सोमवार, 20 मार्च 2023

441-प्रेम

प्रो. राम विनय सिंह

 


खींच लेते हैं

जन्मांतर सौहार्द

सहसा ही

अनदेखे, अनछुए भी

भाव- सारणियों को

स्वप्न में सुनी कोयल की आवाज़ की तरह!

 

मोह लेते हैं

मृदु मन को

निष्पंद नैन भी

प्राणों से बात करते

उन्नत शिखरों पर

समाधि की मौन अभिव्यक्ति की तरह!

 

छूकर जगा देते हैं

पल में ही

किसी सोए अलसा

अंतरंग तरंगित स्वन को

नीरव में कलरव भरते

भोरहरे उल्लास भरे

पंछियों के अस्पष्टाक्षर प्राभातिक की तरह!

 

सींच देते हैं

यक-ब-यक

गंगा यमुनी जलधार से

पत्थरों के भीतर तक फैली हुई

बंजर जमीन को

अहसास के आवर्त में घिरे

बादलों के जार-जार फूट पड़े कंठ

और आँखों के विकल प्रश्नोत्तरों की तरह!

 

विह्वल कर देते हैं

प्रशांत मन को भी

विजन के एकांत में

निर्झर के स्पंदित प्रशांत में

चोट खाई चेतना के

पिघल-पिघलकर नदी बन जाने की तरह!

 

झंकृत कर देते हैं

शब्दों के वेणुरंध्र में बजते- से अर्थ बन

मन प्राणों के अनछुए तारों को भी

नि:सर्ग के द्वार से

निर्निमेष निहारते-से

तट पर खड़े मौन को

एक और अलौकिक शान्ति की तरह!

 

प्रेम व्यक्त हो जाता है

सहज ही

अधरों की अव्यक्त विवक्षा में

प्रणय की निस्पृह प्रतीक्षा में

कोमल कमल की पंखुड़ी पर

चमकदार मोतियों की आभा-सी

आभासी आकाश की आँखों से

टपक पड़े

इतिहासगर्भ अश्रुबिन्दु की तरह!

 -0-(देहरादून, उत्तराखण्ड)

मंगलवार, 14 मार्च 2023

438-वृक्ष पुरुष

 

 पद्मश्री डॉ. विष्णु पंड्या

 ( पूर्व निदेशक, साहित्य अकादमी, गुजरात)   

 

वृक्ष पुरुष                                 

युगांतरों से एकान्तिक,

किन्तु उदास नहीं

वह वसंत में

भीतर सृजन का संसार रचता है

ग्रीष्म में जमीं से संवाद

हेमंत की ठिठुरती रातों में

वेलियों को आलिंगन देता है

बारिश की छोर में

एक भीगा- सा गीत

पत्तियाँ गाती हैं, झूमती हैं

शिशिर की मुस्कराहट

सूर्य किरण से खेलती होगी

एक दीर्घ प्रतीक्षा

उसे ज़िंदगी की सार्थकता से मिलाती है

अचल अडिग अनहद प्यार

और प्यास से भरा है वृक्ष पुरुष

कोई कोमल स्पर्श

उसे मेघ धनुष के निकट लागा

ऐसा विश्वास है।

 

शनिवार, 4 मार्च 2023

436-दो कविताएँ

  रश्मि विभा त्रिपाठी

 1-स्त्री

 


पत्थरों से टकराकर

नदी- सी

बहते रहने का ध्येय

जिसका धैर्य

अटूट

अपरिमित, अप्रमेय

आगे बढ़कर

लड़कर

रोज

एक युद्ध

बनती अजेय

घर परिवार के लिए जो

उपादेय

नीरव को तोड़कर

मन निचोड़कर

भावों का अर्क

पन्ने पर कभी उड़ेल दे

तो बन जाती है

महादेवी

या

अज्ञेय

गढ़कर शगुन के गीत

जीवन की लय में पिरोकर प्रीत

गाती है छंद गेय

 

स्त्री

पुरुष के लिए ही

फिर

क्यों है

हेय।

-0-

2-लबादा

 

बाहर से ओढ़े आधुनिकता का

लबादा

मगर भीतर कुछ ज्यादा

पजेसिवनैस

बाहर किसी से एक शब्द बोलने पर

घर में रोज तमाम गाली खाती है

उसका दोहरा व्यक्तित्व

औरत जिन्दगी भर पचाती है

मगर

पढ़े लिखे होकर भी

नासमझी और शक्की विचारों से लैस 

आदमी को मरते दम तक बनती रहती है गैस।

-0-

गुरुवार, 2 मार्च 2023

434-साक्षात्कार

 

डॉ. विकास दवे से जया केतकी की बातचीत.....

 


प्रश्न: आप देवपुत्र और साक्षात्कार के संपादक कर रहे हैं। एक संपादक के लिए कौन सी चुनौतियाँ हैं या किस तरह के दायित्व का निर्वहन करना पड़ता और क्या भूमिका है।

