  भ्रष्टाचार आदि बुराइयों का कवि ने छोटी-छोटी कविताओं के माध्यम से गहरा कटाक्ष किया है।    (समाचार, पैसा और प्रसिद्धि, आमदनी प्रचार, विकास, स्वास्थ्य-केन्द्र )

  मुझे विश्वास है डॉ गोपाल बाबू शर्मा की कृति खोल दो खिड़कियाँ पाठकों के मन को ज़रूर भाएँगी।

अनन्त शुभकामनाएँ ।

-0-खोल दो खिड़कियाँ: डॉ गोपाल बाबू शर्मा, पृष्ठ:80, मूल्य: 180, वर्ष:: 2022 , अयन प्रकाशन, नई दिल्ली

-0-

गुरुवार, 13 अप्रैल 2023

446-मंत्रमुग्धा के विस्तार पटल

निम्नलिखित लिंक परअनिमा दास द्वारा लिखी  मन्त्रमुग्धा-डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'  की समीक्षा  पढ़ी जा सकती है-

 1-उत्कर्ष  ,

                                                                                                  

2-विवर्ति दर्पण    

                                                                                     

.3-नीरज टाइम्स

मंगलवार, 10 जनवरी 2023

415-कई विधाओं से अलंकृत मत्रमुग्धा

 अनिमा दास

           कवयित्री डॉ. कविता भट्ट जी का परिचय इतना विस्तृत है कि मेरी लेखनी में समा नहीं पाती। सम्यक् रूप में यह कहूँगी कि कविता जी योग शास्त्र एवं दर्शन शास्त्र में विशारद हैं। संप्रति वह केंद्रीय विश्वविद्यालय, उत्तराखंड में कार्यरत हैं। उनकी लेखनी समाज की भित्ति को उत्कृष्ट करने हेतु सदैव तत्पर रहती है। प्रत्येक पीढ़ी के लिए साहित्य के माध्यम से अनवरत निष्ठा सहित कार्यरत कवयित्री स्वयंसिद्धा है।

 


उनके कई विशेष संग्रहों में से मंत्रमुग्धा एक काव्य संग्रह है। यह संग्रह कविता की कई विधाओं से अलंकृत है। कविता जी कहती हैं कविता मन की अभिव्यक्ति होती है एवं इसका संप्रेषण केवल भावप्रवणता में होता है। इस संग्रह में छंदमुक्त एवं छंदबद्ध कविताएँ तथा क्षणिकाएँ, हाइकु,ताँका,चोका भी पृष्ठबद्ध हैं।

सभी रचनाएँ जितनी संवेदनशील हैं उतनी ही ऊर्जापूर्ण एवं सकारात्मक भी हैं। उन्होंने कई सुन्दर उपमाओं , शब्द बिंब एवं यथार्थ से उभरते कल्पनात्मक भावों से अभिसिक्त प्रत्येक रचना को मृदुल स्पर्श दिया है। कविता मनोद्गार को परिप्रेषित करने का कोमल माध्यम  होती है। जब पीड़ा अपनी परिधि से वहिर्भूत होती है तब ज्वार सी.. उफनती नदी सी धैर्य का तटबंध ध्वस्त कर देती है। तभी कविमन अभिप्रेरित होता है... विह्वल हो उठता है एवं रच जाती है...समय शिलाओं पर हृदय आख्यायिका... पूर्ण-अर्धपूर्ण पंक्तियों में।

'मंत्रमुग्धा' वास्तव में पाठकों को मंत्रमुग्ध करती रचनाओं से परिपूर्ण है। योगशास्त्र एवं दर्शन शास्त्र की विदुषी की कविताएँ दार्शनिक तत्त्व से परिपूर्ण हैं।प्रथम कविता की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं..

"किसी तथाकथित सम्बन्ध की

उस मरुथल हुई भूमि पर

न तो उद्गम होता है

संवेदनाओं की किसी नदी का

न ही झरने बहते हैं

भावों के कलकल गुनगुनाते

फिर भी न जाने क्यों

विचरती हूँ - प्राय

स्मृतियों की पैंजनियाँ पहनकर

बजाती हूँ तर्कों के घुँघरू

रचती हूँ आदर्शों के गीत"

 

मन में आलोड़ित, संघर्षरत भावों को वेदनाओं के चक्रव्यूह से मुक्त करके उसे शाब्दिक रूप देना एवं प्रत्येक नारी मन की भाषा को परिभाषित करना कितना कठिन है यह उपर्युक्त पंक्तियों में परिलक्षित हो रहा है।

अन्येक कविता 'तुझे निहारूँगी चुप -सी -नदी ' में  कविता जी कहती हैं :

