बुधवार, 31 अगस्त 2022

387-मुझे रिझाना होगा

ईशा नारंग (पंजाब, भारत)

 

तुम इतनी भी मुझे अपनी ना समझ लेना

कि बना बैठो मुझे अपने लिए अपने जैसी ही

तुम्हें, हर बार, आ कर मुझे रिझाना होगा

मेरे ख्यालों की दुनिया में उतर जाना होगा

समझनी होंगी, पूरा करनी होंगी मेरी ख्वाहिशें

यूँ ही नहीं मैं मिल जाऊँगी तुम्हें गाहे - ब - गाहे

 

माना कि हम दोनों एक हैं, दो नहीं

पर तुमसे बाहर मेरी भी है एक हस्ती

तुम्हें, हर बार, मेरे अस्तित्व को स्वीकार करना होगा

ये मेरा अहम नहीं, आत्म सम्मान है, समझना होगा

चलना होगा, हाथ में हाथ, कदम से कदम मिलाकर

यूँ ही नहीं मैं मिल जाऊँगी तुम्हें गाहे - ब - गाहे

 

आगे बढ़ना होगा, अपने दायरे से बाहर निकलना होगा

जितना प्यार जताते हो कहकर, आचरण से भी करना होगा

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रविवार, 28 अगस्त 2022

386-रस - रसिक - रसवंत

 डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'

 


रसिक सुनो!

केसरिया सूरज

जब नदी में घुल रहा होगा

साँझ बुन रही होगी सुरमई धागे

पहाड़ियों की सलाइयों से

रात की डोरी पर

तुम फैला रहे होगे-

अनंत प्रेम रस में भीगे सपने

कनखियों से देख रही हूँगी


चुपके से तुमको मैं

छम्म से आकर तंद्रा तोड़ दूँगी

जब भी मेरी पैंजनियाँ बजेंगी

तुम्हारे मन के गेह में

तुम एक चम्पा की कली

मेरे उलझे हुए बालों में लगाना

और मैं तुम्हारे मन की दीवारों पर

प्रेम की अनंत मुद्राओं से

चित्रांकन करूँगी कल्पनाओं का

वचन है भर दूँगी सारे रंग


डोरी वाले सारे सपनों में

अनंत रस में भीगते रहेंगे-

रस से रसिक, रसिक से रसवंत

होने की यात्रा में

केवल साथ तुम्हारा चाहिए।

-0-

मंगलवार, 23 अगस्त 2022

385-इतना सा उपहार दे दो

डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'


जिसे जो भी चाहिएउसे वे अधिकार दे दो,
अभिशाप जितने हैं जग मेंमुझे वे भंडार दे दो।

 अपेक्षा अब नहीं कोई, जगत के व्यापार से;

धड़कनें अब थक रही, शेष सब दुत्कार दे दो।

 

प्रभु! यदि कुछ शेष हों, जूठनें और कतरनें;

मेरी ही झोली में डालो, इक ये पुरस्कार दे दो।

 

मौन धरती- गगन चुप, कैसी निर्मम भाग्यरेखा;

स्वप्न में ही खो गईं, अब तो वह मनुहार दे दो।

 

जो भी अमृत तुम दिए थे, बाँट आई अँजुरियाँ;

विष ही मेरे नाम का तो, उसके ही अम्बार दे दो।

 

खिंच गई हैं क्यों कटारी, मैंने ऐसा क्या किया;

प्यार देकर घृणा पाई, सब शेष हाहाकार दे दो।

 

अंकुरण से पूर्व ही, मरुथल- सी धरती हो गई;

ताप कोई भी शेष हो, इस बीज को  संहार दे दो।

 

है पवन भी रुक्ष- सी, वृक्ष कंटक बन खड़े;

इतनी -सी मेरी प्रार्थना, मृत्यु को आकार दे दो।

 

रक्तधारा शिथिल- सी, हृदयगति विश्रांत है;

अब मुझे ले लो,शरण इतना- सा उपहार दे दो।

सोमवार, 22 अगस्त 2022

383-खुद से मुलाक़ात हुई

 

राजीव रत्न पाराशर( कैलिफोर्निया )

 

उछला मन बल्लियों,


ऐसी कुछ बात हुई।

बहुत दिनों बाद आज

खुद से मुलाक़ात हुई।

 

मिलने के लिये मैंने

खुद ही को बुलाया।

हाल चाल पूछे ,

फिर हाथ भी मिलाया।

 

मिल बैठे दो जन,

मस्ती के आलम में।

एक तो मैं 

और दूसरा भी मैं।

 

गम्भीर से मुद्दों पर

विचार- विमर्श हुआ।

हम दोनो भिन्न नहीं

यही निष्कर्ष हुआ।

 

शिकवे भी साझा कि

कुछ ग़ुस्सा भी फूटा।

बहुरूपी से मन का

कोई पहलू ना छूटा।

 

