मंगलवार, 28 नवंबर 2017

डॉ०कविता भट्ट की ये बहुआयामी कविताएँ

काव्य ऐसा सृर्जन है जो लिखा नहीं जाता ,रचा जाता है। किसी के सृजनात्मक कार्य पर तब तक लिखना न्याय संगत नहीं, जब तक उस भावभूमि पर उतरकर अवगाहन न किया जाए। सितम्बर 1914 में डॉ कविता भट्ट जी की कविताएँ पढ़ने पर मुझे जैसा महसूस हुआ, वह किसी व्यक्ति से मिलने और पढ़ने जैसा ही था। एक बात मैं कई बार महसूस कर चुका हूँ कि अच्छा और ईमानदार रचनाकार अपनी रचना में बोलता है। जितना मैं समझ सका , वह आपके सामने प्रस्तुत है , जो उनकी पुस्तक ‘मन के कागज़’ की भूमिका के रूप में आया। [रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’]
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डॉ०कविता भट्ट की ये बहुआयामी कविताएँ
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

काव्य की यात्रा एक नदी जी तरह होती है , अपने उद्गम की क्षीण धारा से लेकर निरन्तर प्रवाह की ओर अग्रसर । कवि के अनुभवों के ताप से कभी कुछ पिघलता है , धार बनता है । धारा बनने वाली वह संवेदना मन की गहन भावधारा को साथ लेकर पथ में आए हर पहाड़ –घाटी , पथ की
व्यथा-कथा पूछती , उस व्यथा से पिघलती , द्रवीभूत होती अग्रसर होती है । कभी लगता है उसके मन की व्यथा भी कुछ कम नहीं। उसकी खुशियों के पल भी उससे रूठकर कहीं दूर चले गए हैं। पता नहीं कभी लौटेंगे या नहीं। दूसरे ही क्षण उसे साधारण और किसी वंचित एकाकी व्यक्ति का दु:ख सालने लगता है।
पेट की आग सबसे बड़ी आग है। दो जून की रोटी कमाने के लिए  बहुतों का घर-बार छूटता है , सगे –सम्बन्धी छूटते हैं, बूढ़े माता  तिल-तिलकर एकाकीपन की आग में झुलसते जाते हैं। डॉ० कविता भट्ट की कविताओं में यह सब मिलेगा-व्यष्टि से समष्टि तक की भाव-कल्पना और चिन्तन की यात्रा ।
इनकी कविता ‘बूढ़ा पहाड़ी घर’केवल घर ही नहीं है , बल्कि घर छोड़कर जाने वालों की एक-एक गतिविधि का साक्षी रहा है। उसकी पुकार किसी दीवारों वाले मकान की पुकार नहीं है। यह उस घर की पुकार है, जिसके साथ उसमें रहने वाले हर व्यक्ति की मुस्कान और पीड़ा का बसेरा रहा है । यह घर उन सब क्षणों का साक्षी रहा है। वह घर कंक्रीट-अरण्यों ( शहर) में जाकर बसने वालों को कहता है-
तुम्हारे पिता को मैं अतिशय था प्यारा,
उन्होंने उम्र भर मेरी छत-आँगन को सँवारा।
चार पत्थर चिने थे, लगा मिट्टी और कंकर,
लीपा था मेरी चार दीवारों पर मिट्टी-गोबर।
उन्होंने तराशे थे जो चैखट और लकड़ी के दर,
लगी उनमें दीमक हुए जीर्ण-शीर्ण और जर्जर।
तुम्हें बुला रहा, मैं, तुम्हारा, बूढ़ा पहाड़ी घर,
पहाड़ी घर के सामने एक समस्या है, जिसका दूर-दूर तक कोई समाधान नहीं है। वह शहरों की ओर हो रहे इस पलायन को कैसे रोके ?आजीविका के कारण न चाहकर भी घर छोड़ना पड़ता है
अभी भी मैं हर घड़ी-पल यही सोचता हूँ,
अभी भी मैं रोता हूँ और समय को कोसता हूँ।
क्या अब मैं मात्र भूखापन ही परोस सकता हूँ?
या वह रोटी का टुकड़ा तुम्हे मैं पुनः दे सकता हूँ?
बूढ़े पहाड़ी घर की एक उत्कट इच्छा है, जिसके लिए वह तरसकर रह जाता है-
और तुम मुझको देना वही बचपन का आभास भर।
अपनी संतानों के बचपन में जाना ढल,
और दे देना मुझे बचपन का वह प्रेम निश्छल।
निरन्तर पर्यावरण के विनाश के पाप ने हमारे सन्ताप को बढ़ा दिया है । इसका कारण है प्रकृति का क्रूरतापूर्वक दोहन । हमारी लोभवृत्ति का दुष्परिणाम हमारे सामने है-वृक्षों के क़त्ले आम के रूप में। कविता ने ‘कितने दिन बच पाएगा?’ में लाचार बूढे़ वृक्ष की मर्मान्तक पीड़ा को इस प्रकार चित्रित किया है-
जला डाले हमारे संग कुछ घोंसले,
और कुछ चहकते मचलते घरौंदे।
फिर रहे-अब वे पशु बिदकते,
भय से- लाचार और सिहरते।
पर्यावरण के विनाश की गूँ ज ‘जटिल प्रश्न पर्वतवासी का’और ‘जलते प्रश्न’कविताओं  में  उभरकर आई है। अति दोहन के कारण उत्तराखण्ड में आई आपदा का कटु सत्य विश्लेषित किया गया है। अन्धी आस्था प्राकृतिक कोप को शान्त नहीं कर सकती-
पुष्प-मालाओं के ढोंगी अभिनन्दन,
असीम अभिलाषाओं के झूठे चन्दन।
न मुग्ध कर सके शिव-शक्ति को,
तरंगिणी बहाती आडंबर-भक्ति को।
जलते प्रश्न में कठोर शब्दों में भर्त्सना करते हुए कविता भट्ट कहती हैं-
कितनी भूख-कितनी प्यास है,
जो कभी भी मिटती ही नहीं।
कितनी छल-कपट की दीवारें,
जो आपदाओं से भी ढहती नहीं।
सरकारी –तन्त्र नितान्त संवेदना-शून्य है। वह आपदा से भी कुछ नहीं सीखता । उसका कर्त्तव्य  केवल कागजी काम तक सीमित है-
पेट अपना और कागजों का भरने वाले,
कहते काम हमने सब कुछ कर डाले।
सत्ता पाकर लोग उस आम आदमी को भूल जाते हैं, जिसके कन्धों पर सवार होकर वे सता का सिंहासन प्राप्त करते हैं।‘एक रिक्शावाला ‘जो भोर की करवट से ही जग जाता है , पाँच रुपये में भोजन की थाली तो नहीं पा सका; कोहरे की चादर का क़फ़न ओढ़कर लेट गया ।
‘द्रौपदी बना लोकतन्त्र’में सत्ता की क्रूरता के प्रति कवयित्री का आक्रोश इस प्रकार प्रकट होता है –
सिंहासन की बीमारी हो चुकी।
क्या कोई कृष्ण अवतरित होगा,
चीरहरण की तैयारी हो चुकी।
यह चीरहरण है भोलीभाली जनता का ,उसके लोकतान्त्रिक विश्वास का ।
‘वो धोती-पगड़ी वाला’में दो निवालों के लिए रात-दिन पसीना बहाने वाले मज़दूर की व्यथा-कथा है । सुख से अघाए नियन्ता उसकी पीड़ा नहीं समझ सकते-
वातानुकूलन में मदभरे प्यालों को  पीने वाले
मोल मेरे श्रम का क्या जानो,
तुम महलों में जीने वाले।