"रोना तो बहुत चाहती हूँ

हाँ, फिर भी रोऊँगी नहीं।

क्योंकि सुना है — लोग कहते

रोना कमजोरी की निशानी

चाँद को निहारते हुए सीखा है

हर शाम उगने का हुनर —

अपना टेढ़ा मुखड़ा लेकर

अब चाँद पूनम का हो या

पहली रात का सहमा सा

चाँद तो चाँद ही है।

काश टेढ़े मुँह वाले चाँद की सच्चाई

लोग समझ पाते।"

इन पंक्तियों की गहनता में यदि लीन हो जाए पाठक तो एक संवेदनशील उपकथा से साक्षात्कार होगा। किसी भी  दृष्टिकोण से देखा जाए तो कवयित्री ने अद्भुत् रूपक दिया है हृदय की अस्पृर्श्य व्यथा को।

पृष्ठ 39 की कविता 'तुम मुक्त हो' छायावाद शिल्प का एक जीवंत उदाहरण है। स्वयं की सत्ता से मिलना एक साधना है। किसी और की दृष्टि में स्वयं को पाना, विचारमुक्त उक्ति भी नहीं है। बहुत सुन्दर एवं सार्थक सृजन है यह कविता।

वैसे ही पृष्ठ 45 की कविता मन 'अभिमन्यु' एक सकारात्मक चिंतन का वह युद्ध क्षेत्र है जहाँ प्रत्येक मन युद्धरत है कई परिस्थितियों के साथ। किंतु अविजित रहता है अंत में।

पृष्ठ 52 की कविता 'कामयाबी भिखारन हुई' एक आशा की किरण जगाती है तो पृष्ठ 53 की कविता 'अब अरुणोदय होगा ' अनेक अभिलाषाएँ एवं आशाएँ लिए कैसे प्रतीक्षारत मानवीय भावना प्रतिदिन एक नूतन ऊषा के लिए संघर्ष करती है... यह चित्रित करती है।

 

 'अमृत धार' के 30 हाइकु जीवन दर्पण हैं । प्रत्येक हाइकु में जीवन की प्रत्येक स्थिति का अति सरल विचार में समाधान दृष्ट होता है।

गाँव की प्रकृति में आधुनिकता के कारण जो परिवर्तन हुआ है.. उसका चित्रण अति अल्प शब्दों में करना कितना कठिन होता है.. परंतु कवयित्री ने इस वेदना को... इस अनसुलझी स्थिति को यथावत जीवित रखते हुए पाठकों को विचार करने का अवसर दिया है।

क्षणिकाओं में जैसे पीड़ा की अनंत यात्रा का दृश्यांकन है। प्रत्येक क्षणिका जैसे आत्मा को स्पर्श करती हुई समस्त व्यथाओं को पी जाती है। मानवीय प्रेम, इच्छा, विरह, आशा, उद्देश्य ।जीवन लक्ष्य से पूर्ण यह क्षणिकाएँ वास्तव में कवयित्री की संवेदनशीलता को दर्शाती हैं।

चोका में प्रत्येक रचना भाव विह्वल करती हुई गहराई में पहुँचती है। मेरे पाठक मन को सिक्त करती हुई ये समस्त रचनाओं ने मेरे स्नायुओं को अनियंत्रित किया है। ये रचनाएँ गहन अभिव्यक्ति का अनन्य वर्णन है। साधारण मानव मन की व्यथा, यंत्रणा, अभीप्सा, आलोड़न, अपूर्ण आशा, इत्यादि को पूर्ण आकार एवं शब्द दे रहीं हैं ये रचनाएँ।

'मंत्रमुग्धा' कवयित्री कविता जी की विकसित भावनाओं की एक काव्य वाटिका है जहाँ हम पाठक अपनी अपनी समस्याओं का , सामाजिक संघर्षों का ,  आत्मिक पीड़ा का समाधान ढूँढ लेते हैं। सहज शब्द, सरल भाषा, समग्र विश्व को एक ही विचार धारा में देखने का दृष्टिकोण इस संग्रह का अलंकार है.... आभूषण है।

आवरण पृष्ठ पर पर्वत पंक्तियाँ, नीलांबर तथा रक्तिम पुष्पों से अच्छादित वृक्ष एवं आत्मलीन कवयित्री... वास्तव प्रकृति की जीवंतता का यह दृश्य अति रमणीय है।

अनन्य संग्रह है 'मंत्रमुग्धा' ... मानवीय जीवन का स्वच्छ दर्पण है..। कवयित्री डॉ. कविता जी को हृदय गह्वर से शुभकामनाएँ एवं इस संग्रह को उत्कृष्ट पाठकीयता प्राप्त हो इसी मंगलकामना के साथ...