उत्तर: मेरा ऐसा मानना है कि संपादक सामान्यतः एक पूरे के पूरे साहित्य समाज का दो छोर से प्रतिनिधित्व करता है। संपादक को अपने पाठक की भी चिंता करनी होती है। दूसरी ओर लेखक की भी चिंता होती है। इस समय हम समाज में और जो साहित्य जगत में परिस्थितियाँ देख रहे हैं हमारे ध्यान में आता होगा कि वैचारिक द्वंद्व की स्थितियाँ अत्यधिक मात्रा में दिखाई देती हैं और विशेष करके ये वैचारिक द्वंद्व अब तो इन दिनों ऐसा लगता है कि बिल्कुल मतभेद से मनभेद की तरफ बढ़ता जा रहा है और ऐसी स्थिति में हम लोगों को संपादक के रूप में जरूर चिंता करनी पड़ती है कि ऐसी सामग्री पाठकों को सौंपी जाए जिससे उनको नीर-क्षीर विवेक विकसित करने में सुविधा हो। दोनों प्रकार के विचारों को अवसर मिलना और कई बार तो ऐसा होता है कि अपने देश में दुर्भाग्य से साहित्य जगत में एक लंबे समय तक यह भी चलता रहा कि वैचारिक आधार पर अपने ही देश की संस्कृति से जुड़े हुए अपने देश की मिट्टी से जुड़े हुए अपने देश की गरिमा से जुड़े हुए विषयों को भी लगातार अपमानित करने का प्रयास किया जाता रहा है और यह सब विदेशी विचारों को आधार बनाकर किया जाता रहा है। तो मुझे ऐसा लगता है कि अब समय आ गया है कि हम सब मिलकर इस बात की चिंता करें कि राष्ट्रीय चेतना और संस्कृति के उन्नयन की दृष्टि से जो विषय महत्त्वपूर्ण है उनको बिना किसी भेदभाव के पाठकों तक पहुँचाने का प्रयास करें। इसमें से कोई मन में वह भी नहीं होना चाहिए। अब आपने चूँकि दो पत्रिकाओं के नाम एक साथ लिए और मेरा सौभाग्य है कि मैं दोनों के संपादन से जुड़ा हुआ हूँ। देवपुत्र के संपादक के नाते इस प्रश्न का उत्तर मैं कुछ भिन्न रूप में देता हूँ। वो इसलिए क्योंकि वह बच्चों की पत्रिका है बच्चों का मन बड़ा कोमल होता है और सामान्यतः ऐसा होता है कि बच्चों का मनोविज्ञान यह बताता है कि बालक उस दिशा में ज्यादा आकर्षित होता है जिस दिशा में निषेध किया जाता है। आप जब बच्चे को रोकते हैं। हम लोग कई बार छोटे-छोटे बच्चों को देखते हैं कि दीपक जल रहा है तो हम कोशिश करते हैं कि बच्चा उस दीपक के पास न जाए और आग से हाथ न जला बैठे लेकिन आप देखेंगे कि बच्चा बार-बार दौड़कर उस दीपक की लौ की तरफ जाता है तो पहली चीज तो यह है कि निषेध के प्रति जो आकर्षण बच्चे के मन में है तो एक संपादक के रूप में, बाल साहित्यकार के रूप में बाल पत्रिका चलाते समय हम लोगों को इस बात की चिंता करना चाहिए कि बच्चा जो चाहता है वो उसको नहीं देना बल्कि बच्चे के लिए जो आवश्यक है, उसके लिए जो हितकर है, वो सामग्री उसको सौंपना। एक सूत्र तो यह रहता है।

दूसरी बात संपादक के नाते हमको यह भी देखना पड़ता है कि बच्चों के लिए जो साहित्य लिखने वाले रचनाकार हैं वह सामान्यतः बड़ों के लिए भी साहित्य लिख रहे होते हैं तो बड़ों के लिए जो साहित्य लिखा जा रहा है उसका स्तर थोड़ा कठिन भी होता है तो चल जाता है। बड़े पाठक उसको आसानी से समझ लेते है, जबकि बाल पाठक को सहज-सरल सामग्री की आवश्यकता होती है तो संपादक के नाते हमको इस बात की चिंता करना पड़ती है कि साहित्यकार ने यदि उसको थोड़ा कठिन बनाया क्लिष्ट बनाया तो उसको सरल बनाकर के बच्चों तक प्रस्तुत कर सकें।

एक तीसरी चुनौती बाल पत्रिका के संपादक के सामने यह होती है कि छोटे-छोटे बच्चे अपनी रचनाएँ भेजते हैं और हमारा मूल हेतु भी यही होता है कि वह बच्चे रचनाकार उनकी तरह प्रवृत्त हों, उनके लिखने का अभ्यास बढ़े तो मुझे ऐसा लगता है कि एक संपादक को जैसे वो जीवन बीमा निगम का एक सिंबल में याद करता हूँ जो प्रतीक चिह्न है उसमें दो हथेलियाँ भी हैं और बीच में दीपक रखा हुआ है। बाल साहित्यकार को बाल पत्रिका के संपादक को योगक्षेमं वहाम्यहम् उस पंच लाइन के साथ याद रखना चाहिए। कि हम उसके योग क्षेम को वहन करने के लिए हैं। वास्तव में और उस बच्चे को संरक्षण देते हुए उसको क्या ठीक रहेगा तो उसकी रचनाओं को भी अच्छा स्वरूप देना कभी-कभी। हमको यह भी करना पड़ता है कि बाल पत्रिका के संपादक के नाते कि बच्चा जो रचना लिखकर भेजता है उसको आमूलचूल परिवर्तन कर देते हैं। हम 80 प्रतिषत तक उस रचना को परिवर्तित कर देते हैं लेकिन बच्चे को जिस दिन यह पता लगेगा कि मेरे नाम से रचना छपी है, मैंने जो लिखी थी उसमें यह गलतियाँ थीं, बाद में उसको यह ठीक कर लिया गया या संपादक ने ऐसा ठीक किया है तो बच्चे के मन में निरुत्साहित होने के बजाय उत्साह आ जाएगा। अगर वह लगातार लेखन से जुड़ा रहेगा, पठन-पाठन से जुड़ा रहेगा तो एक प्रश्न का दो हिस्सों से मैंने आपको उत्तर दिए।

 

प्रश्न: एक संपादक में किन गुणों का होना आवश्यक है?