‘दूर पहाड़ी गाँव में’मौन की चीख को सुना है । असहाय बूढ़े , जिनका कोई सहारा नहीं , सन्नाटा और काट खाने वाला एकान्त ही उनके होने की गवाही देता है ।जवानी तो बसों में लदकर शहर चली गई । सहानुभूति के दो बोल बोलने वाला कोई पास है ही नहीं। यह हालत आज हर गाँव की होती जा रही है-
दूर पहाड़ी गाँव में जब साँझ ढलती है।
नौनिहाल हंसी बीते दिनों की बातें,
बूढ़े तन, पूस, करवट बदलती रातें।
बस मुठ्ठी भर राख है बुझे चूल्हे में,
तन में थमती हुई चन्द लम्बी साँसें।
झेंपती-एक धीमी चिंगारी धुआँ उगलती है,
‘भूखा शिशु हिमाला’और ‘पसीना काले रंग का’कविता भी उस लघु मानव की पीड़ा,असमर्थता की साक्षी हैं जो सब अभावों का पर्याय बन गया है ।
यह युवा कवयित्री अपने सामाजिक सरोकारों के प्रति पूर्णतया जागरूक है। वह हर पीड़ित वंचित , शोषित के साथ खड़ी नज़र आती है । कवि का अपना भी संसार होता है। अभाव की दुखती रग होती है । अप्राप्य को पाने की छटपटाहाट होती है। जो छूट गया उसे पकड़ पाने की आशा बनी रहती है। प्रिय को अपने पास महसूस करना कोई कमज़ोरी नहीं, बल्कि जीवन का सौन्दर्य है । प्रिय के पास होने पर अभाव –भरे दिन भी वासन्ती हो जाते हैं।‘प्रिय! यदि तुम पास होते!’ कविता में वही अनुराग खिलने की कल्पना अनुस्यूत है-
पतझड़ भी सुवासित मधुमास होते,
प्रिय! यदि तुम पास होते!
झर-झर प्रेम बरखा बरसती,
बूँद-बूँद न कोंपलें तरसती,
कुछ तितलियाँ-चन्द भ्रमर,
रंग-स्वर लहरियों के सहवास होते
‘प्यासा पथिक’में यही प्रतीक्षा सिसकियों में बदलने को विवश होती है-
मीलों के पत्थर गिनते हुए बीते पहर,
आँखें अब तक भी सोई नहीं।
एक भी धड़कन ऐसी नहीं जो,
स्मृतियों में तेरी कभी खोई नहीं ।
पल-पल गूंथ रही सिसकियाँ आँखें,
परन्तु पलकें मैंने अभी भिगोई नहीं।
जीवन की कहानी कटु होती गई,
‘मन के रंगीन कागज पर’में एक दर्द छिपा है-
उठ कर चले गये साथी।
अब क्या चाह बहारों की?
‘तुम और मैं’में प्रेम की प्रगाढ़ता लिये प्यासा पथिक है तो दूसरी ओर सुरभित स्वप्नों की शृंखला लिये निर्जन नीलांचल की नदी की आत्मीयता मर्मस्पर्शी है-
निर्जन नीलांचल की नदी मैं
तुम प्यासे पथिक प्रेम प्रगाढ़ लिये।
मैं सुरभित स्वप्नों की स्वर्ण शृंखला
तुम प्रहर प्रशान्त पुण्य प्रकाश लिये।
‘नीरवता के स्पंदन’ में कवयित्री ने बीते हुए मधुर क्षणों को समेटने का प्रयास किया है-
साँझ के आकाश पर कुछ बादल विभा के घनेरे -से,
स्मृतियों में प्रणय-क्षण कुछ उस साथी के- मेरे-से।
प्रिय का पास होना सब सुखों का संसार है । साथ-साथ बिताए वे पल स्मृतियों में सुगन्ध भरते रहते हैं । कविता भट्ट की ‘प्रिय जब तुम पास थे!’की ये पंक्तियाँ माधुर्य-भाव से सिंचित हैं-
प्रिय जब तुम पास थे।
उष्ण अधर स्पर्श को व्याकुल,
किन्तु नैनों में कुछ संकोच-चपल!
वे पल बीत गए और एक प्रश्न अपने पीछे छोड़ गए-
क्या होगा क्या पुनर्मिलन
अब नित्यप्रति है यही प्रश्न
‘मेरे टूटे मकान में’की कविता गाँव की सोंधी खुशबू को समेटे है। मकान भले ही टूटा हो ,पर मन में अजस्र प्रेम का सोता बहता है।सुख-सुविधाएँ कम भले हों ;लेकिन चैन की नींद है। भी भी प्रिय के आने की आशा है-
क्या मेरे टूटे मकान में वो फिर से आएँगे,
जिनके आते ही मेरे सपने रंगीन हो जाएँगे।
चाहकर भी उनको भुलाया न जा सका। उनकी यादें आज भी रह-रहकर रुला जाती हैं।
मैंने सोचा अब मैंने उनको भुला दिया,
पर उसकी यादों ने मुझको रुला दिया।
अब सोचती हूँ यही रह-रह कर कि क्या?
मेरे टूटे मकान में वो फिर से आएँगे?
‘अंतिम कामना’में उस प्रिय की स्मृतियाँ घनीभूत हो उठीं, जिन्होंने रास्ते के कंकर चुन डाले । उनके लिए यह कामना कितनी पावन कितनी निष्पाप है !
अंतिम संध्या जीवन की जब होवे,
और शेष नहीं होगा कोई भी प्रहर।
अंतस में पवित्र कामना ये ही रहेगी-
संग तुम्हारा, स्पर्श तुम्हारा अधर पर !
‘मेरे आलाप’ का एकनिष्ठ प्रेम बहुत कुछ कह जाता है। हर व्यक्ति की कुछ सीमाएँ होती हैं ; जो उसे बाँध देती हैं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि उसने अपने प्रिय की उपेक्षा कर दी है।आशा का दामन थामे इस तरह की बात कोई पावन मन वाला ही कह सकता है-
सम्भवतः विवशता कभी तो टूटेगी,
पल-पल की अनिश्चतता छूटेगी।
तब तुम पूर्ण मेरे ही होओगे,
जब मेरे आलापों में खोओगे।
‘तुम्हारी प्रतीक्षा में’ जहाँ खुशियाँ खोखली हों और उनींदी आँखें ‘रुदाली हो जाएँ’,तो किसका दिल नहीं भीग उठेगा ! कवयित्री की यह आकांक्षा हर सहृदय पाठक को छू जाएगी-
अब तो चले आओं ,ताकि साँसों में गर्मी रहे
मेरे होंठों पर मदभरी लालिमा की नर्मी रहे
चाहो तो दे दो चन्द उष्ण पलों का आलिंगन
बर्फीली पहाड़ी हवाओं से सिहरता तन-मन
जीवन है ,तो सुख-दु:ख आते जाते रहेंगे ।‘इस आशा में’कविता में सन्देश निहित है कि आशा और विश्वास सदा परछाई की तरह साथ रहेंगे ।
हर बार तुषारापात हुआ नयी पंखुडि़यों पर
फिर भी डाली है कि माली को निहारे जाती है।
आज होगा नहीं तो कल होगा,
कविता के फटे आँचल में भी मखमल होगा,
डॉ कविता भट्ट की ये बहुआयामी कविताएँ  सहृदय पाठक गुनगुनाए के लिए विवश हो उठेंगे ।मेरा पूर्ण विश्वास है कि डॉ ०कविता भट्ट की काव्य यात्रा उत्तरोत्तर अग्रसर होती जाएगी । कोटिश शुभकामनाएँ !
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
26 सितम्बर , 2014
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डॉ०कविता भट्ट के काव्यसे सम्बन्धितइस लेख को इस लिंक पर भी पढ़ा जा सकता है-