मंत्रमुग्धा (काव्य -संग्रह): डॉ.कविता भट्ट 'शैलपुत्री',  प्रथम संस्करण -2022, पृष्ठ – 104,मूल्य - ₹260

प्रकाशक - शैलपुत्री (शैलपुत्री फाउंडेशन )

 

 

 

बुधवार, 20 जुलाई 2022

372-भावना की अभिव्यक्ति के सहज स्वर: ‘रंग भरे दिन -रैन’

डॉ. उपमा शर्मा (नई दिल्ली)

समकालीन हिंदी काव्य में अतुकांत कविता ने बहुत दिनों तक अपना साम्राज्य स्थापित रखा; लेकिन


छंद जैसी गेयता और लावण्य प्राप्त करने में यह पूर्णतः सफल नहीं हो सकी।  आदिकाल से ही काव्य को कसौटी पर कसते छंदों का लावण्य कवियों और श्रोताओं को अपनी ओर खींचने मे सक्षम रहा है।  उसी कड़ी में आज दोहा जैसे मात्रिक छंद ने अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त की है।  दोहा साहित्य के आदिकाल से लिखा जाने वाला छंद है।  तुलसी, कबीर ,बिहारी के दोहे सुनते पढ़ते ही हम बड़े हुए हैं।  

छंद वस्तुत: एक ध्वनि समष्टि है।  छोटी-छोटी अथवा छोटी-ड़ी ध्वनियाँ जब एक व्यवस्था के साथ सामंजस्य प्राप्त करती हैं तब उसे एक शास्त्रीय नाम छंद दे दिया जाता है ।  जब मात्रा अथवा वर्णॊं की संख्या, विराम, गति, लय तथा तुक आदि के नियमों से युक्त कोई रचना होती है, उसे छंद अथवा पद्य कहते हैं, इसी को वृत्त भी कहा जाता है।

वाक्य में प्रयुक्त अक्षरों की संख्या एवं क्रम, मात्रा-गणना तथा यति-गति से सम्बद्ध विशिष्ट नियमों से नियोजित पद्यरचना ‘छन्द’ कहलाती है। यदि गद्य की कसौटी ‘व्याकरण’ है तो कविता की कसौटी ‘छन्दशास्त्र’ है।  

 दोहा 48 मात्राओं से बुना गया विषम मात्रिक छंद है। दो पंक्तियों के इस छंद में चार चरण होते हैं। पहले और तीसरे चरण में 13-13 मात्राएँ और दूसरे व चौथे चरण में 11-11 मात्राएँ और गुरु-लघु की तुकान्तता होती हैं। दोहे अपने स्वरूप और अपनी अंतर्वस्तु से ही नहीं जाने जाते; अपितु उनमें अभिव्यक्ति की सहजता, भावों की गहनता, मार्मिकता और सम्प्रेषणता की त्वरा उन्हें विशिष्ट बनाती है।  

 अनेक न और पुराने कवि-कवयित्रियों ने अपनी काव्याभिव्यक्ति का माध्यम दोहे को बनाया। आज दोहाकारों की एक पूरी पंक्ति तैयार हो गई है। उसी कड़ी में जुड़ने वाला कमल कपूर एक प्रतिष्ठित नाम है। वैसे तो कमल कपूर के दोहों में आपको कई स्वर और अनेक छटाएँ मिलेंगी; लेकिन इनके दोहों का मूल स्वर प्रकृति की अनुपम छटा है। कमल कपूर की लेखनी प्रकृति के अनुपम दृश्य उकेरती नज़र आती है। 480 दोहों से सजा  दोहा संग्रह 'रंग भरे दिन-रैन' विभिन्न विषयों को छूता है;  परंतु कवयित्री के मूल स्वर में कहीं न कहीं प्रकृति से गहरा लगाव है। संग्रह की शुरूआत गुरु और माँ सरस्वती को समर्पित 10 दोहे से हुई है। गुरु की महिमा सर्व व्याप्त है। कमल कपूर भी गुरु की महिमा का वर्णन कुछ ऐसे करती हैं-

पहले गुरु की वंदना, करूँ हाथ मैं जोड़।

जिसने चमकाया सदा, जीवन का हर मोड़।  

 कमल कपूर जी पर माँ शारदे का वरदहस्त है। विभिन्न विधाओं में उनकी लेखनी ने कलम चलाई है। इसी संदर्भ में उनके कुछ दोहे द्रष्टव्य हैं-

