शनिवार, 29 अगस्त 2020

164-नदी तट पर

नदी तट पर(काव्य संग्रह- हिमाद्रि आंचल से)

 

सुनील सिंधवाल रोशन

  

हृदय  की मेरी निश्चल भावना में,

तुम शाश्वत सत्य कल्पना मीत हो।

कभी उच्छृंखल बन झकझोरती,

कभी गुनगुनाती आक्रोश गीत हो।

         नित  समयबद्ध  गामिनी  बनकर,

         तुम निरुत्तर समय की सारथी हो।

         कभी -कभी  जीवन  बाँध चलती,

         कभी असहाय की मृत्यु पारथी हो।

आक्रोश में रंग बदलती हो लेकिन,

सत्य समझाने  तुम  हुंकार भरती।

जुड़े हैं मेरे  संस्कार  तुम्हारे नीर से।

सजीव निर्जीव  मन  प्रीत  उमड़ती।

         निरंतर तुम्हारी  यात्रा देख  मन में,

         ईर्ष्या भाव  ज्वार बन उमड़  पड़ती।

         निष्ठुर बेपरवाह बन ग ये जिंदगी,

         देह कर्मभाव  की क्यों नहीं जगती।

जब कभी जो पथ नहीं भाता तुम्हें,

बदलने में क्षणिक पल नहीं लगता।

अकृत्य  राह चलते  विवेक  मानव,

हसास पर भी  राह नहीं बदलता।

     

            कल-कल छलछल  मृदुलवाणी से,

         अचेत दीर्घा से मुझमें  ओज भरती।

         शांत निर्मल मन  में स्वाभिमान को,

         दूरदर्शिता की  नीति आगा करती।

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मंगलवार, 25 अगस्त 2020

162-विदाई

 प्रो. संजय अवस्थी

 

न सिंदूर, न सप्तपदी की कसमों का बंधन,

फिर भी बाँध लिया जन्म -जन्मान्तर का बंधन।

एक -एक पल तुम्हारी बेरुखी के साथ गिनना,

फिर भी पलकों पर आँसुओं को रख,आशाओं को सँजोना ।

जीवन पथ शूलों से भरा, राह कठिन, डूबता विश्वास,

फिर भी तुम्हारी राह के शूलों को बीन, लहूलुहान होने का साहस।

दुःख साथी, सुख दूर खड़ा, खण्ड- खण्ड होता विश्वास,

फिर भी सामने पा, आँसुओं को रोक, आँखें न मिलाने का साहस।

तुम्हारा कभी मिलना, कुछ देर आँखों में बसना, साथ रहना,

फिर लौट जाना, स्वप्न- मिलन को भी जीवन समझना।

तुम सुरभित,सुवासित, मस्त,दिग्- दिगन्तर तक उड़ने का विश्वास,

मैं धरा पर भी अस्थिर, पंख नहीं, तुम्हें पास रखने का विश्वास।

रातें काली नागिन- सी रोज डसने होती हैं आतुर,

फिर भी तुम्हें देखने हेतु, सुबह का इंतज़ार।

जग निराला, रोज नए रंग दिखाता, मैं विरह बदरंग,

फिर भी कच्चे बंधन को भूल, विश्वास केवल, भरता बदरंग में रंग।

कब बचपन बीता, कब आई जवानी, एहसासों से अनजान,

अज्ञात सम्बन्ध, करता दुःसाहस, चला करने अमर  यौवन।

स्वप्न- संसार, दलदल पर बने काँच- से आशाओं के महल,

पत्थर किस दिशा से आएँगे, क्यों सोचना, बिखरेंगे महल।

मुझे जिद है, बाहों में समेटने की, तुम्हें जल्दी है दूर जाने की,

तुम उन्मुक्त, मैं भाव- विह्वल, लगता है जिद हारेगी, टूटती साँसों की।

मैंने प्यार की हर रस्म निभाई, सिंदूर से गहरे विश्वास की तरह,

डाल देना वो वेणी, जो कभी बाँधी थी- अर्थी पर, प्रेम मुक्ति की तरह।

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161-उदन्ती में सभी रचनाएँ

डॉ.कविता भट्ट 'शैलपुत्री'

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उदन्ती में मेरी सभी रचनाएँ

160-अधरों से प्यार लिख दो


 