रविवार, 26 नवंबर 2017

सशक्त लघुकथाएँ

डॉ.कविता भट्ट

   लघुकथा मात्र मनोरंजन की साहित्यिक विधा नहीं, अपितु सशक्त सामाजिक सन्देश के धागे में गूँथी हुईसमाज के रंग-बिरंगे मनकों से युक्त माला कही जा सकती है; जो आत्मरंजन का श्रेष्ठ माध्यम भी है। आजकल साहित्य की अनेक विधाएँ पाठकों के समय तथा पढ़ने की आदत की कमी के कारण निरंतर मुख्य धारा से विलुप्त होती जा रही हैं। वर्तमान परिस्थितियों में लघुकथा अत्यधिक उपयोगी विधा इसलिए है; क्योंकि यह सीमित शब्दों में अत्यंत संवेदनशील एवं सारगर्भित तथ्यों को रोचक एवं सरल ढंग
से प्रस्तुत करने का सशक्त माध्यम है। आधुनिक तीव्रगामी वातावरण में कम समय होते हुए भी पाठक लघुकथा के माध्यम से आत्मरंजन के साथ ही अत्यंत प्रासंगिक एवं समकालीन विषयों को समझ सकता है।लघुकथा मात्र मनोरंजन की साहित्यिक विधा नहीं, अपितु सशक्त सामाजिक सन्देश के धागे में गूँथी हुई 
समाज के रंग-बिरंगे मनकों से युक्त माला कही जा सकती है; जो आत्मरंजन का श्रेष्ठ माध्यम भी है। आजकल साहित्य की अनेक विधाएँ पाठकों के समय तथा पढ़ने की आदत की कमी के कारण निरंतर मुख्य धारा से विलुप्त होती जा रही हैं। वर्तमान परिस्थितियों में लघुकथा अत्यधिक उपयोगी विधा इसलिए है; क्योंकि यह सीमित शब्दों में अत्यंत संवेदनशील एवं सारगर्भित तथ्यों को रोचक एवं सरल ढंग से प्रस्तुत करने का सशक्त माध्यम है। आधुनिक तीव्रगामी वातावरण में कम समय होते हुए भी पाठक लघुकथा के माध्यम से आत्मरंजन के साथ ही अत्यंत प्रासंगिक एवं समकालीन विषयों को समझ सकता है।
वस्तुतः लघुकथा केवल विषयों को प्रस्तुत ही नहीं करती ;अपितु अपने आप में इतनी परिपूर्ण होती है; कि यदि पाठक संवेदनशील है ,तो छोटी सी विषयवस्तु में ही गंभीर से गंभीर समस्याओं का समाधान भी खोज लेता है। लघुकथा किसी भी विषयवस्तु पर हो; इतना निश्चित है कि यह विषय का गंभीर दार्शनिक चिंतन प्रस्तुत करती है। सौभाग्य से मुझे इस विधा में अनेक विषयवस्तुओं पर पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। अनेक लघुकथाएँ ऐसी हैं कि अपनी अंतिम पंक्ति तक आते-आते एक ज्वलंत समस्या के प्रति विचारों के साथ ही मन में आक्रोश भी स्फुरित कर गईं।
ऐसी ही एक लघुकथा है- श्री रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की ‘धर्म-निरपेक्ष’। यह लघुकथा कुतूहल एवं रोमांच से प्रारंभ होकर एक ज्वलंत एवं चिंतनीय समकालीन मुद्दे पर जाकर समाप्त होती है। मुद्दा ऐसा की जिस पर अनेकानेक ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं। यह लघुकथा मन और मष्तिष्क दोनों को छूने के साथ ही गहरे से पैठ भी बना गयी। तटस्थ दृष्टिकोण अपनाते हुए; कथा की जितनी भी प्रशंशा की जाय कम ही है।
प्राचीन समय से धर्म मानव समाज हेतु दिग्दर्शन का हेतु एवं जीवन पद्धति के रूप में प्रतिष्ठित था; आधुनिक युग में वही मानव समाज की सबसे बड़ी त्रासदी का हेतु बन गया है।  भारतवर्ष की स्थिति इस पक्ष पर चिंताजनक इसलिए है; क्योंकि धर्म, जाति एवं संप्रदाय के नाम पर बनता हुआ यहाँ का समाज धर्मनिरपेक्षता की बात सिद्धांतत: मानते हुए भी व्यवहारिक धरातल पर अभी भी व्यर्थ के रक्तपात एवं राजनीतिक संघर्ष में ही उलझा हुआ है। इस कारण यहाँ का समाज वास्तविक उत्त्थान पर केन्द्रित नहीं हो पता। इसी धार्मिक एवं सम्प्रदायगत रक्तपात को आधार बनाकर  श्री काम्बोज की यह मार्मिक एवं सारगर्भित लघुकथा मानव समाज का धर्मान्धता वाला पक्ष प्रस्तुत करने के साथ ही अंतत: एक गहन शिक्षा भी प्रस्तुत करती है। कथाकार अपनी बात को कहने में पूर्ण से भी आगे निकल आये; क्योकि धर्म कौतूहल अंत में मानव के धार्मिक रक्तपात वाले कृत्य पर घृणा में परिवर्तित हो जाता है। जब धर्म के नाम पर लड़ते हुए दो आक्रामक व्यक्तियों के चाकू से हुए संघर्ष में दोनों सड़क पर लुढ़क जाते हैं तथा एक कुत्ता ,जो हड्डी को चबा रहा है; हड्डी छोड़ कर जब मांस की लालसा में उन व्यक्तियों को नोंचने के लिए आगे बढ़ता है; उन्हेंहे गोश्त के रूप में नोंचने के स्थान पर वह कुत्ता उनके उपर मूत्र विसर्जन कर देता है। इस प्रकार लेखक बहुत कम शब्दों में बड़ी पटुता के साथ पाठक को यथोचित सन्देश देने में शत- प्रतिशत सफल रहे हैं। साथ ही निश्चित रूप से ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक मात्र सिद्धांत में ही नहीं व्यवहार में भी मानवतावादी संवेदनशील हृदय रखते हैं; क्योंकि व्यक्ति साहित्यकार होने के साथ ही जब एक अच्छा दृष्टिकोण रखता हो और एक अच्छा व्यक्ति हो तभी वह ऐसी रचना को लिपिबद्ध कर सकता है अन्यथा नहीं।
धर्म में नाम पर लड़ने वाले लोग पशु से भी तुच्छ हैं; ऐसा सन्देश देने में लेखक पूर्णत: सफल रहे हैं। अंत में लेखक की इस कथा के सम्बन्ध में जो सन्देश प्रस्तुत होता है वह उपनिषद दर्शन के उस श्लोक से सम्बन्ध रखता है जिसमें कहा गया-
अयं निज: परोवेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।
अर्थात ये तेरा है, ये मेरा है; ऐसी गणना संकुचित मानसिकता के लोग करते है; उदार चरित्र वाले लोग तो सम्पूर्ण विश्व को कुटुंब के समान समझते है। यद्यपि इस प्रकार के विचारों से प्राचीन भारतीय वांग्मय संपन्न है; तथापि वर्तमान परिस्थितियों में यह विचार थोड़ा कमजोर पड़ गया है। इस दृष्टि से ‘धर्म निरपेक्ष’ शीर्षक से यह लघुकथा अत्यंत प्रभावी एवं समकालीन परिदृश्य में प्रासंगिक भी है; क्योंकि धर्म के नाम पर होने वाले रक्तपात को जब तक नहीं रोका जायेगा; मानव समाज का वास्तविक उत्थान संभव नहीं है।