लिखती कथा कहानियाँ, मीठे मोहक गीत।

लिख-लिख खत मनुहार के,कलम मनाती मीत।

तुमसे जुदा न शारदे, कभी कमल का नाम।

यश तो मिलता है मुझे, करती हो तुम काम ।  

 कमल कपूर के दोहे भाषा की सहजता, कथ्य की दृष्टि, अलंकार बिम्ब योजना व संप्रेषण की दृष्टि से अपने उद्देश्य में सफल प्रतीत होते हैं। भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा में 'बिंब' शब्द अपेक्षाकृत नया है। पुराने लक्षण ग्रंथो में इसका उल्लेख कहीं नहीं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार "काव्य का काम है कल्पना में बिंब अथवा मूर्त भावना स्थापित करना।"

बिंब विधान से हमारा तात्पर्य काव्य में आ हुए उन शब्द चित्रों से है, जिनका संबंध जीवन के व्यावहारिक क्षेत्रों से तथा कल्पना के शाश्वत जगत से होता है।  कवयित्री की सजीव अनुभूति, तीव्र भावना से परिपूर्ण होते हैं और गत्यात्मकता ,सजीवता , सुंदरता एवं सरसता के कारण जीते-जागते, चलते फिरते बिम्ब बातचीत करते से जान पड़ते हैं। इनके दोहों में बिंब का सटीक प्रयोग हुआ है।  यथा-

ओस कणों से भीग के, हुई तरल अति भोर।

कलियॉं मुखड़े धो रहीं, गुलशन हुए विभोर।

 इस दोहे में कमल जी ने प्रकृति की गति को शब्दों में बाँधने का अद्भुत प्रयास किया है। उन्होंने भोर की आसमानी गति की धरती की हलचल भरे जीवन से तुलना की है। इसीलिए वो सूर्योदय के साथ एक जीवंत परिवेश की कल्पना करती हैं, जो उपवन की सुबह से जुड़ता है। कवयित्री ने नए बिंब, नए उपमान का सटीक प्रयोग किया है। उनके सुंदर बिंब से सजे कुछ और दोहे यहॉं द्रष्टव्य हैं।

अंबर के अँगना तनी, लाल केसरी डोर।

ठुमक -ठुनकर नाचती, नटनी जैसी भोर।

सुलग रही अंगार- सी, जेठ -माह की धूप।

रूपवती गुलनार का, बिगड़ा सुंदर रूप।

पायल- सी छनका रही, मीठी मंद बयार।

रवि मेघों की ओट से, बरसाता है प्यार।


 
जीवन बहुआयामी है। अनेक परिस्थितियाँ और घटनाएँ जीवन को उद्वेलित करती हैं। सामान्य मनुष्य और कवि भी अपने इर्द-गिर्द रोजाना बहुत कुछ घटित होते हुए देखता है, परंतु उसकी संवेदनाएँ सामान्य मनुष्य के अपेक्षाकृत अधिक उत्कट और प्रखर होती हैं। कवि प्रकृति के दृश्यों में  वह सौंदर्य खोज लेता है, जो साधारण मनुष्य की दृष्टि नहीं खोज पाती। कमल कपूर का रचना संसार प्रकृति के साथ ही फैला नज़र आता है। एक अंकुर के प्रस्फुटन से लेकर पतझ तक बहुत कुछ समसाती है प्रकृति। यही विविधता कमल कपूर के दोहों में द्रष्टव्य है-

रंग बिरंगे फूलों से भरे हरे-भरे घास के मैदानों, सुन्दर नीले आकाश और ऊँचे पेड़ों के साथ घने जंगलों के साथ पक्षियों की चहचहाहट मन को सुख और जीवन को उमंग देने वाली प्रकृति, किसी के साथ किसी प्रकार का कोई भेदभाव न करने वाली प्रकृति। हमें साँसें देने वाली प्रकृति। कवयित्री के दोहों में प्रकृति की खूबसूरती जैसे उतरी पड़ी है। उन्हें जाड़े के सूरज में धीमा सुलगता अलाव नज़र आता है, तो वो कनक सेज पर बैठे हुए कोई राजा भी लगते हैं। उन्हें जेठ की तपती दोपहरी का सूरज भी उतना ही सुंदर और उपयोगी लगता है, जो लाल मनभावन गुलमोहर को अपनी लालिमा प्रदान करता प्रतीत होता है। उन्हें जितनी ख़ूबसूरती दिन में नजर आती है, उतनी ही रात में। वे कहती हैं- रात नींद और सपनों की मधुर सौगात बाँटती है। जितना उन्हें बसंत के फूलों में आकर्षण लगता है, उतना ही पतझड़ की ऋतु भी आवश्यक लगती है। प्रकृति का कोई रूप कोई रंग अनावश्यक नहीं है, उनके दोहों में ये स्पष्ट संदेश है-