जाना ये आज कि

इंसान मैं अच्छा हूँ।

ज़ुबान से शायर हूँ,

दिल का सच्चा हूँ।

 

मेरे बिन ये दुनिया

वाक़ई अधूरी है।

अपने आप से मिलना

इसीलि ज़रूरी है।

 

ज़रूरी इसलिए नहीं कि

मन में कुछ अहम् है।

बस इसलिए कि यहाँ

हम जैसे सिर्फ़ हम हैं।

 

यूँ तो हम दुनिया की

ख़ूब ख़ाक छानते हैं।

पर अपने बारे में हम

कितना कम जानते हैं।

 

खुद की अनदेखी की

कितना अजीब हूँ।

यह मैं ही हूँ जो मेरे

सबसे क़रीब हूँ।

 

मिलना सब लोगों से

मेरा भटकाव था।

मिलना ये खुद से ही

अंतिम पड़ाव था।

 

अब मिलने मिलाने का

और झमेला न रहा।

मैं खुद से मिला, फिर

कभी अकेला न रहा।

-0-

रविवार, 14 अगस्त 2022

382-कालजयी

डॉ0 सत्य प्रकाश मिश्र 

                   

हे कालजयी!


महाकाल भी रोया था
 

मुँह छुपाकर तुम्हारी तंग गलियों में।

जहाँ अमरत्व पा लिया बलिदानियों ने

काल को धता बताकर।

पर, कोई नहीं समझ सका तुम्हारा दर्द 

तुम्हारी अन्तहीन पीड़ा। 

कौन होगा तुम्हारे जैसा अभागा

जिसका तन 

जीवन भर सागर की थपेड़ों से 

घायल होता रहा 

और अन्तर्मन मां के सपूतों पर हुए 

जुल्मों से जख्मी।

गुलामी की मर्मान्तक पीड़ा

तुम्हारी तरह किसने सही होगी। 

निश्चेष्ट और निष्प्राण हो चुकी 

तुम्हारी देह को 

उन्हीं अमर शहीदों के 

बलिदान की संजीवनी ने 

एक बार फिर जीवन्त कर दिया।

सागर की वही नमकीन लहरें 

मरहम बन कर रात-दिन

तुम्हारे जख्मों को भरने में लगी हैं।

 

हे अपराजेय महारथी! 

आजादी की लड़ाई 

भले ही पूरे देश में लड़ी गई 

किन्तु परिणाम के असली हकदार

तुम्हीं हो।

इसीलिए माँ का आँचल भले ही 

कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैला है

पर 

उसकी आत्मा विह्वल होकर 

अभी भी भटक रही है 

तुम्हारी काल कोठियों में।

 

हे अण्डमान!

तुम मानचित्र में 

नुक्ते से बड़े नहीं दिखते 

पर तुम्हारा 

ऐतिहासिक और सांस्कृतिक भूगोल 

दुनिया के मानचित्र से भी बड़ा है।

इसके पृष्ठों को अभी तलाश है 

सुनहरी रोशनाई वाली धारदार कलम की। 

अनगिनत सावरकर 

आज भी करा रहे हैं 

तुम्हारी स्याह काल कोठियों में।

जिनकी कराहटों को अब तक 

मौत भी नहीं कर पाई मौन।

वे आज भी दर्ज कराना चाहते हैं 

अपना कलम बन्द बयान 

जो अब तक उनकी छाती पर 

बोझ बन कर मांग रहा है 

अपना हिसाब

दुनिया की अदालत में।

 

हे आजादी के महानायक!

तुम कदकाठी में भले ही अदने से हो। 

पर, तुम्हारा धैर्य-पराक्रम और सहनशक्ति 

हिमालय से कम नहीं

जो अडिग और अचल रही 

गुलामी की प्रताड़ना के 

भयावह भूकम्प में भी।

वज्र से भी कठोर है तुम्हारा हृदय 

जो विदीर्ण नहीं हुआ

अपने सपूतों की ह्रदय विदारक वेदना से 

जिनकी सहनशक्ति पराकाष्ठा से भी परे थी 

धैर्य और पराक्रम अपने अर्थ से भी बड़ा।

 

हे महात्मन्!

तुम्हें आज भी गर्व है अपनी सुंदरता पर 

जिसे कलुषित कर दिया था 

कलमुहे पापी फिरंगियों ने 

अपनी काली करतूतों से

काला पानी बनाकर।

तुम्हारी इच्छा थी

कोई आए 

खूबसूरती निहारे 

रूप निखारे।

महनीय 

सभ्यता और संस्कृति के 

रंग से सराबोर हो जाए 

तुम्हारा कण-कण।

'तमसो मा ज्योतिर्गमय' का शंखनाद 

जनगण की अंतरात्मा को झकझोर दे

और फिर से रोशन कर दे 

तुम्हारी काली कोठरियों को। 

पीड़ा और संत्रास की 

कोई लकीर न हो तुम्हारे माथे पर।

गाँधी जी की सत्य-अहिंसा 

बुद्ध और महावीर की करुणा 

मिलकर कर दें 

तुम्हारी अंतरात्मा को 

पावन और शीतल। 

 

हे पुण्यात्मन् !