लघुकथाओं की इस शृंखला में मेरी पसंद की अनेक और भी रचनाएँ हैं, किन्तु समकालीन स्थितियों को चित्रित करती श्री सुकेश साहनी की कसौटी लघुकथा मुझे अत्यधिक प्रभावित करती है; यह रचना आधुनिक समाज में नारी जीवन की विसंगतियों को चित्रित करती है। एक और महिला अंतरिक्ष यात्री बनकर ब्रहमांड में रहस्यों को उद्घाटित करने में पुरुषों से किसी भी तरह पीछे नहीं दूसरी ओर भारतीय सन्दर्भ में बात की जाए, तो वह संस्कारों में जकड़े हुए समाज का भी निर्वहन करती है। अंतर्द्वंद्वो में घिरा उसके जीवन के अनेक पक्षों को प्रस्तुत करने में लेखक पूर्णत: सफल रहे हैं। वैश्विक विकास के दौर में बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी की इच्छा रखने वाली महिला से कंपनी की अपेक्षाओं एवं भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के मापदंडों में निरंतर उलझा हुआ महिला समाज कैसे मानसिक संघर्ष से हर दिन दो-चार होता है इस कथा के माध्यम से लेखक ने यही चित्रित करने का प्रयास किया है; जिसमे वे सफल हुए।
एक पुरुष साहित्यकार महिलाओं के मनोभावों एवं समस्याओं का ऐसा यथोचित चित्रण कर पाए; यह वास्तव में उल्लेखनीय है। इस प्रकार लेखक अपने लक्ष्य में पूर्णत: सफल हुए हैं।
कहना प्रासंगिक है कि यद्यपि भारतीय महिला शैक्षिक दृष्टि से कितनी भी सुयोग्य क्यों न हो; किन्तु वर्तमान परिस्थितियों में; यदि वह अपने संस्कृति को दरकिनार नहीं करती और तथाकथित आधुनिकीकरण की अंधी दौड़ में शामिल नहीं होती ,तो वह अपनी योग्यता के अनुरूप नौकरी प्राप्त नहीं कर सकती। यदि नौकरी के हिसाब से स्वयं को ढालती है तो तथाकथित संस्कारों को खो बैठती है; और यदि संस्कारों के अनुसार चलती है ,तो वह आधुनिक युग की प्रतिस्पर्धाओं में पीछे छूट जाती है। इन्ही अंतर्द्वंदों से जूझती भारतीय महिला की अनेक क्षमताएँ तो स्वयं के मानसिक द्वंद्व एवं सामाजिक मापदंडों से जूझने में ही व्यर्थ हो जाती हैं।
लेखक अपने सन्देश को पाठक तक पहुचाने और एक नए ढंग से विचार स्फुरित करने के प्रयोग में खरे उतरते हैं। इस प्रकार के लेखन में नैरन्तर्य आवश्यक है।
1-धर्म–निरपेक्ष
रामेश्वर काम्बोज हिंमाशु
शहर में दंगा हो गया था। घर जलाए जा रहे थे। छोटे बच्चों को भाले की नोकों पर उछाला जा रहा था। वे दोनों चौराहे पर निकल आए। आज से पहले उन्होंने एक–दूसरे को देखा न था। उनकी आँखों में खून उतर आया। उनके धर्म अलग–अलग थे।
प्हले ने दूसरे को माँ की गाली दी, दूसरे ने पहले को बहिन की गाली देकर धमकाया। दोनों ने अपने–अपने छुरे निकाल लिये। हड्डी को चिचोड़ता पास में खड़ा हुआ कुत्ता गुर्रा उठा। वे दोनों एक–दूसरे को जान से मारने की धमकी दे रहे थे। हड्डी छोड़कर कुत्ता उनकी ओर देखने लगा।
उन्होंने हाथ तौलकर एक–दूसरे पर छुरे का वार किया। दोनों छटपटाकर चौराहे के बीच में गिर पड़े। ज़मीन खून से भीग गई।
कुत्ते ने पास आकर दोनों को सूँघा। कान फड़फड़ाए। बारी–बारी से दोनों के ऊपर पेशाब किया और सूखी हड्डी चबाने में लग गया।
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2-कसौटी
सुकेश साहनी
खुशी के मारे उसके पाँव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। साइबर कैफे से बाहर आते ही उसने घर का नम्बर मिलाया।
‘‘पापा!...’’ उससे बोला नहीं गया।
‘‘हमारी बेटी ने किला फतेह कर लिया! है न?’’
‘‘हाँ, पापा!’’ वह चहकी, ‘‘मैंने मुख्य परीक्षा पास कर ली है। मेरिट में दूसरे नम्बर पर हूँ !’’
‘‘शाबाश! मुझे पता था... हमारी बेटी है ही लाखों में एक!’’
‘‘पापा, पंद्रह मिनट के ब्रेक के बाद एक माइनर पर्सनॉलिटी टेस्ट और होना है। उसके फौरन बाद हमें अपाइंटमेंट लेटर दे दिए जाएँगे। मम्मी को फोन देना...’’
‘‘इस टेस्ट में भी हमारी बेटी अव्वल रहेगी। तुम्हारी मम्मी सब्जी लेने गई है। आते ही बात कराता हूँ। आल द बेस्ट, बेटा!’’
उसकी आँखें भर आईं। पापा की छोटी–सी नौकरी थी, लेकिन उन्होंने बैंक से कर्जा लेकर अपनी दोनों बेटियों को उच्च शिक्षा दिलवाई थी। मम्मी–पापा की आँखों में तैरते सपनों को हकीकत में बदलने का अवसर आ गया था। बहुराष्ट्रीय कम्पनी में एग्ज़ीकयूटिव आफिसर के लिए उसने आवेदन किया था। आज आनलाइन परीक्षा उसने मेरिट में पोजीशन के साथ पास कर ली थी।
दूसरे टेस्ट का समय हो रहा था। उसने कैफे में प्रवेश किया। कम्प्यूटर में रजिस्ट्रेशन नम्बर फीड करते ही जो पेज खुला, उसमें सबसे ऊपर नीले रंग में लिखा था–‘‘वेलकम–मिस सुनन्दा!’’ नीचे प्रश्न दिए हुए थे, जिनके आगे अंकित ‘यस’ अथवा ‘नो’ को उसे ‘टिक’ करना था...
विवाहित हैं? इससे पहले कहीं नौकरी की है? बॉस के साथ एक सप्ताह से अधिक घर से बाहर रही हैं? बॉस के मित्रों को ‘ड्रिंक’ सर्व किया है? एक से अधिक मेल फ़्रेंड्स के साथ डेटिंग पर गई हैं? किसी सीनियर फ़्रेंड के साथ अपना बैडरूम शेअर किया है? पब्लिक प्लेस में अपने फ़्रेंड को ‘किस’ किया है? नेट स‍र्फ़िंग करती हैं? पार्न साइटस् देखती हैं? चैटिंग करती हैं? एडल्ट हॉट रूम्स में जाती हैं? साइबर फ़्रेंड्स के साथ अपनी सीक्रेट फाइल्स शेअर करती हैं? चैटिंग के दौरान किसी फ़्रेंड के कहने पर खुद को वेब कैमरे के सामने एक्सपोज़ किया है?.....
सवालों के जवाब देते हुए उसके कान गर्म हो गए और चेहरा तमतमाने लगा। कैसे ऊटपटांग और वाहियात सवाल पूछ रहे हैं? अगले ही क्षण उसने खुद को समझाया–बहुराष्ट्रीय कम्पनी है, विश्व के सभी देशों की सभ्यता एवं संस्कृति को ध्यान में रखकर क्वेश्चन फ़्रेम किए गए होंगे।
सभी प्रश्नों के जवाब ‘टिक’ कर उसने पेज को रिजल्ट के लिए ‘सबमिट’ कर दिया। कुछ ही क्षणों बाद स्क्रीन पर रिजल्ट देखकर उसके पैरों के नीचे से जमीन निकल गई। सारी खुशी काफूर हो गई। ऐसा कैसे हो सकता है? पिछले पेज पर जाकर उसने सभी जवाब चेक किए, फिर ‘सबमिट’ किया। स्क्रीन पर लाल रंग में चमक रहे बड़े–बड़े शब्द उसे मुँह चिढ़ा रहे थे– ‘सॉरी सुनन्दा! यू हैव नॉट क्वालिफाइड। यू आर नाइंटी फाइव परसेंट प्युअर (pure)। वी रिक्वाअर एटलीस्ट फोर्टी परसेंट नॉटी (naughty )।’
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साहित्यकारों का सम्मान