पतझड़ ऋतु है खोलती, नए-नवेले द्वार।

जिनसे आती फिर नई, मधुरिम एक बहार।

 
कमल कपूर ने भी विभिन्न विषयों को छूते हुए सार्थक सृजन किया है। उनके दोहों में विभिन्न विषयों का सुंदर समावेश है। इनके दोहों में भावपक्ष का अधिक  ध्यान है। दोहा- सर्जक अति गंभीर, परिपक्व, समर्पण के साथ ही पैना दोहा लिख अपने लेखन की सार्थकता को प्रमाणित करते हैं। इस दृष्टि से कमल कपूर के दोहे उन्हें एक सक्षम व समर्थ दोहाकार की श्रेणी में रखते हैं। उनके दोहों में मौलिकता, विविधता, उत्कृष्टता एवं अंतर्निहित चेतना स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। दोहा विधा पर कलम चलाना कठिन कार्य है जिसमें शब्द भंडार समृद्ध होना, शब्द चयन में कुशलता आदि विशेषताएँ लेखक से अपेक्षित रहती हैं। कमल कपूर प्रखर और सजग चिंतक हैं, जिसकी छाप इस संग्रह में स्पष्ट परिलक्षित होती है। 'रंग भरे दिन रैन' के लगभग सारे ही दोहे उल्लेखनीय हैं। काव्य-जगत् में इस संग्रह का भरपूर स्वागत होगा।  

-0-रंग भरे दिन रैन( दोहा-संग्रह): कमल कपूर; पृष्ठ: 106; मूल्य: 260 रुपये, संस्करण: 2022, प्रकाशक: अयन प्रकाशन, जे-19/39, राजा पुरी, उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059

-0- dr.upma0509@gmail.com

गुरुवार, 14 जनवरी 2021

183-अम्बर से अवनि तक को समेटती पत्रिका- नीलाम्बरा

अम्बर से अवनि तक को समेटती पत्रिका-  नीलाम्बरा   [ नीलाम्बरा शब्द को क्लिक करके पत्रिका को पन्ना-पन्ना पलटकर पढ़ा जा सकता है ]

ऋता शेखर 'मधु'

 मुझे नीलाम्बरा पत्रिका का जनवरी 2021 का अंक प्राप्त हुआ। सर्वप्रथम मुखपृष्ठ ने मन मोह लिया। वे चाहे लाल गुलमोहर हों या उसकी गिरी हुई पंखुड़ियाँ, नीला नीर हो या भूरे पर्वत...नन्ही- सी नौका या तट के चौकोर आकृति वाली रैलिंग। उसके ले पृष्ठ पर कविता जी की कृतियों , उनके अद्भुत सृजन का परिचय मिला। सम्पादकीय में डॉ. कविता भट्ट जी ने बताया कि नीलम्बरा के इस अंक का नाम दिया गया है ,’ संवाद' जो कि वरिष्ठ, मध्य एवं कनिष्ठ


रचनाकारों के बीच संवाद स्थापित करेगा। एक और महत्त्वपूर्ण बात कविता जी ने कही कि साहित्य सृजन मनोरंजन के लिए न होकर आत्मरंजन के लिए हो। समाज को सही दिशा की ओर अग्रसर करने वाले हों।

पत्रिका में 64 रचनाकारों की उत्कृष्ट रचनाओं को शामिल किया गया है।

कोलाज के अंतर्गत डॉ. सुधा गुप्ता जी का मनोहारी चोका है ,जिसके बिम्ब प्रभावित करते हैं। बामनी बया, बिटौड़े, घराती अमराई, फूलों का जामा, वर बसन्त विशेष रूप से आकर्षक बिम्ब हैं।

गीत में स्मृतिशेष किशन सरोज जी की रचना ,धर गए दो मेहदी रचे हाथ जल में -दीप व निश्चिंत रहना बहुत भावपूर्ण रचनाएँ हैं।

डॉ. गिरिराज शरण अग्रवाल जी की ज़ल-

*सागर हो कि वन हो कि नगर, सबके लिए हो

हो दिल में तेरे प्यार मगर सबके लिए हो*...बहुत अच्छी रचना है।

गिरीश पंकज जी की ज़ल सन्देशपूर्ण है-

*बड़े बन जाओ तुम बड़प्पन साथ में रखना*

दोहों में डॉ. गोपाल बाबू शर्मा जी के दोहे अच्छे बने हैं। दोहा नम्बर 5 में कटु सत्य उद्बोधित है।

रमेश गौतम जी की कविताएँ बहुत अच्छी हैं। 

गौरैया भी/एक घोसला रख ले/इतनी जगह छोड़ना/ महानगर...बेहतरीन अभिव्यक्ति।

रामेश्वर काम्बोज जी की तीनों कविताएँ बेहतरीन हैं। माँ को तलाश करती आँखें भावपूर्ण हैं।