उत्तर: जया जी मुझे ऐसा लगता है कि सबसे महत्त्वपूर्ण गुण तो यह होना चाहिए कि संपादक को नीर-क्षीर विवेक शब्द का मैंने प्रयोग किया था। सच को सच कहने का साहसी संपादक को होना बहुत जरूरी है। दूसरी बात वह पक्षपाती नहीं होना चाहिए। कई बार हम लोगों को कुछ चीजें ऐसी भी मिलती हैं सामग्री ऐसी भी मिलती है जो हमको ऐसा लगता है कि मेरा जो व्यक्तिगत विचार है उसके विरुद्ध कहीं जा रहा है लेकिन उसके बाद भी उस रचना को परिचय देना उसको प्रोत्साहन देना, यह काम तो हमको करना ही चाहिए। संपादक का काम जैसा अपन पंच परमेश्वर कहानी में एक अच्छा सूत्र वाक्य प्रेमचंद्र जी ने कहा था कि पंचों के मुख से परमेश्वर बोलता है। मुझे लगता है कि यह सब संपादक के ऊपर भी लागू होता है। संपादक के ऊपर भी परमेश्वर बैठा होता है, उसको इस बात का ध्यान रखना चाहिए।

 

प्रश्न: एक संपादक को किन बातों से बचना चाहिए?

उत्तर: जिन चीजों से बचना चाहिए, जिसे अंग्रेजी में सामान्यतः डज एन डोंट कहते हैं कि करनी कार्य और अकरणीय कार्य। मुझे ऐसा लगता है कि यह करनीय और अकरनीय कार्यों की सूची वैसे तो बहुत बड़ी है लेकिन मैंने जिन कामों को करने की बात की है पहले प्रश्न के उत्तर में उसके विपरीत बातें जो होंगी वह अपने कार्यों में होंगी जैसे उदाहरण के लिए अगर मैं बाल पत्रिका का संपादन कर रहा हूँ और मुझे ऐसा लगा कि कोई बहुत कठिन रचना आ गई है, यदि मैं उसको सरल नहीं करता तो यह एक प्रकार से पाठकों के साथ अन्याय होता है। यह मेरे लिए करणीय कार्य है और अकरणीय कार्य ऐसी कठिन रचना को पाठकों को नहीं सौंपना चाहिए। इसका विपरीत हिस्सा। इसी प्रकार से बड़ों के साहित्य में भी इन दिनों सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने के लिए दुर्भाग्य से हम यह देखते हैं कि कई बार बहनें साहित्यकार जो महिला साहित्यकार हैं वे भी इस सब में लिप्त रहती हैं। अनावश्यक ऐसे विषयों को जो भारतीय समाज में थोड़ा सा ढके-छुपे शब्दों में हम जिनका उल्लेख करते हैं, उनको अनावृत करके प्रस्तुत करने की कोशिश करते हैं। उनको अनावृत दोनों साहित्यकार करते हैं और सब जानते हैं कि उसकी समीक्षाएँ, उसकी चर्चाएँ बहुतायत में होती हैं। इस प्रसिद्धि की भूख में वह कुछ भी लिखने लगते हैं। केवल बहनों से नहीं यह शिकायत है पुरुष से भी है। सब यह कार्य कर रहे हैं। मेरा ऐसा मानना है कि कोई भी साहित्यकार जिस समय लिखता है या संपादक जिस समय किसी रचनाकार की रचना आती है उसको इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि यही पत्रिका अंततः मेरे परिवार में मेरे घर की टेबल पर भी रखी रहेगी और इसको मेरी सोलह 18 साल की बेटी भी पढ़ने वाली है, मेरी माँ भी पढ़ने वाली है जिसकी उम्र 75 वर्ष की है। यदि इन दो कसौटी पर खरी उतरती है तो मुझे उस रचना का उपयोग करना चाहिए। अन्यथा इन दिनों हम कहते तो बहुत हैं कि साहित्य जो है सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय होना चाहिए लेकिन वह होता है क्या? इस प्रश्न का उत्तर संपादक को अपने आप से करना चाहिए तो इन कसौटियों पर जो खरी नहीं उतरती वो सब नहीं करना है, ऐसा मेरा मानना है।

 

प्रश्न: हम मानते हैं कि देश को सांस्कृतिक एकता में बाँधने के लिए केवल भाषा ही महत्त्वपूर्ण है और वह है हमारी हिंदी। इसके राष्ट्रभाषा बनने के लिए हमें क्या योगदान करना अभी बाकी है।

उत्तर: देखिए इस प्रश्न में मुझे ऐसा लगता है कि तकनीकी रूप से हिंदी के लिए हम लोगों ने कई विशेषणों का उपयोग किया है। हमने पहले कहा कि यह लोक की भाषा है फिर हमने कहा कि यह राज्य कार्य के संचालन की भाषा है फिर हमने कहा कि यह सोशल मीडिया के उपयोग की भाषा भाषा बन गई लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि अब केवल राष्ट्रभाषा इस विशेषण के पीछे भागने के बजाय हम हिंदी को इस रूप में देखना प्रारंभ करें कि जिस रूप में वह वास्तव में पहुँच गई है। आज हिंदी विश्व भाषा बन करके उभरी है। एक समय था कि आवेदन-निवेदन करते रहते थे लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ ने संपर्क भाषा ही नहीं बनाई हिंदी को लेकिन आज स्थिति यह बन चुकी है कि हिंदी में ट्वीट करना, हिंदी में यूएनओ के फेसबुक पेज पर समाचारों को देना, यह उसे सम्मान का सूचक मानते हैं। अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में इस समय हिंदी हो, संस्कृत हो या अन्य भारतीय भाषाएँ हों इन सब को पर्याप्त सम्मान मिल रहा है और मुझे ऐसा लगता है कि अब तो हिंदी के विश्व भाषा वाले स्वरूप की अर्चना करने के लिए हम लोगों को तैयार हो जाना चाहिए। यह स्थान हिंदी को दिलाने के लिए हम जैसे छोटे-छोटे लोगों को प्रयास करना चाहिए। करते रहेंगे लेकिन हिंदी स्वयं अपनी शक्ति के बूते इस स्थान को हासिल कर चुकी है। इस बात का आभास अब पूरी दुनिया को हो रहा है। हमको भी होना चाहिए और इसलिए मैं सूत्र वाक्य हिंदी के संबंध में बात करते समय कहता हूँ कि हिंदी भाषा को अब भक्ति कि नहीं बल्कि शक्ति देने की आवश्यकता है और यह शक्ति इस बात से प्राप्त होती है हमारी भाषा को कि हम उस भाषा का उपयोग अपने दैनिक जीवन में कितना कर रहे हैं।

