सोमवार, 31 दिसंबर 2018

98-ओ कालखण्ड 2019!



डॉ.कविता भट्ट

अपनी गर्म उँगलियों से
तुम्हारी सर्द हथेली पर
चिरयौवना आस से
       नवजीवन का प्यार लिखूँगी  
कलम की अठखेलियों से
तुम्हारी कठिन पहेली पर
अनुभूति विश्वास से
           गुँथा  सर्वाधिकार लिखूँगी । 

प्रेम से सनी कलियों में
खाली दीवार अकेली पर
दिग्दर्शन उजास से
           प्रेमांकन र-बार लिखूँगी । 

बेघर हूँ माना, गलियों में
लेकिन खुशियों की ठेली पर
नव कालखंड प्रवास से
             रंगायन संचार लिखूँगी । 

हो ,न हो अपना, छलियों में
लेकिन गुड़ की भेली पर
रचनात्मक उपवास से
           अपनापन आभार लिखूँगी ।      
(चित्र ; गूगल से साभार)


सोमवार, 24 दिसंबर 2018

97




डॉ .कविता भट्ट
दिल को खूँटी पर लटका ,
दिमा खूब चला मोहरे।
जीने के लिए मिली थी,  
ज़िन्दग़ी शतरंज बन ग
दिन-रात,कभी शह ,कभी मात,
इस हाथ,कभी उस हाथ।
जिंदादिली को मिली थी,
जी नहीं सकी,रंज बन ग
-0- 



गुरुवार, 20 दिसंबर 2018

96-यदि तुम रहो प्रिय! साथ में


डॉ.कविता भट्ट
बादलों पर नित पग धरूँ
गगनपथ पर मैं डग भरूँ
यदि तुम रहो प्रिय! साथ में
चाँद का दर्पण निहारूँ
तप्त तन को मैं सँवारूँ
यदि तुम रहो प्रिय! साथ में

प्रकृति- सी उन्मुक्त नाचूँ
बासन्ती पृष्ठों को बाँचूँ
यदि तुम रहो प्रिय! साथ में
प्रश्नपत्र यह जीवन का
लिख दूँगी उत्तर मन का
यदि तुम रहो प्रिय! साथ में
 -0-

सोमवार, 3 दिसंबर 2018

95- मित्रता


ज्योति नामदेव

एक दिवस की बात,
चारों ओर संग्राम,
संग्राम में दोनों ओर की,
सेना निरंतर थी लड़ रही.
तभी मधुसूदन की उँगली  में चोट लगी,
बह निकली रक्त की धार,
द्रौपदी ने देखा तो,
हुई द्रवित ह्रदय- सार l

ना उधर देखा, ना इधर देखा,
झट फाड़ा अपना अंग वस्त्र,
एक टुकड़ा बस उस अम्बर का,
बाँधा उसने पूरे विश्व को l

देखा द्वारकाधीश ने
तो बोले.. हे सखी
यह क्या किया तुमने?
क्यों फाड़ा तुमने इस चीर को?
सखी परेशान न हो,
कुछ ना होगा इस वीर को l

द्रौपदी बोली.. शान्त रहिए मधुसूदन
जानती हूँ, आप हैं इस जगत् के जीवन,
लेकिन सामने बहती धार ये कैसे देखूँ
जो सबके जीवन के आधार
उसका ही रक्त बहे, ये कैसे देखूँ ?

छोड़ो सखी... चिंता करो अब,
बाँध लिया तुमने ऋण में मुझे अब,
समय साथ देगा तो बताना है ऐसा,.
कि मित्रता भाव होता है कैसा l

समय चक्र बड़ा,
काल का पहिया चला,
चौरस व्यूह मे शैतानी जंग,
हार गए सब कुछ कौरवों से, पांडव बस रह गए दंग l

भृकुटी तनी थी, दुर्योधन की
विनाश काले विपरीत बुद्धि,
अन्धकारमय सारा हस्तिनापुर,
अंतर्मन बिलख-बिलखकर रो रहा मन l

मौके का फायदा उठा,
केश पकड़ते खींचता दु:शासन,
द्रौपदी को धरती पर घिसटते चला,
हाय हाय ये क्या हो रहा,
इस धरती पर स्त्री का,
चीर हरण हो रहा l

हा हा हा!! हँसते कौरव,
इस भयानक कृत्य पर,
प्रसन्नचित्त होते कौरव,
लगा खींचने दु:शासन द्रौपदी की साड़ी
हाय हाय हस्तिनापुर आज
तुझे क्या लाज नहीं आई?

थी सभा सन्न,
सबके मुख थे सिले हुए,
क्या पांडव, क्या भीष्म,
क्या बड़े, क्या छोटे,
धरती में जैसे पग थे
ड़े हुए l

जैसे ही द्रौपदी ने कृष्ण का
ह्वान किया,
उसे द्रवित ह्रदय से पुकारा,
उनको तो आना ही पड़ा l

दु:शासन खींचता चला, खींचता चला, खींचता चला,
पर य क्या?
साड़ी है या अनंत आकाश
जो कभी खत्म  न हुआ l

धराशायी हुआ दु:शासन,
नीची दृष्टि गड़ा दुर्योधन,
आज सती को चले लूटने,
उनका ही टूटा अभिमान l

जिसकी रक्षा की सौगंध ली
थी पांडवों ने
उसकी रक्षा की निश्छल
मित्रता ने

मित्रता एक भाव
प्रेम का,
मित्रता नाम है
सुन्दर मन का l

प्रसंग नहीं
यह सत्य है
निर्लज्जों की हुई हार
ये शाश्वत सत्य है
-0-
सहायक अध्यापिका ,राजकीय प्राथमिक विद्यालय ,कर्णप्रयाग  चमोली ,उत्तराखंड