प्रो0 इंदु पांडेय खंडूड़ी जी की कविता की पंक्तियाँ बेमिसाल हैं….जितना गहरा है ये समंदर, उससे भी गहरा है मेरे अंदर...कवयित्री ने उस समंदर को पन्नो पर उतारने की बात कही है जिससे मुस्कान बिखर सके।

डॉ. कविता भट्ट जी की कविताएँ… बसंत होली और परीक्षाएँ सब एक ही समय क्यों आती हैं...मेरे भीतर जो चुप -सी नदी बहती है, वेग नहीं आवेग है उसमें... कवयित्री के अंतर्मन की सोच की उत्कृष्ट कृतियाँ हैं।

डॉ. कुमुद रामानन्द बंसल जी के  ताँका का सुन्दर शब्द विन्यास एवं प्रीति भाव सहज ही आकर्षित करते हैं। 14 नम्बर का ताँका बहुत सुंदर है।

डॉ.  शिवजी श्रीवास्तव जी की कविता में माँ, पत्नी, बहन के प्रति चिन्ता व्यक्त की गई है...एवं दूसरी कविता में गौरैया के गुणों को परख अगले जन्म में गौरैया के रूप में जन्म लेने की इच्छा व्यक्त की गई है। दोनों कविताएँ बेहतरीन हैं।

डॉ. शैलजा सक्सेना जी ने सिर्फ़ एक क्षण को ख़ूबसूरती से कविता में ढाला है...देहरी पर अटका विदा का क्षण। बातों की खर पतवार एवं अनकही बातों की ओस जैसे बिंबों का प्रयोग सुन्दर है।

प्रो0 संजय अवस्थी जी की कविता अम्मा में माँ के सादगी- भरे सौंदर्य, मधुर मुस्कान का सुन्दर वर्णन है। कविता का अंत  मार्मिक है जो मन को आहत कर जाता है।

हरकीरत हीर जी की कविता, ‘खामोशी का पेड़'  दिल को छूने वाली कविता है। यह उनको समर्पित उपालम्भ है ,जो ममता की मूरत तो हैं पर उनके द्वारा आँचल में दिया गया खामोशी का पेड़ क्या वाकई खामोश है...नहीं, कई अजन्मी नज्में हैं वहाँ।

डॉ. रत्ना वर्मा जी की दोनो कविताएँ सवाल पूछती हुई कविताएँ हैं। ये वे सवाल हैं जो अनुत्तरित ही रहेंगे, सदियों तक।

डॉ. कुँवर दिनेश जी की कविता, कल्कि के नाम फैक्स आज की परिस्थितियो पर चिंता जताती व कल्कि को आगमन के समय सावधान करती सामाजिक सरोकार की सुन्दर रचना है।

सुदर्शन रत्नाकर जी की बेहतरीन कविता, नारी मुक्ति के द्वार, नारियों की उपलब्धियों को रेखांकित करने के साथ साथ आत्मद्रष्टा बन स्वयं की रक्षा का आह्वान भी है। 

शशि पाधा जी की दोनों कविताएँ सुन्दर, लयबद्ध एवं भावपूर्ण है। रिश्तों की तुरपाई जहाँ आपसी सम्बन्धों पर बल दे रही वहीं, मैं तुम्हे पहचान लूँगी, मन पर छाप छोड़ती प्रेम रस की सुन्दर रचना है।

कमला निखुर्पा जी की पाँचो कविताएँ अच्छी हैं...विस्मय के संग खड़ी थी जिंदगी , बहुत अच्छी क्षणिका है।

रश्मि शर्मा जी की कविता, इंसान पेड़ नहीं हो सकता, सत्य को उद्घाटित करती सुन्दर कविता है। पेड़ों पर नईं कोपलें उग सकती हैं, पर मानव मन में नए भाव तो आ सकते हैं पर पुराने भाव सूखे पत्तों की तरह नहीं झर सकते।

डॉ. सुषमा गुप्ता जी की कविताएँ तेरे हिस्से मेरे हिस्से , में हिस्सों के हिसाब बखूबी सोच समझकर लगाए गए हैं। अकाल कविता में मानव मन की नमी से लेकर बंजर होने तक को क्रम से बताया गया है। सम्वेदनाओं के अकाल को आपातस्थिति का बिम्ब देकर कवयित्री ने उत्कृष्ट लेखन का परिचय दिया है।

निर्देश निधि जी की कविता, अलकनन्दा-सी वो, प्रेम रस की सुन्दर रचना है जो नायक की रागात्मक कल्पना पर आधारित है एवं भाव से परिपूर्ण है।