 

प्रश्न: तो क्या हमें शासन से कोई अपेक्षा रखनी चाहिए। इसमें एक प्रश्न यह भी आता है कि जो शासन के कार्य उसमें अभी भी अंग्रेजी का प्रयोग हो रहा है, हिन्दी नहीं ही करेंगे ऐसा चल रहा है।

उत्तर: देखिए मेरा इस विषय पर स्पष्ट मत रहता है कि सामान्यतः जब अच्छे काम हम करने निकलते हैं तो उन कामों को लेकर सरकार के भरोसे हम लोगों को बिल्कुल ही रहना चाहिए। और इसलिए मजाक में मैं कई बार एक हाईफन का उपयोग करते हुए और नहीं करते हुए दो शब्द प्रयोग करता हूँ। मैं कहता हूँ कि असरकारी काम ही अ-सरकारी होते हैं। आप केवल उसके बीच का डेष हटा दीजिए तो असरकारी यानी जिसमें असर होता है। किसी बात में बल होता है, वह सारे काम तो समाज करता है, सरकारें नहीं करतीं। सरकार वह करती है जो इच्छा शक्ति समाज दिखाता है। आप देखिए कि एक लंबे समय तक फिल्मी दुनिया के लोग यह तर्क देते रहे कि जो समाज चाहता है वह हम कर रहे होते हैं और इस नाम पर अश्लीलता और तमाम प्रकार की चीजें परोसते गए। लोग चुपचाप देखते रहे, परिवार के साथ बैठकर देखते रहे, लेकिन इस समय जो वातावरण में परिवर्तन आया है, वह हमको दिखाई देता है। झाँसी की रानी पर फिल्म बन रही है, तानाजी पर फिल्म बन रही है, आर्मी के जीवन पर फिल्म बन रही है, सेना को महिमामंडित कर रहे हैं। राष्ट्र की सुरक्षा और राष्ट्र की अस्मिता से जुड़े हुए विषय पर जहाँ पर हम गौरव की अनुभूति करते हैं, उन विषयों पर फिल्में बन रही हैं। ये फिल्में भी साहित्य ही हैं। दरअसल मुझे ऐसा लगता है कि जो परिवर्तन वहाँ दिखाई दे रहा है। वह साहित्य में भी दिखाई दे रहा है। और इसलिए हम लोगों को इस बात की चिंता करना चाहिए कि केवल हम समाज में ऐसी शक्ति पैदा करें कि वह सकारात्मक दिशा में काम करने के लिए बाध्य कर दे सबको।

 

प्रश्न: क्या आप भी दक्षिण को इसका विरोधी ही मानते हैं।

 

उत्तर: मेरा ऐसा मानना है कि दक्षिण भारत कभी भी न तो संस्कृत विरोधी रहा है, न हिंदी विरोधी रहा  यह केवल कुछ राजनीतिक दिमाग की उपज भर रही है। अन्यथा कई बार मैं तो इन सब बातों का उल्लेख भी करता हूँ कि जिस रामकथा को वाल्मीकि जी ने संस्कृत में रामायण के रूप में सामान्य समाज को सौंपा। वाल्मीकि रामायण का सबसे पहला किसी भारतीय भाषा में अनुवाद हुआ जो वह कंब रामायण के रूप में हुआ और वह दक्षिण भारत की भाषा है। दक्षिण भारत को अपनी संस्कृति से, अपनी भाषा से किसी प्रकार का परहेज नहीं रहा और इसलिए मेरा ऐसा मानना है कि दक्षिण भारत में तो एक समय था कि लोगों को यह भ्रांतियाँ रहा करती थीं आप जब जाते हैं और किसी से रास्ता पूछेंगे तो गलत रास्ता बता देंगे। रिक्शावाला आपको सही जगह पर नहीं पहुँचाएगा, लेकिन आज स्थिति यह है कि आप वहाँ पर रिक्शा में बैठी है और बड़े आराम से हिंदी फिल्मी गीतों को सुनिए वह बहुत अच्छी हिंदी बोलता है और अब यह स्थिति केवल दक्षिण भारत की नहीं बल्कि अब पूरी दुनिया की हो गई है।

पिछले दिनों जब मैं शांत गया था तो वहाँ  की स्थिति भी मैंने देखी। वहाँ पर हमारे गाइड बड़ी अच्छी हिंदी बोल रहे थे। संस्कृत के श्लोक उद्धृत कर रहे थे। कुछ लोग अन्य भारतीय भाषाओं में भारतीय भाषाओं में बोलने में गौरव की अनुभूति अनुभव करते हैं। वास्तव में अब तकनीकी के कारण यह सब चीजें इतनी सुलभ हुई हैं कि हम लोगों को इस बात की चिंता छोड़ देनी चाहिए कि राजनीतिज्ञ लोग क्या कर रहे हैं। भाषा की दृष्टि से पूरा भारत एक सूत्र में बँधा हुआ है और सारी भारतीय भाषाएँ हमारी अपनी हैं।  इसलिए मैं एक निवेदन के साथ इस प्रश्न का उत्तर खत्म करना चाहता हूँ कि हम यह चिंता जरूर करें कि अगर हम दक्षिण भारत के लोगों से अपेक्षा कर रहे हैं कि वे हिंदी को सम्मान दें, हिंदी के शब्दों का प्रयोग करें, हिंदी में लिखें, हिंदी बोलें तो सबसे पहले हमको इतनी उदारता दिखानी पड़ेगी कि हम जितना जोरदार ढंग से अंग्रेजी में गिटपिट करते हैं, कभी हमने तमिल के दो शब्द सीखने का प्रयास किया क्या? कन्नड़ के चार शब्द सीखने का प्रयास किया क्या? हम कभी एक वाक्य गुजराती, मराठी का सीखने का प्रयास करते हैं क्या? अगर यह सब हम करने लगें तो अपने आप इन सब भाषाओं के बीच में सामंजस्य बनने लगेगा।