आज तुम्हारे पुण्य फलित हो गए। 

तुम्हारी धरती फिर बन गई ललाम।

हे महात्मन्! तुम्हें प्रणाम।

-0- रामनगर (नैनीताल), उत्तराखण्ड 

मंगलवार, 9 अगस्त 2022

381-कविताएँ

 रश्मि विभा त्रिपाठी

1-संवेग 

 

ओ विलियम मैक्डूगल!


तुमने न केवल

यह बताया

क्या है आखिर

यह मूल प्रवृत्ति?

बल्कि

इसके चौदह प्रकार हैं

व इससे ही हुई

संवेग की उत्पत्ति

यानी

भीतर के भावों की

बाहर की ओर बढ़ती गति

तुम्हें अशेष बधाई!

संवेगों की संख्या निश्चित करने को

बधाई!

मैंने पढ़ा

मगर अब ध्यान दिया

कि इसी कड़ी में

छूट गई है

एक और प्रक्रिया

जो मैंने अनुभव किया

तुम आज होते यहाँ

तो बताती

संवेग

सबके लिए समान नहीं

एक व्यक्ति

एक समय में

दुख से मर रहा है

उसी समय

उसे देखने वाला

आनंद से भर रहा है

हाँ.. हाँ...

ये मेरे साथ हुआ

हाल ही में

तथाकथित अपनों ने

जब मुझसे पूछा

क्यों उदास हो?

मैंने रोते हुए

कह तो दी सारी कहानी

पर उसी क्षण

यह बात भी जानी

किसी की दिलचस्पी नहीं थी

मेरे कराहते अतीत में

मैंने साफ- साफ सुन लिया था

अपने आस-पास गूँजते हँसी के संगीत में।

 

2- तुम इन्सान नहीं

 

तुम इन्सान नहीं

हो कलियुग के देवता

जिसने

अपने द्वार पर आए

सुख को

आसानी से दे दिया

मेरे घर का पता

तुम्हारी कही बातों में

कभी नहीं मिला संकेत

किसी छलावे का

जिसकी अनुभूति से

मैं कई बार

हो चुकी हूँ अचेत

मेरे दुख से दुखी हुए

तुम्हारी आँखों से चुए

टप- टप

वैसे ही आँसू

सुदामा से गले लिपटके

जैसे कृष्ण रो पड़े थे!

 

मुझे जब- जब छुआ

तुमने देने को दुआ

तुम्हारे स्पर्श में

पावनता

और दूसरी नहीं गंध

प्रेम में ऐसी शक्ति

इतना धीरज!!

आधुनिक प्रेमियों को

ले लेनी चाहिए

तुम्हारी चरण- रज

दुनिया को

यह देखकरके

सचमुच होगा अचरज

कि

बगैर कुछ चाहे

चलते रहे

शहर, बस्ती, जंगल के

अनजाने रास्तों पे

तुम मेरे साथ- साथ

गाहे- बगाहे

गिरने को जब भी हुई

तुमने तब-तब

दौड़कर पकड़ा मेरा हाथ।

-0-

3-दुनिया

 

तेरी दुनिया अलग

मेरी दुनिया पृथक्

मगर हमारे रीति- रिवाज

मिलते हैं बहुत हद तक

औरों के सुख-चैन की

तू हर दिन करता कामना

मेरे लिए सबसे बड़ी

तेरी यह पूजा, साधना

आस-पास की करुणा से

मेरा चेहरा भी आँसू में सना

रोते हुए इन्सान को

जब तूने गले लगाया

तेरी इसी उदारता पर

तब- तब मेरा मन आया

तेरी- मेरी संवेदना का

एक ही सीधा- सरल पथ

अपने में जी रही इस दुनिया से

हम धीरे-धीरे इसीलिए हो चले विरत।

-0-

4- प्रेम के मायने

 

देख ना!!!

मेरे हास का गुंजन

पूरब से पश्चिम

बनकरके कुंदन

चमचमाया

रंग लाया

तेरा वो

मेरे दुख की धूल

आँधी के आने पर

अपने हाथों में

समेटना!!

तेरे लिए

प्रेम के मायने-

चुन-चुन के

सब काँटे

सुख की कली

मेरे लिए सहेजना

सुरक्षित

मुझ तक भेजना

कि विदा ले

वेदना

मेरे प्राण!!

प्रेमियों के लिए

तू बन गया है प्रेरणा।

-0-