  1-समाचार पढ़ने के लिए नीचे दी गई पंक्ति को क्लिक कीजिए-

किन्नरों की असीम पीड़ा: किन्नर कथा

किन्नरों की असीम पीड़ा: किन्नर कथा - डॉ.कविता भट्ट

अनेक साहित्यिक संस्थानों के संरक्षक, संस्थापक तथा विविध पुरस्कारों से सम्मानित उत्कृष्ट उपन्यासकर-कथाकार विधिवेत्ता श्री महेंद्र भीष्म द्वारा लिखित लोकप्रिय उपन्यास ‘किन्नर कथा’ पढने का
सुअवसर प्राप्त हुआ। पढ़ने के पश्चात् उसकी मुख्य विषय वस्तु मन में गहनता से अंकित हो गई। ऐसा प्रतीत होता है की संवेदनशील लेखक ने किन्नरों की विविध पीड़ाओं को अत्यंत निकट से दृष्टिगत करके तथा अध्ययन के उपरांत शब्द चित्र खींच दिए हों। परिणामतः यह उपन्यास पाठक के मन किन्नरों की असीम पीड़ा को अनुभव करते हुए झकझोर कर रख देने की क्षमता रखता है। वस्तुतः लेखक उपन्यास के प्रारंभ से अंत तक पाठक को भावों की सरिता में विप्लावित करने की क्षमता के परिपूर्ण हैं। इस क्षमता के साथ ही वे किन्नरों की समस्याओं को भी अद्भुत शब्द-चितेरे के रूप में चित्रित करते चले जाते हैं।

‘पुरुषों वाव सुकृतं’ अर्थात् मनुष्य योनि परमात्मा या प्रकृति की सर्वोत्तम रचना है। शेष सभी भोग योनियाँ हैं; मात्र मानव देह में ही जीव प्रारब्ध कर्मों को भोगते हुए; भविष्यकालीन जन्मों को सुधारने की क्षमता रखता है; परन्तु सुन्दरतम रचना तब ही कही जाएगी; जब वह पूर्ण हो। जबकि ईश्वर की अपूर्ण रचना अर्थात् किन्नर या हिजड़ा क्या ईश्वर की सर्जनक्षमता पर प्रश्न नहीं उठाता?

उपर्युक्त प्रश्नों के ही समान न जाने कितने प्रश्नों से पाठक की बुद्धि का उद्दीपन करते हुए लेखक किन्नर समाज की अनेक ज्वलंत समस्याओं का चित्रण करते हुए सम्बन्धित समाधान भी प्रस्तुत करते चले जाते हैं। मैं ऐसा मानती हूँ कि यदि दार्शनिक दृष्टि से विचार करें ,तो सामान्य रूप से मानव की व्यथाएँ तद्जनित हैं, या यह कहा जा सकता है कि इनमे से अधिकांश व्यथाओं के केंद्र में भोगवाद और असंतुष्टि है। कारण है- असीम इच्छाएँ; किन्तु मानव जाति का एक वर्ग ऐसा भी है जिसकी पीडाएँ तद्जनित नहीं, अपितु किसी क्रूर परिहास का परिणाम है। क्रूर परिहास कर्त्ता को प्रकृति या ईश्वर आदि; जिस किसी संज्ञा से अभिहित किया जाय; किन्तु भोक्ता एक ही है; और वह है किन्नर शरीरधारी। किन्नर जिन्हें थर्ड जेंडर और जनसामान्य में हिजड़ा कहकर सम्बोधित किया जाता है। मानव समाज तथाकथिक चरम विकास के युग में प्रवेश करके स्वयं को गौरवान्वित अनुभव कर रहा है, किन्तु समाज का किन्नर वर्ग अभी भी इस मुख्यधारा से नहीं जुड़ सका है, कारण अनेक हैं, किन्तु मूल कारण हैं जनसामान्य की इस वर्गविशेष के प्रति हेय मानसिक अवधारणा। इस अवधारणा का चित्रण लेखक ने विषय के मूल में रखे गए एक चरित्र सोना उर्फ़ चंदा के माध्यम से किया है; जो अत्यंत सुन्दर है और मात्र उसकी कंठध्वनि ही उसके किन्नर होने को प्रमाणित करती है; अन्यथा वह कहीं से भी किन्नर प्रतीत नहीं होती। सोना की किन्नर देह के कारण राजघराने में जन्म लेने के उपरांत भी वह बहुत ही हेय जीवन जीने को विवश होती है। वस्तुतः जन्म के समय इसका नाम सोना रखा गया था और इसकी एक और जुड़वाँ बहिन भी थी। सोना के पिता ने लोकलाज के कारण उसकी हत्या का कार्य अपने दीवान को सौंप दिया; किन्तु उसने दया-विभोर होकर सोना को तारा नामक किन्नर गुरु को सौंप दिया। इसके उपरांत सोना का नाम चंदा रख दिया जाता है। वही चंदा संयोगवश पंद्रह वर्ष के पश्चात् अपनी जुड़वाँ बहिन के विवाह में पहुँचती है।

कथानक में यदि भाव पक्ष की बात की जाय तो अधूरी देह होने की पीड़ा, सामाजिक उपेक्षा, पारम्परिक एवं पारस्परिक संघर्ष, अवसाद तथा विद्वेष आदि जैसे नकारात्मक भावों को दर्शाते हुए लेखक किन्नर समाज की पीड़ा को चित्रित करने में उत्कृष्ट लेखनी का परिचय देते हैं। केवल नकारात्मक ही नहीं सकारात्मक दृष्टि से भी लेखक किन्नर मन के भावो को चित्रित करने में सफल रहे हैं। वे चंदा के जीवन में आये प्रतिष्ठित परिवार के एक पुरुष मनीष के माध्यम से प्लुटोनिक लव या आध्यात्मिक प्रेम को भावों की पराकाष्ठा तक चित्रित करते हैं। प्रेम के विविध पक्षों यथा- हर्ष, रोमांच, विह्वलता, करुणा, आदर्श, समर्पण तथा व्यक्तिगत एवं सामाजिक उथल-पुथल आदि को बड़ी ही सुन्दरता के साथ प्रस्तुत किया है।