 

 

प्रश्न: परंपराओं की बात करें तो आधुनिकता की दौड़ में पिछड़ रही हैं। इस बारे में आप किसे दोषी मानते हैं।

उत्तर: मुझे ऐसा लगता है कि भारतीय संस्कृति, भारतीय समाज यह सब के सब विशुद्ध रूप से परंपरा आधारित हैं। हम लोगों ने ज्ञान-विज्ञान से कभी परहेज नहीं किया लेकिन यह भी तय है कि हम अपनी परंपराओं को त्यागे नहीं हैं। परंपराओं को सामान्यतः मैं कई बार जब युवा और बच्चों के बीच बात करता हूँ   तो बात को थोड़ा सरल करके बताना होता है। मैं उन लोगों को कहता हूँ कि यदि आपको चलना है तो चलने की पहली शर्त यह है कि आपका एक पैर जमीन पर टिका होना चाहिए और दूसरा पैर हवा में उठा होना चाहिए। आपका यह जो हवा में उठा हुआ है यह वास्तव में प्रगति है यह वास्तव में विज्ञान संबद्ध है यह आधुनिकता है लेकिन जो पैर आपका जमीन पर टिका हुआ है, वह आपकी परंपरा है। कल तक जो परंपरा थी वह प्रकारांतर से बाद में आधुनिकता बनती है। आधुनिकता परंपरा बनती और परंपरा आधुनिकता बनती है। यह क्रम लगातार चलता रहता है। हमको यह सोचना ही नहीं चाहिए कि हमारी परंपरा अवैज्ञानिक है और इसलिए इन दिनों में बड़ा प्रसन्न होता हूँ कि इस नई पीढ़ी को संस्कार देने, परंपराओं से जोड़ने के लिए पूरा समाज लालायित है। और माता-पिता अपने बच्चों को देना चाहते हैं और कहीं न कहीं घर के बुजुर्ग चाहते हैं कि परिवार में यह संवेदना बनी रहे और हम अपनी जड़ों से जुड़े रहें ,तो मुझे लगता है कि इस दिशा में चिंता करने की आवश्यकता नहीं है।

 

प्रश्न: परिवार परंपरा या कहें कि संयुक्त परिवार समाप्त प्राय हैं। हमें इसे कैसे बचाना होगा। आपके विचार बताएँ।

उत्तर: सचमुच यह इस समय बहुत बड़ा चिंता का विषय है और यह पूरे विश्व के लिए चिंता का विषय है, केवल भारत के लिए नहीं क्योंकि विश्व हमसे आधुनिकता के नाम पर कुछ आगे चल रहा है और दुर्भाग्य से उसने सबसे पहले जिस महत्त्वपूर्ण कारक को नष्ट किया वह परिवार परंपरा थी। मैं कई बार एक उदाहरण देता हूँ  कि मार्गरेट थैचर जब ब्रिटेन से यात्रा पर भारत आई थीं तो उन्होंने राजीव गांधी जी हमारे उस समय के प्रधानमंत्री होते थे, उनसे आग्रह किया था कि आप मेरा राजनैतिक प्रवास रखिए, उद्योगपतियों से मिलूँगी, राजनेताओं से सबसे मिलूँगी लेकिन दो दिन के प्रवास में मेरा पूरा एक दिन किसी संयुक्त परिवार में चाहिए और उस समय कोई शासकीय कार्य नहीं करूँगी। आनन-फानन में भारत सरकार के अधिकारियों के लिए भी यह आश्चर्य का विषय था कि यह कैसी माँग है; लेकिन मार्गरेट थैचर को राजस्थान के एक परिवार में रखा गया जिस परिवार में संभवतः 84 सदस्य एक चूल्हे पर रोटी खाते थे। तो वह दिन भर वहाँ रहीं और यहाँ से जब वह वापस ब्रिटेन लौटीं तो उन्होंने पूरे राष्ट्र के नाम संदेश दिया। टेलीविजन पर उन्होंने कहा कि यदि ब्रिटेन की संस्कृति को, ब्रिटेन देश को बचाना चाहते हैं तो भारत से हमको भारतीय परिवार परंपरा सीखनी चाहिए। मुझे ऐसा लगता है कि यह जो टूटे हुए परिवार हैं। इनकी ओर पूरी दुनिया आकर्षित हो रही है और अगर हमसे दूर हो गए तो इससे बड़ा दुर्भाग्य और कुछ नहीं होगा। अब हमको वापस यह न्यूक्लियर फैमिली या एकल परिवार परंपरा से संयुक्त परिवार परंपरा की ओर लौटना चाहिए। यह आग्रह पूरे समाज का एक साथ होगा तो मुझे ऐसा लगता है कि बहुत जल्द यह परिवर्तन दिखाई देने लगेगा।

प्रश्न: मैंने देखा कि लंदन में एक ही परिवार के 28 सदस्य एक साथ छुट्टी मनाने बीच पर आए थे। यह अलग बात है कि उनके साथ पहली पत्नी के बच्चे का परिवार भी था और पत्नी के पहले पति के बच्चे भी।