डॉ.कविता भट्ट 'शैलपुत्री

मेरी हथेली पर तुम अधरों से प्यार लिख दो,

समस्त आकाश-गंगाओं का संसार लिख दो।

कामनाएँ मुखर- अब यों सिसकती न छोड़ो,

मधुरगीतों के गुंजन व नित प्रसार लिख दो।

प्रियतम! आँखें मूँद- बाँचूँगी उम्रभर इन्हें ही,

तुम यह ढाई अक्षर का जीवन सार लिख दो।



रविवार, 23 अगस्त 2020

159

तुम्हें जाने की हठ है; मैं निःशब्द,
                मेरी श्वासों में तेरी वही सुगंध शेष है।
तुमने पलों में भ्रम तोड़ डाले सब,
               मेरा अब भी वचन- अनुबंध विशेष है।
तूने कंकड़ बताया जिन्हें राह का,
              मेरे लिए अक्षत बना- तेरा वो विद्वेष है।
अपमान सहना और कुछ न कहना,
              केवल यही निश्छल प्रेम का संदेश है।
तुम प्रथम ही रहना, मैं अंतिम सही,
             सम्मोहन का यों तो सुन्दर ये उपदेश है। 
'कविता' विलग हो नहीं जी सकेगी,
             रस, छंद, अनुप्रास का ही परिवेश है।

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शनिवार, 22 अगस्त 2020

158


डॉ . कविता भट्ट 'शैलपुत्री'
सिंहासन धीरे से बोला

       हँस कर राजा के कान।
तुझसे पहले भी अनेक
       हुए मुझ पर विराजमान।
उनकी भी थी शब्दसभा
       उनके भी थे मंगलगान।
चारण उनके भी यों ही
       करते रहते थे यशोगान।
समय कटा, प्रसाद बँटा
       हुआ पुष्पित सम्मान।
थे अवाक सुन ढोल
       काल चक्र से अनजान।
पुष्प बरखा अकूत हुई
      जब गूँजा विजय-विहान।
आज मरघट हो गए
      उनके घर भी सुनसान।
क्यों मद में इठलाता
      क्यों इतना अभिमान?
कुछ तो कर लोकार्पित
      पीढ़ियाँ करेंगी गुणगान। 

मंगलवार, 11 अगस्त 2020

156-उत्तराखण्डी संस्कृति लोकगीत

 

'उत्तराखण्डी संस्कृति लोकगीत' निम्नलिखित लिंक पर-

https://www.youtube.com/watch?v=ObNRC4AaE8A

155-वीरता दिवस

 

रमेश चन्द्र 'निराला'


 लक्ष्य अडिग होगा तो,

हर मुश्किल आसाँ कर देंगे।

इस मातृभूमि की रक्षा को,

अपने प्राण भी न्योछावर कर देंगे।


यह भूमि है वीर जवानों की,

वीरों की मर्दानों की।


कर लिया प्रण मन में हमने,

तब तक चैन की साँस ना लेंगे हम


दुश्मन को अदम्य साहस दिखलायेंगे,

 

जब तक करगिल की चोटी पर ,

तिरंगा ना फहराए हम।

 

उन वीरों की शहादतें हम,

ऐसे नहीं जाने देंगे।

 

दुश्मन की हर आहट का ,

गिन-गिन कर हम बदला लेंगे।

 

दिखलाएँगे अदम्य साहस,

वीरता का परिचय देंगे।

 

मार गिराएँगे  दुश्मन को,

अपनी जमीं आजाद कराएँगे।

 

भारत माँ की रक्षा को,

सर्वस्व हम लुटाएँगे,

 

उन वीरों की शहादतों का,

हम वीरता दिवस मनाएँगे।

 

-0- प्रभारी प्र.अ., रा.आ.प्रा. वि.छिडिया,गैरसैंण, चमोली,उत्तराखंड


रविवार, 2 अगस्त 2020

154-आवाज दे रही


डॉ.कविता भट्ट 'शैलपुत्री
-0-
1
दबी चिंगारी है;  फिर भी उबाल आता है।
कैद मैना को आसमाँ का ख़्याल आता है।

सिलसिला ऊँची उड़ानों का यूँ तो उसकी;
जाने क्यों फिर घरौंदे का सवाल आता है।

नोंचे 'पर' उसके अँधेरे ने बेरहमी से बड़ी;
देख सूरज फिर उड़ने का मलाल आता है।

दोनों आँखों में वो तो दो 'ब्रह्माण्ड' रखती है;
उसकी राहों में मगर जग-जंजाल आता है।

उसे आवाज दे रही- अब नभ की नीलिमा;
जाने 'कविता' अब क्या चक्रचाल आता है।
          
-0-
2
सजना! कोरोना भई जिंदगानी,
लॉकडाउन हो गयी प्रेम-कहानी।

रीत-दस्तूर का मास्क मुखड़े लगा,
तड़पूँ ऐसे- ज्यों मछरी बिन पानी।

सेनेटाइज करके दिल की गलियाँ,
बैठी हूँ कब से ओढ़ चूनर धानी।

कितना भी धोऊँ हाथों को अपने,
तू न छू सकेगा- गम है ये जवानी।

क्वारेन्टीन हो गए सपने सुहाने,
वैक्सीन सी हुई कसम निभानी।

बेरोजगार हो गयी प्रीत हमारी,
लहू बन बह गया आँखों से पानी
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