कला पक्ष की दृष्टि से उपन्यास की भाषा शैली, रूपरेखा एवं विषय-वस्तु की बात की जाय तो अधिकांशतः तत्सम शब्दों से सुसज्जित और प्रवाह से युक्त है। रूपरेखा सुनियोजित एवं सुसंगठित है। विषय-वस्तु प्रासंगिक एवं ज्वलंत मुद्दों से युक्त है और बारम्बार पढ़ने की रुचि जगाता है। समाज में किन्नरों की स्थिति को सुधारने के लिए यह प्रकाश स्तम्भ का कार्य करेगा और साहित्यिक सुधिजनो के मध्य साहित्यिक-बौद्धिक अभिरुचि उत्पन्न करने वाला मील का पत्थर सिद्ध होगा।

साररूप में कहा जाय तो यह उपन्यास पढ़ना साहित्यिक रसास्वादन के साथ ही एक अनूठा सामाजिक शिलालेख भी प्रस्तुत करता है। इसे पढ़ना अत्यंत उत्तम अनुभव सिद्ध होता है।

किन्नर कथा (उपन्यास) : महेंद्र भीष्म, पृष्ठ- 192, मूल्य रु०150, ISBN 978-93-80458-29-8, प्रथम संस्करण 2014, प्रकाशक- सामयिक बुक्स, 3320-21, जटवाडा, दरियागंज, एन.एस.मार्ग नयी दिल्ली- 110002

-0--हे न ब गढ़वाल विश्वविद्यालय , श्रीनगर गढ़वाल,उत्तराखंड

सूर्य-चन्द्रमा

सूर्य - पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कीजिए- 

सूर्य   

                                                                                   चन्द्रमा- चन्द्रमा के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कीजिए- 

 चन्द्रमा

प्रगति-पथ-


प्रबुद्ध साहित्यकार मित्रो , आप सभी की शुभकामनाओं के फलस्वरूप मुझे हिन्दी साहित्य की प्रतिष्ठित पत्रिका "साहित्य ऋचा" की उत्तराखण्ड प्रान्त की स्थानीय सम्पादिका मनोनीत किया गया है। मैं पत्रिका के प्रधान सम्पादक आदरणीय डॉ0 अशोक मधुप जी, स्वामिनी एवं प्रबंध सम्पादिका आदरणीया श्रीमती प्रियंवदा राय जी एवं संपादक आदरणीय डॉ0 अरुण सागर जी का हार्दिक आभार ज्ञापित करती हूँ। वचन देती हूँ कि साहित्यिक स्वच्छता हेतु समर्पित भाव से यथोचित एवं प्रासंगिक रचनाधर्मिता पर केन्द्रित रहूँगी तथा ऐसे ही रचनाकारों का समर्थन करूँगी। आदरणीय डॉ0 अशोक जी द्वारा प्राप्त मेल आप सब के साथ साझा कर रही हूँ। 
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सरोकार -2








सरोकार-1







रचना-यात्रा


‘तमसो मा ज्योर्तिगमय’

तमसो मा ज्योर्तिगमय
-डॉ0 कविता भट्ट
(राष्ट्रीय महासचिव, उन्मेष,हे000गढ़वाल विश्वविद्यालय
श्रीनगर (गढ़वाल), उत्तराखण्ड