रचना श्रीवास्तव जी ने माँ के हर गुण को क्षणिकाओं में उतारा है। उनमें क्षणिक 5 बेहद करीब सी लगती है।

प्रियंका गुप्ता जी की रचनाएँ, सराय एवं पासपोर्ट, गहन रचनाएँ है। सराय में जहाँ उन्होंने परिंदों को उड़ने के लिए आजाद कर दिया वहीं पासपोर्ट में बचपन की यादों में मन को कैद रखा।

प्रेम गुप्ता मानी जी की कविता, हथेलियों का सौदा, में वे दादी माँ से कह रहिंन की वे आकर वह सब सही कर दें जिसे करने में आज की पीढ़ी सफल नहीं हो पा रही।

मीनू खरे जी की कविता, गीली रेत में पैरों के निशाँ, पढ़ते हुए एक गीत याद आता रहा...न ये चाँद होगा न तारे रहेंगे, मगर हम हमेशा तुम्हारे रहेंगे...बहुत भावपूर्ण रचना है मीनू जी की।

सुशीला राणा जी की कविता, चालीस साला औरतें, नारी जीवन के हर पहलू से परिचय करवाती सुन्दर कविता है। यह रचना मुझे किसी पुरानी कविता की याद दिला रही  जिसके प्रतिउत्तर में यह लिखी गयी थी और अच्छी तरह लिखी गयी थी।

कृष्णा वर्मा जी की कविता, मुझसे हो तुम, नारी के महत्व एवम उसकी क्षमता से परिचय करवाती सुन्दर रचना है।

सुनीता पाहुजा जी की कविता ,परिवर्तन , में सुन्दर सन्देश दिए गए हैं। सबसे बड़ा सन्देश कि सदा नए पलों का स्वागत होना चाहिए , चाहे पुराने पलों ने कितने भी घाव दिए हों।

मंजूषा मन जी की लघु कविताएँ ,जमाना ऐसा है एवं कहाँ गए वो गाँव, भावपूर्ण हैं।

उसके आगे की पृष्ठ पर ऋता शेखर मधु की अर्थात मेरी रचना है जोकि हरिगीतिका छंद में लिखी गयी सरस्वती वंदना है।

भगत सिंह राणा हिमाद जी की रचना, कलिंग युद्ध की विभीषिका, मधुमालती छंद आधारित रचना है जिसमें युद्ध भूमि का वर्णन है।

डॉ. जेन्नी शबनम जी ने आधुनिकीकरण पर कलम चलाई है। आज की पीढ़ी सुशिक्षित है , वे पुरानी पीढ़ी को देहाती कहती है पर उन्होंने क्या खोया है यह पुरानी पीढ़ी ही समझ रही।

डॉ.सुरंगमा यादव जी की कविता, सपनों में भरनी है जान, सन्देशप्रद कविता है। मन से मन का नाता, बेहद भावपूर्ण कविता है।

भावना सक्सेना जी की कविता की पंक्तियाँ,मोह नहीं है फिर भी छूटती नहीं पुरानी चीजें, पाठकों को बिल्कुल उनके दिल की बात लगेगी।

डॉ.आरती स्मित जी ने लिखा है, माँ जानती है सबकुछ, सचमुच माँ सबकुछ जानती है तभी आगे की उड़ान के लिए संतति को तैयार करती है। सुन्दर अभिव्यक्ति है।

कल्पना लालजी जी की कविता ,जिंदगी मेरी, पन्नों के बिम्ब को लेकर रची गयी सुन्दर रचना है।मेरी बिटिया, वात्सल्य भाव से ओत प्रोत भावपूर्ण सृजन है।

डॉ. पूर्वा शर्मा जी की कविता, परफ़ेक्ट…, उन सबके दिल की बात है जो सबकी आकांक्षाओं को पूरा करते करते अपनी आकांक्षा भूल जाया करते हैं। अब मैं तुम्हें याद नहीं करती, प्रेम की भावपूर्ण अभिव्यक्ति है।

सत्या शर्मा कीर्ति जी ने कोरोना काल में जो वापस घर को लौटे और अपनो के बीच भी बेगाना महसूस करते रहे, पर मार्मिक अभिव्यक्ति दी है।

शिवानन्द सहयोगी जी का अपना दर्द स्वयं सुनाना चाहते हैं और उन्होंने लिखा है, कोयल रह तू मौन। खत लिखते रहना, भावपूर्ण सन्देश है उनके लिए जो गाँव की आबो हवा छोड़कर शहर की ओर जा रहे।