 उत्तर : हाँ और देखिए इसमें थोड़ा सा अंतर आता है कि अब आपने जैसा कहा है कि वह पहली पत्नी का बच्चा, दूसरे पति का बच्चा और मुझे एक अच्छा प्रसंग ध्यान में है कि एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और माँगू वैद्य जी। बहुत अच्छे पत्रकार रहे, करुण भारत के संपादक भी रहे, एक बार ट्रेन में यात्रा कर रहे थे। एक विदेशी जोड़ा सामने बैठा था। दोनों आई और बाबा पति-पत्नी यात्रा कर रहे थे। उस विदेशी जोड़े से चर्चा की तो उन्होंने पूछा कि भाई आप दोनों का क्या रिश्ता है। हम पति-पत्नी हैं और बातचीत होते-होते उन्होंने बताया कि यह मेरी तीसरी पत्नी और मैं इनका चौथा पति हूँ। उनको जिज्ञासा थी कि यह इतने बुजुर्ग दंपत्ति बैठे हैं, 80 साल की अवस्था से ऊपर हैं, एक 75 से ऊपर की अवस्था तो उन्होंने पूछा कि आपका कौन सा विवाह है। उन्होंने कहा कि यह पहला और आखिरी विवाह है और हमारे वैवाहिक जीवन को इतने दशक बीत गए हैं और हमारे यहाँ यही परंपरा है कि हम एक ही विवाह करते हैं, जीवन में। उन लोगों के लिए यह बड़ा आश्चर्य हुआ। तो मेरा ऐसा कहना है कि जब हम संयुक्त परिवार की बात करते हैं तो उसमें परिवार की यह जो शुचिता और मर्यादा की बातें आती हैं, इनको भी हमें समाहित करना चाहिए, ऐसा मुझे लगता है।

 

प्रश्न: मैंने आपके साक्षात्कार में पढ़ा है कि आप परिवार की सनातनी परंपरा के अंतर्गत पले-बढ़े हैं पर क्या इस दौर में यह संभव है। यदि है तो त्याग और तपस्या किसे करना होगी।

उत्तर: यह तो आपने सच कहा कि मेरा पूरा जो लालन-पालन हुआ है, मेरे जन्म से लेकर के अब तक का जो लालन-पालन है, वह जिस परिवार में हुआ वह अत्यंत परंपरागत परिवार रहा। विशेष करके दादाजी, पिताजी सब कर्मकांड करवाते रहे। पंडिताई का कार्य रहा, घर में पूजा-पाठ, हवन करवाना हो या कथा भागवत हो या व्यास पीठ पर बैठकर कथा करने से लेकर, परिवारों में जाकर के सत्यनारायण की कथा करने तक सब कुछ हमारे परिवार में होता रहा है और मुझे इस बात का सौभाग्य अनुभव होता है कि मैं उस परंपरा को अब तक जीवित रखे हुए हूँ। मैं भी इन सारे कामों को कर लेता हूँ सारे कर्मकांड करवाना मुझे आता है। कथा मैं करता हूँ। सब कुछ है; लेकिन इस सब के लिए कोई तपस्या करने की आवश्यकता नहीं है। सबसे पहली आवश्यकता है जिसे आप तपस्या कह रहे हों, उसको आप यह कहना चाहते होंगे कि इसके लिए हम शर्म अनुभव न करें। हमारे परिवार में मान लीजिए परंपरा से जो चीज चली आ रही है, उसको स्वीकारने में हम संकोच क्यों करें। इस संकोच को दूर करना आवश्यक है और मुझे लगता है कि यह कोई तपस्या भी नहीं है। हम कर सकते हैं मैं यदि यहाँ आज पर साहित्य अकादमी के निदेशक के रूप में दायित्व निर्वाह कर रहा हूँ, तो मुझे अगर यह लगने लगा कि दूसरा कोई काम मेरे लिए छोटा है, तो फिर समस्या आएगी फिर मुझे लगेगा कि यह तो कठोर तप हो गया कि मैं उस काम को कैसे करूँ। मुझे लगता है कि सारे कामों को करना चाहिए। भारतीय समाज जीवन व्यवस्था, भारतीय अर्थव्यवस्था इन दिनों जो सबसे बड़ी चुनौती भोग रही है, वह चुनौती यही है कि हम लोगों ने अपने-अपने परंपरागत काम करने बंद कर दिए हैं। केस- कर्तन का काम जो परिवार करता था पिताजी के बाद बच्चों ने छोड़ दिया और उस काम को कुछ व्यावसायिक लोगों ने अपना लिया। बढ़ई का लकड़ी का काम है, लोहारी का काम है, यह परंपरागत ढंग से चले आ रहे थे, बच्चों ने छोड़ दिए। मुझे लगता है कि इस सब के लिए नई सोच की आवश्यकता है। हम अपने परंपरागत कामों को लगातार जारी रखें इसकी जरूरत है।

 

प्रश्न: आप जबसे अकादमी में आए हैं हिंदी के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं को आगे बढ़ाने में अग्रसर हैं। आपका अगला पड़ाव क्या है।