प्रकाश का पर्व ‘दीपावली’ अर्थात् ‘दीपकों की पंक्ति’ पुनः-पुनः एक वर्ष के अन्तराल पर  उपस्थित होता है। इस पर्व को मनाने के मूल में उपस्थित यों तो अनेक मान्यताएँ हैं; किन्तु मुख्य मान्यता यह है कि ‘अनैतिक गतिविधियों के प्रतिनिधि रावण’ पर ‘नैतिकता के प्रतिनिधि राम’ अपनी विजयोपरान्त जब स्वदेश अर्थात् अवधपुरी लौटे तो उनके स्वागत में दीपकों की पंक्तियों अर्थात् ज्योतिमालाओं से सभी मार्गों और घर-चौबारों को सजा दिया गया था। यद्यपि उस रात आमावस्या थी; किन्तु अवधनगरी के नागरिकों ने अनैतिकता पर नैतिकता की विजय की प्रतिस्थापनास्वरूप उस काली रात को पंक्तिबद्ध ‘दीपकों’ या ‘ज्योतिपुंजों’ द्वारा प्रकाशोत्सव में परिवर्तित कर दिया। प्राकृतिक पकवान-मिष्ठान्न आदि वितरण एवं नृत्य-गायन आदि के साथ हर्षोल्लास मनाया गया।  ऐसा माना जाता है कि यह परम्परा तब से अभी तक निर्बाध रूप से गतिशील है। वस्तुतः यह पर्व मात्र एक बाह्य या सामाजिक अंधानुकरण नहीं; अपितु इसके मूल में गहन नैतिक संदेश है; किन्तु आज हम इस संदेश को भूलकर मात्र बाह्य प्रकाश के संसाधन एकत्र करने में व्यस्त हैं- अब किंचित् ही दीपक दिखते हैं; दीपक और मिष्ठान्नों का स्थान ले लिया अधिकाधिक मुनाफे का पर्याय मिलावटी मिठाइयाँ, लड़ियाँ-बल्ब-हेलोजेन लाइट्स-आतिशबाजी आदि न जाने क्या-क्या। जितने अधिक ये संसाधन होंगे- स्टेटस उतना ही बड़ा; जबकि ये सभी पर्यावरण को अथाह हानि पहुँचाते हैं।  साथ ही स्टेटस के संसाधनों को जुटाने हेतु जो अनैतिक गतिविधियाँ हम अपनाते हैं; वे वैयक्तिक एवं सामाजिक अहित के मूल कारण हैं। हम बाहरी जगमग में खो गए; जबकि आन्तरिक रूप से हम अनैतिकता के गहन अंधकार में भटक चुके हैं। दीपावली का अभिप्राय बाह्य प्रकाश के संसाधन कदापि नहीं; इसका प्रयोजन तो आत्म-प्रकाश है।
भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के मूल में वेद एवं उपनिषद् साहित्य के संदेश हैं और साररूप में ये जीवन की कला एवं विज्ञान दोनों ही हैं। ‘असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतंगमय।।’ अर्थात् ‘हमें असत्य से सत्य की ओर ले चलो; अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो और मृत्यु से अमरत्व’ की ओर ले चलो जैसे आध्यात्मिक एवं नैतिक संदेशों से भारतीय वाङ्मय भरे पड़े हैं। इस सभ्यता ने हमेशा ही नैतिकता को जीवन का मूल आधार माना; किन्तु प्रश्न यह भी है कि वर्तमान परिदृश्य में भारतीय सभ्यता क्या अपने इन मूल मन्त्रों से भटक चुकी है? या भौतिक मोहपाश के कीच में आकंठ निमग्न हो चुकी है। यह प्रश्न इसलिए प्रासंगिक है; क्योंकि विगत कुछ वर्षों से संसार के मानचित्र पर भारतवर्ष भ्रष्टाचार के पहाडस्वरूप खड़ा है। यह कोई मिथ्या नहीं; स्वयंसिद्ध है; यद्यपि भ्रष्टाचार उन्मूलन के नाम पर नई-नई सरकारें बन जाती हैं; तथापि प्रश्न वैसे ही खड़ा है कि क्या बिना आत्मविश्लेषण के भ्रष्टाचार या अनैतिकता का उन्मूलन सम्भव है। प्रत्येक व्यक्ति समाज में व्याप्त विसंगतियों एवं अनैतिक गतिविधियों का विश्लेषण करता है; किन्तु स्वयं को उस विश्लेषण से विलग रखकर।
प्रश्न यह है कि भारतीय संस्कृति के आत्मस्वरूप ये पर्व क्या मात्र चार्वाक् दर्शन के अनुगमन का प्रतीक बन गए हैंकिन्तु पारम्परिक रूप से भारतीय संस्कृति के मूल में उपस्थित इन पर्वों के नैतिक प्रतीकीकरण से हमने अन्धकार पर कितनी विजय प्राप्त की? यह अत्यंत जटिल प्रश्न है। आइए विश्लेषण करते हैं; इन प्रश्नों के मूल में उपस्थित कारणों एवं उनके सार्वभौमिक निवारण का।
ध्यातव्य है कि विश्लेषणात्मक दृष्टि से ‘दीपावली’ देहगत अन्धकार को आत्मज्ञान के प्रकाश से दूर करने का एक रूपक है। ‘दीपक’  या ‘ज्योतिपुंज’ प्रतीक है- सार्वभौमिक हितों हेतु वैयक्तिक हितों के बलिदान का। यह प्रतीक है- स्थूल या भौतिक परिधियों का उच्छेदन करते हुए चैतन्य के विविध स्तरों को पार करते हुए आत्मचैतन्य के परमचैतन्य में सम्मिलन का।माटी का दीपक मात्र ज्योतिपुंज नहीं होताज्योतिपुंज में तीन संघटक होते हैं- रूई की बाती, तेल एवं माटी का दीपक। दार्शनिक विश्लेषण के अनुसार मानव के व्यक्तित्व की तुलना भी दीपक से की गई है। जिस प्रकार ये तीनों मिलकर ज्योतिपुंज को तैयार करते हैं; उसी प्रकार मानव व्यक्तित्व में त्रिगुण अर्थात् सत्त्व, रजस् एवं तमस् की परिकल्पना आयुर्वेद के साथ ही उपनिषदों, सांख्य, योग तथा गीता आदि दर्शनशाखाओं में की गई है। सत्त्वगुण परोपकार, ज्ञान, प्रकाश, विवेक, नैतिकता, यथोचित निर्णय, सकारात्मकता, शान्ति तथा सद्गुणों का प्रतिनिधि है। रजस् गुण क्रियाशीलता, साहस के साथ ही स्वार्थ, काम, क्रोध, मद, लोभ तथा मोह आदि का प्रतिनिधि है। तमस् गुण अविवेक या अज्ञान, अन्धकार, आलस्य तथा निद्रा आदि का प्रतिनिधि है। इन गुणों का परस्पर विरोध चलता रहता है और जब व्यक्ति पर जो गुण प्रभावी होता है; उसी की परिणति दैनिक क्रिया-कलाप में होती है। यदि तमस् प्रभावी हो तो अविवेक एवं आलस्य से युक्त होकर व्यक्ति नकारात्मक गतिविधियों का स्वामी होता है। यदि उसके साथ ही रजस् की अधिकता इस अज्ञान के साथ मिलकर व्यक्ति को अहंकारी एवं निरंकुश बना देती है। वह अपने व्यक्तित्व में उपस्थित आत्मतत्त्व को भूलकर मात्र सांसारिक एवं भौतिक सुख-सम्पन्नता हेतु समस्त अनैतिक गतिविधियों में लिप्त हो जाता है। इन दोनों ही गुणों का अस्तित्व तो रहेगा ही और रहना भी चाहिए क्योंकि व्यक्ति को आजीवन क्रियाशील रखने हेतु रजस् आवश्यक है। साथ ही जब कार्य करते-करते व्यक्ति थक जाए, तो उसे मनोशारीरिक विश्राम चाहिए। इसके लिए तमस् का अस्तित्व आवश्यक है। इन दोनों गुणों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता; किन्तु व्यक्तित्व पर इनका अतिप्रभाव एक अस्वस्थ, अनैतिक एवं असंतुलित व्यक्तित्व हेतु उत्तरदायी है। अतः इन गुणों के यथोचित नियमन हेतु व्यक्तित्व को सत्त्व गुण की अधिकता द्वारा निर्देशन मिलना आवश्यक है। तभी व्यक्तित्व स्वस्थ, नैतिक एवं संतुलित होगा। जितना सत्त्व अधिक होगा; व्यक्ति उतना ही आत्मतत्त्व के निकट होगा और उतना ही अधिक नैतिक होगा।    
सत्त्व का रंग श्वेत, रजस् का रंग लाल एवं तमस् का रंग काला माना गया है। अब थोड़ा दीपावली की दीपज्योति के रंग पर ध्यान देना चाहिए और इस सन्दर्भ में त्रिगुणों को समझना चाहिए। ज्योति को ध्यान से देखने पर इसमें प्रकाश की तीन परतें दृष्टिगोचर होती हैं। सबसे भीतर काली, उसके बाहर लाल एवं सबसे बाहर या ऊपर शुभ्र वर्ण ,जो अपने चारों ओर व्याप्त कालिमायुक्त अन्धकार को अपने वर्ण में रंजित कर प्रकाश का स्फुरण करता है। इसकी तुलना यदि व्यक्तित्व में उपस्थित त्रिगुणों से करें तो यह समझा जा सकता है कि व्यक्तित्व को प्रकाशमान बनाये रखने हेतु सत्त्व को प्रभावी करने के उपक्रम आवश्यक हैं।