अनिता ललित जी के दोहे जीवन की सच्चाइयों के रु ब रु करवाते सुन्दर हैं।

अनिता मण्डा जी ने कविता की ऊँचाइयों को छुआ है। दुनिया जिसे पागल लड़की समझती उसकी डायरी में जाने कितने मर्म छुपे थे।

ये किस्मत है कि मुरझाई नहीं मैं, जमीन को जब मेरी बदला गया था। गज़ल की ये पंक्तियाँ हैं -ऋतु कौशिक जी की। उनकी तीनों जलें बेहतरीन हैं।

भीगी पलकों के साये में, यह कविता सीमा सिंघल सदा जी की है जिसमें वे पिता को याद करती हुई भावुक हुई हैं।

ज्योत्स्ना प्रदीप जी के माहिया सुन्दर हैं। प्रभु को विषय बनाकर रची गयी गीतिका मनभावन है। 

रश्मि विभा त्रिपाठी रिशु जी की कविता ,वक़्त ,में वक्त की रफ्तार से कदम मिलाने का संकल्प है।

डॉ.  महिमा श्रीवास्तव जी की कविता, भूल न पाओगे, भावपूर्ण अभिव्यक्ति है।

प्रीति अग्रवाल जी ने कविता, आईना, में स्वयं को अपनी माँ के रूप में देखकर भावविभोर हो गईं।

पूनम सैनी जी की लघु कविताएँ विभिन्न भाव को समेटे सुन्दर कृतियां हैं। अंतिम लघु कविता जीवन दर्शन को समेटे सुन्दर अभिव्यक्ति है।

मुकेश बेनीवाल जी की लघु कविताएँ उनके आत्मविश्वास का परिचय देती हैं। हकीकत हूँ मैं, कोई कहानी नहीं...बहुत अच्छी रचना है।

संजीव द्विवेदी जी की कविता में सामाजिक विसंगतियों के प्रति क्षोभ परिलक्षित होता है साथ ही संवेदनशीलता है कि, हम कैसे पर्व मनाएं ।

प्रभात पुरोहित जी की कविता नव वर्ष के लिए है एवं डॉ.  विजय प्रकाश जी की कविताएँ सकारात्मक हैं।

सच झूठ में जब छिड़ी जंग है, खड़ा है कहाँ तू पता तो चले… ये गज़ल की पंक्तियाँ हैं जिसके रचयिता हैं जयवर्द्धन कांडपाल जय जी। उनकी दोनों गजलें बेहतरीन हैं।

ज्योति नाम देव जी की कविता, तू मानवी है-अखंडित, नारियों को उनकी शक्ति एवम सामर्थ्य का अहसास कराती सुन्दर प्रेरणात्मक सृजन है।

साइनी कृष्ण उनियाल जी की कविता, माँ का साया, व स्वाति शर्मा जी की कविता, कहाँ है तू रब्बा, सुन्दर रचनाएँ हैं।

अनमोल है तू माँ बोल मैं क्या दूँ...सन्ध्या झा जी की कविता ,माँ, की ये खूबसूरत पंक्ति है।

उपासना उनियाल जी की कविता, मोसुल की लड़कियाँ, बेहद मार्मिक रचना है। समाज के काले पक्ष को उजागर करती उनकी कविता मन को आहत करती है।

मेघा राठी जी की गजल अच्छी है।

भारती जोशी जी की कविता में सबको साथ मिलकर चलने की बात कही गयी है एवं प्रेरणादायी है।

खुशी रहेजा जी की कविता, जाने कौन थी वो, काव्य से भरपूर रचना है।

शशि काण्डपा जी की कविता में बाग की हर कली की रक्षा का संकल्प है ।

अनिता काला जी की रचना, सीता परित्याग, खण्ड काव्य की तरह है जिसमें सीता की व्यथा, लव कुश का जन्म और फिर सीता का पृथ्वी के गर्भ में समा जाने का वर्णन है। सुन्दर अभिव्यक्ति है।

शशि देवली जी की कविताएँ, मेंहदी ,और ,गठरी ,हैं। गठरी मन की है जो रुआँसी है, पर कागज कलम का साथ पाते ही खुल जाती है और मुस्कान  बिखेरती है।

नीलम्बरा के बाद के पृष्ठों पर आदरणीय रामेश्वर काम्बोज जी की प्रकाशित पुस्तकों की सूची है और उसके आगे मासिक पत्रिका उदंती के कुछ चित्र लगाए गए हैं।

सुन्दर संचयन और आतंरिक साज-सज्जा और संयोजन के लिए मैं हृदयतल से कविता भट्ट जी और  डॉ रत्ना वर्मा को बधाई प्रेषित करती हूँ तथा आगे के अंकों के लिए हार्दिक शुभकामनाएं देती हूँ।

ऋता शेखर मधु