उत्तर: हम लोगों ने यह प्रयास तो किया ही अकादमी में की कुछ ऐसी विधाएँ जिन पर बहुत अधिक मात्रा में लेखन नहीं हो रहा है, उन विधाओं में लेखन को प्रोत्साहन देना है। जैसे पत्र विधा, संस्मरण है, डायरी है, रिपोर्ताज है, मुझे जितने साहित्यकार मिलते हैं मैं उनसे बार-बार आग्रह करता हूँ, कार्यक्रमों में बोलते समय इस बात को बार-बार अंकित करता हूँ कि हमको पूर्ण विधाओं में लिखना चाहिए। जिन विधाओं में लेखन लेखन कम हो रहा है। एक तो हमारा आगामी लक्ष्य है सभी विधाओं में लेखन हो। यह अच्छा है कि हमारे पास उन सभी विधाओं में सामान्य पुरस्कार भी हैं। प्रयास हम यह कर रहे हैं कि इस तरह की जो अल्प प्रचलित विधाएँ हैं, उनमें लेखक को हम बढ़ावा दें। बोलियो में मध्यप्रदेश में छ बोलियाँ हैं? उन छ बोलियों में हम लेखन को भी प्रोत्साहन दे रहे हैं और इसके साथ-साथ हम यह भी प्रयास कर रहे हैं। साहित्य का एक बहुत महत्त्वपूर्ण पक्ष है और कभी-कभी तो मुझे ऐसा लगता है कि इन दिनों वह ज्यादा बलवती हो गई है, वह है मंचीय कविता का क्षेत्र। मंचों पर कविताएँ पढ़ना, कवि सम्मेलन होना, काव्य गोष्ठियाँ होना, यह अपने आप में एक प्रकार की ऐसी विधा है जिसमें लेखन और वक्तृत्व इन दोनों का समन्वय अनिवार्य होता है। हम यह कोशिश कर रहे हैं कि लंबे समय से अभी चूँकि मंचीय कविता के 100 साल हो गए हैं तो मैं इस प्रयास में लगा हूँ कि मंचीय कविता में पिछले 10, 20, 30 वर्षों में जिस प्रकार की विकृतियाँ आई हैं, मंचों पर, जिस प्रकार की अश्लील फब्तियाँ कसी जाती हैं, संचालक और बहनें जो कवयित्रियाँ हैं, उनके बीच में द्विअर्थी संवाद होते हैं, इन सबको तिलांजलि देकर, इनको निर्ममता पूर्वक मंचों से हटाना है। इस अभियान में मैं लगातार लगा हूँ और मेरा सौभाग्य है कि मंचीय कविता से जुड़े हुए लगभग 99 प्रतिष्ठित कवि मेरे साथ इस मोर्चे पर लगे हुए हैं। हम सब लोग मिलकर प्रयास कर रहे हैं कि इसको ठीक करें और दूसरा प्रयास हम यह है कि जितने प्रकार की गड़बड़ियाँ मंचों पर हो रही हैं, उन गड़बड़ियों को भी ह दूर करने का प्रयास कर रहे हैं।

 

प्रश्न: समाज में व्याप्त समस्याओं और समाधानों के बारे में एक संपादक की दृष्टि से आपके क्या विचार हैं।

उत्तर: निश्चित बात है कि इन दिनों जो हमको समाज में विकृति दिखाई देती है अतः उसका समाधान समाज के लोगों को ही खोजना है। हम अपनी भूमिका से बच नहीं सकते यदि इन विकृतियों को देने में हमारा हाथ नहीं है तो भी समाधान की दिशा में हमको प्रयास करना ही पड़ेंगे। और समाधान के साथ खड़ा होना पड़ेगा। इस दृष्टि से न तो संपादक बच सकता है और न साहित्यकार बच सकता है। साहित्य जगत से जुड़े हुए व्यक्ति को अपनी भूमिका का निर्वाह करना चाहिए लेकिन इसमें एक सतर्कता की जरूरी है। मैं आवश्यकता अनुभव करता हूँ और आवाहन भी करता हूँ बार-बार साहित्यकारों से कि पाश्चात्य विचारों के प्रभाव से वामपंथी विचारों के प्रभाव के कारण हम देखते हैं कि हमारी परंपरा को ही कालबाहर घोषित कर दिया है। धोती वाले की मजाक बनाना है, धर्म और संस्कृतियों से जुड़े हुए लोगों का मजाक बनाना है।  इन सारी बातों को लेकर मुझे कई बार लगता है कि हम लोगों को इस बात की चिंता करना चाहिए कि आखिरकार रिजेक्शन जो करना है, त्याग करना है तो किन चीजों का करना है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि कुछ लोगों ने हमको बता दिया है कि आपके गौरव से जुड़ी हुई सारी चीजें जो हैं, वही सारी चीजें बेकार हैं और हमने उसी के खिलाफ मोर्चा खोल लिया, इस थोड़े से अंतर को समझ कर और उसके बाद ही विकृतियों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। हमारी जो सकारात्मक चीजें हैं उनको हम समस्या न समझें। सूत्र रूप में मेरा याद रहता है।

 

प्रश्न: क्या आप भी घटते नैतिक मूल्यों को इसका कारण मानते हैं।

उत्तर: देखिए नैतिक मूल्यों की गिरावट को लेकर जिम्मेदारी तय करना है तो मुझे ऐसा लगता है, अक्सर ऐसा होता है कि हम बचने की कोशिश करते हैं। आपकी पीढ़ी, मेरी पीढ़ी यह कह देगी की जो नई पीढ़ी है वह गड़बड़ हो रही है। लेकिन मेरा ऐसा मानना है कि इस नई पीढ़ी में अगर हम इसको विकृति मानते हैं तो यह विकृति देने का काम भी हमारी पीढ़ी ने ही किया है। यदि हम ऐसा सोचते हैं कि हममें कुछ सकारात्मक संस्कार हैं तो वह क्या हमने अंदर से पैदा थोड़े ही किए हैं, हमारी पिछली पीढ़ी के लोगों ने हमें सौंपे हैं। हमारी पिछली पीढ़ी जिस काम को बड़ी आसानी से करती रही, उस काम को करने में हमारी पीढ़ी असफल रही तो हमें चुकाना पड़ेगा। इस गड़बड़ी में थोड़ा हाथ हमारा भी है।

दूसरी बात एक बड़ा कारण तकनीकी भी रही है। इन दिनों इंटरनेट और तमाम प्रकार के चैनल जो रहते हैं लेकिन आप देखिए कि इन दिनों इंटरनेट का भी सदुपयोग प्रारंभ हो गया है। इन दिनों जो सोशल मीडिया के प्लेटफार्म हैं, उनका सदुपयोग प्रारंभ हो गया है। धीरे-धीरे हर एक चीज में विकृतियाँ आती जाएँगी और उनका समाधान हम खोजते चलेंगे, उनका परिहार करते चलेंगे। ऐसा मुझे लगता है। जल्दी ही यह सब चीजें ठीक होंगी।

 

प्रश्न: लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि अभी जो ये कोरोना काल में बहुत ज्यादा पढ़ाई के लिए या अन्य संसाधनों के लिए इंटरनेट का उपयोग किया गया, इससे युवा वर्ग में एक प्रकार ऐसी दुर्भावनाएँ जाग्रत हुईं। उन्होंने इंटरनेट का दुरुपयोग करना आरंभ कर दिया। उनको सुविधा पढ़ाई के लिए दी गई, उनका उन्होंने गलत प्रयोग किया और इससे उन्होंने माँ-बाप को भी अपना ग्रास बनाया है।