त्रिगुण सिद्धान्त के साथ ही व्यक्तित्व की एक और विवेचना जो उपनिषद् साहित्य में प्राप्त होती है; उसे समझना भी यहाँ प्रासंगिक है। भारतीय दर्शन की अधिकतर शाखाओं द्वारा भी जिसे यथारूप स्वीकृति दी गई है; वह है- व्यक्तित्व की पंचकोशीय अवधारणा। व्यक्तित्व की पांच स्तर माने गये है; जो आत्मतत्त्व या चैतन्य के ऊपर प्याज की परतों की भाँति एक दूसरे को आवृत्त किए हुए हैं; इन्हें पंचकोश कहा जाता है। हमारे व्यक्तित्व में आत्मतत्त्व सबसे भीतर चैतन्यस्वरूप है जो ब्रह्मांडीय या सार्वभौम चेतना या परमचेतना का ही एक अंश है। ऐसा माना गया है कि इसके सबसे निकट आनन्दमय स्तर या कोश एक परत के रूप में है। साथ ही आनन्दमय के बाहर विज्ञानमय, मनोमय, प्राणमय तथा अन्नमय कोश भीतर से बाहर की ओर क्रमशः एक दूसरे के ऊपर हैं। जो सबसे बाहरी है और हमें दिखाई देता है; वह स्थूल शरीर है। समस्त अंग-प्रत्यंग-ज्ञानेन्द्रियाँ-कर्मेन्द्रियाँ आदि इसी का भाग हैं और आत्मचैतन्य के अभाव में यह स्थूल शरीर नितान्त जड़ हैं। अतः इस पर तमस् गुण प्रभावी है। जैसे-जैसे व्यक्तित्व का आन्तरिक कोशों की यात्रा करते हैं; वैसे-वैसे तमस् का प्रभाव न्यून होने लगता है। अन्नमय का नियमन प्राणमय तथा प्राणमय का नियमन मनोमय कोश करता है। प्राणमय एवं मनोमय कोशों में रजस् गुण का आधिक्य होता है। ये विज्ञानमय कोश द्वारा नियन्त्रित होते हैं। विज्ञानमय तक आते-आते रजस् एवं तमस् का प्रभाव कम होने लगता है तथा सत्त्व का प्रभाव बढ़ने लगता है। विज्ञानमय को आनन्दमय कोश अनुशासित करता है; जो नितान्त सात्त्विक होता है। आनन्दमय कोश आत्मप्रकाश से युक्त एवं सत्त्वगुण से युक्त होने के कारण व्यक्ति को सकारात्मक एवं विवेकी बनाता है। इसके भीतर आत्मतत्त्व या विशुद्ध चैतन्य है; जो निर्गुण है। इस प्रकार आत्मतत्त्व किसी भी गुण के प्रभाव में न होने  के कारण तटस्थ द्रष्टा है। यह सांसारिक गतिविधियों को एक दर्शक की भाँति देखता है। यह व्यक्ति को उचित-अनुचित तथा नैतिक-अनैतिक आदि प्रतिलोमों में भेद का दिग्दर्शन करवाता है; किन्तु इन्द्रिय-सुख में लिप्त व्यक्ति को इस द्रष्टा के निर्देश को नहीं मानकर अपने मन एवं शरीर की सुनता है। शरीर तमस् गुण प्रधान एवं इन्द्रिय-सुखों का कारक है। मन रजस् से युक्त होने के कारण अति चंचल है। अतः ये दोनों ही सत्त्व पर प्रभाव जमाकर नैतिक दृष्टिकोण को प्रस्फुटित नहीं होने देते। व्यक्ति को स्वार्थ, काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, अज्ञान तथा अन्धकार आदि नकारात्मकताएँ अपने वश में कर लेती हैं। 
इन्द्रिय-सुख अर्थात् आँख, जीभ, त्वचा, नाक तथा कान को अनुकूल संवेदनाओं क्रमशः सुखद रूप, स्वाद, स्पर्श, गन्ध तथा शब्द का मोहपाश बाँधे रखता है। यह बन्धन इतना जटिल है कि मनुष्य इसके लिए असीम अनैतिक कर्म करता है। समस्त अनियमितताओं एवं भ्रष्टाचार का मूल यह इन्द्रिय-सुख ही है। हम सर्दी में गर्म से गर्म कपड़े तथा वातानुकूलित कक्षों का प्रयोग करना चाहते हैं। गर्मी में अधिक से अधिक वातानुकूलन प्रयोग करते हैं। यह मात्र एक उदाहरण है; ऐसे ही अन्यान्य सुख हम चाहते हैं। परिग्रह (आवश्यकता से अधिक धन-सम्पदा-भौतिक संसाधनों) को जमा करते हैं; ताकि सदैव सुखद इन्द्रियों संवेदनों से युक्त रह सकें। उस सुख के अतिरिक्त हम कुछ भी सोचने-समझने की स्थिति में नहीं रहते; क्योंकि तमस् का अन्धकार इतना अधिक प्रभावी होता है कि सत्त्व का प्रकाश असहाय स्थिति में होता है। आधुनिक परिदृश्य में यही हुआ- स्वार्थ, काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, अज्ञान तथा अन्धकार आदि नकारात्मकताओं ने व्यक्ति को अपने वश में कर लिया। स्वार्थ से अधिक सोचने एवं समझने की स्थिति में वह है ही नहीं।
 श्री अरविंद व्यावहारिक स्तर पर चेतना की चार अवस्थाओं को स्वीकार करते हैं। चेतना की पहली अवस्था, तामसिक, दूसरी राजसिक, तीसरी सात्त्विक एवं अन्तिम या चौथी निर्गुण है। तामसिक एवं राजसिक अवस्था में व्यक्ति इन्द्रिय-सुख एवं आज में विचरण करता है, यह अज्ञान, अंधकार, काम, क्रोध तथा मोह आदि से युक्त है। ध्यातव्य है कि यह तमस् के प्रभाव में होते हुए भी आंशिक रूप से सत्त्व का प्रकाश पड़ते ही ज्ञान की खोज में समर्थ है। यह आन्तरिक ज्ञान-दीप्ति तथा अज्ञानमय मन के आत्मिक चेतना द्वारा रूपान्तर से ही सम्भव है।  यह ज्ञान की व्यावहारिक अवस्थाएँ हैं; किन्तु आत्मचैतन्य या आत्मज्ञान की अवस्था इन सबसे अधिक व्यापक है। वह आत्मचैतन्य के सर्वाधिक निकट आनन्दमय कोश में अवस्थित होती है। जब सत्त्वगुण प्रभावी होता है इसकी प्राप्ति तभी सम्भव है। जब तक सांसारिक क्रिया-कलापों में निमग्न हैं; तब तक ज्ञान की इसी अवस्था तक पहुँचा जा सकता है। आत्मचेतना के परमचेतना में सम्मिलन हेतु इससे भी उच्चतम अवस्था अपेक्षित है। वह तो नैतिकता-अनैतिकता की सीमाओं से परे निर्गुण एवं निर्विकार अवस्था है। वह आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य में विवेच्य है; किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से सात्त्विक ज्ञान की अवस्था तक पहुँच सकें तो वैयक्तिक एवं सामाजिक उत्थान सम्भव है।
जब यह ज्ञान हो जाता है; तो व्यक्ति स्वयं ही ‘ज्योतिपुंज’ बन जाता है; बाहर अन्धेरा है या प्रकाश; उससे वह प्रभावित नहीं होता। ये सकारात्मक प्रवृत्तियाँ ही राम जैसे विराट व्यक्तित्व को जन्म देती हैं। इतिहास साक्षी है कि राम ने युद्ध यदि मात्र सीता को शारीरिक रूप से प्राप्त करने हेतु किया होता तो वे एक धोबी के कहने पर उसे त्यागते नहीं। अतएव राम एक सन्देश है; वैयक्तिक हितों का सामाजिक हितों के लिए त्याग; और उसी सन्देश हेतु ‘ज्योतिपुंज’ से प्रकाशित ‘दीपावली’ मनायी जाती है। इसके लिए आवश्यकता है; व्यक्तिगत स्वार्थ की परिधियों को तोड़ते हुए तमस् एवं रजस् धीन हुई अपनी वैयक्तिक चेतना को स्वतन्त्र एवं उन्मुक्त करने की। अन्यथा प्रत्येक व्यक्ति में नकारात्मकता अर्थात् रावण ही निवास करेगा। यदि राम बनना है तो अधिकारभाव को छोड़कर मात्र कर्त्तव्यभाव से कर्म करना। तभी सत्त्व प्रभावी होगा और हमारा व्यक्तित्व ज्योतिपुंज के समान बन सकेगा; जो मानवता को अनन्तकाल तक प्रकाशित करता रहेगा।
          लोकतन्त्र का सिद्धान्त है- समाज के सर्वाधिक उपेक्षित नागरिक की समस्या को भी गम्भीरता से सुनना और उसका समाधान करना। ‘राम’ ने राजतन्त्र में लोकतन्त्र का सिद्धान्त अपनाया और आज लोकतन्त्र में भी राजतन्त्र अपनाया जाता है। इसी की परिणति भ्रष्टाचार में होती है। ‘राम’ का स्वागत उनके विराट व्यक्तित्व के कारण की गयी और ज्योतिपुंज के रूप में उनके सद्गुणों का प्रतीकीकरण किया गया। जो स्वयं प्रज्ज्वलित होकर तथा ताप सहकर दूसरों के लिए प्रकाश प्रसारित करे। आइए- इस दीप-पर्व पर संकल्प लें कि हम सभी ऐसा ही दीपक बनकार ज्योतिपुंज रूपी राम बनें। ताकि हमारा अस्तित्व सुखद हो दुःखद नहीं; आइए प्रार्थना करें-
तमसो मा ज्योतिर्गमय।।’
 ‘तमसो मा ज्योर्तिगमय
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