उत्तर: यह बात तो आपने सच कही कि कोरोना काल में एक बड़ा भारी परिवर्तन यह आया कि जो गैजेट्स हम बच्चों के हाथ में देने से कतराते थे, कहते थे कि बच्चों को अभी मोबाइल नहीं देना। उन बच्चों को हमने 25,000-30,000 के मोबाइल खरीद-खरीद कर दिये, इंटरनेट के कनेक्शन दिलाए, लैपटॉप पर उनकी क्लास चल रही है। लेकिन मुझे लगता है कि तकनीकी तो मनुष्य के जीवन में प्रवेश करेगी। हम लोगों को केवल यह चिंता करना चाहिए कि इसके जो साइड इफेक्ट हैं, जो विकृतियाँ आने वाली हैं, उन विकृतियों को हम लगातार थोड़ा-थोड़ा करके, उसका कुछ इलाज भी साथ-साथ सोचते चलें। मुझे लगता है कि समाधान हो जाएगा। यह ठीक है कि हमारे रहते, अपने बच्चे अगर नहीं करेंगे तो कल को एकांत में उन चीजों का दुरुपयोग कर सकते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि जो बात चिकित्सा विज्ञान में कही जाती है कि रोग आ जाए शरीर में और उसका इलाज करें इससे बेहतर यह है कि हमें इस बात की चिंता करें कि रोग शरीर में प्रवेश न करे। यह तो योग का देश है, इसको रोगों से डरने की आवश्यकता नहीं है। वे रोग शरीर के हों या सामाजिक जीवन के हमारे यहाँ इस बात की पर्याप्त व्यवस्था है कि हम इन लोगों का समाधान कर सकते हैं।

 

प्रश्न: आपने लोक संस्कृति के विकास की दृष्टि से बोलियों के कार्य क्षेत्र  में भी पुरस्कार स्थापित किए क्या युवा वर्ग को जोड़ने की कोई योजना है?

उत्तर: हाँ हमने बोलियो को लेकर के जो पर्याप्त काम करने का जो प्रयास किया है और सम्मान पुरस्कार जो बोलियों के क्षेत्र में मध्यप्रदेश शासन देता ही है और इस दिशा में हमने यह जरूर सोचा है कि इन बोलियों पर काम करने वाले जो लोग हैं उनको हम एक प्लेटफार्म पर इकट्ठा करने की कोशिश कर रहे हैं विशेष करके हमारे ध्यान में आता है कि जो बोलियाँ होती हैं, उन बोलियों की भाषा बनने की जो यात्रा है उसमें कुछ चीजें बहुत महत्त्वपूर्ण होती हैं, जैसे किसी भी बोली का व्याकरण है कि नहीं, किसी बोली के लोकोक्ति मुहावरों का संग्रह है कि नहीं, किसी बोली के शब्दकोश संग्रहित किए गए हैं कि नहीं। यह बड़े तकनीकी प्रकार के काम होते हैं। उन बोलियों के व्याकरण तैयार हैं क्या, वह छप कर डॉक्यूमेंटेशन हो चुका है क्या? हम कोशिश कर रहे हैं कि उनके मूल लेखन को तो प्रोत्साहन दें ही। इस प्रकार की तकनीकी सामग्रियों का भी प्रकाशन लगातार बढ़ता रहे, यह प्रयास हम लगातार कर रहे हैं। मुझे ऐसा लगता है कि बोलियों की जो प्रगति हम चाहते हैं उस प्रगति की दिशा में यह कुछ बड़े कारक बनेंगे।

 

प्रश्न: एक बाल साहित्यकार होने के नाते आपने साक्षात्कार का विशेषांक निकाला और निरंतर लेखन भी कर रहे हैं। क्या आपको लगता है कि यह पर्याप्त है या अभी और भी बहुत कुछ करना शेष है?

उत्तर: बाल साहित्य के दो विशेषांक साक्षात्कार के निकाले हैं और साक्षात्कार पत्रिका के दोनों ही विशेषांक ऐतिहासिक इस दृष्टि से समृद्ध हैं। एक विशेषांक तो हमने निकाला था तो उसमें बाल साहित्य, बाल मनोविज्ञान, बाल पत्रकारिता इन सब विषयों को समाहित करते हुए लगभग शोध आलेख प्रकार की सामग्री ली और करीब 300-350 पेज का बहुत समृद्ध विशेषांक तैयार हुआ। वह तो विमर्शात्मक था लेकिन जो मैंने पहले उल्लेख किया था कि मैं बारंबार इस बात का प्रयास करता हूँ कि जो विधाएँ प्रचलित हैं उनको भी प्रोत्साहन देना है इसी दृष्टि से हमारा बाल साहित्य का दूसरा जो विशेषांक था उस में आत्मकथात्मक आलेख मैं वायुयान हूँ। मैं इंटरनेट हूँ। मैं चुंबक हूँ। मैं पर्यावरण हूँ, इस तरह के जो लेख बच्चों के लिए लिखे जाते हैं, इस प्रकार के विषय शामिल किए। पर मुझे लगता है कि भारत का अब तक का एकमात्र विशेषांक किसी पत्रिका का होगा। आज तक इस प्रकार का नहीं निकला है। तो ऐसे दो विशेषांक यशस्वी हुए।

मूल प्रश्न आपने कहा कि जो कार्य कर रहे वह पर्याप्त है कि नहीं, मुझे ऐसा लगता है कि अच्छे काम की कोई सीमा नहीं है और कभी पर्याप्त नहीं होते और चूँकि पीढ़ियाँ बदलती जा रही हैं, वातावरण बड़ा बदलता जा रहा है, माध्यम बदलता जा रहा है इसलिए हमको लगातार अद्यतन बढ़ते हुए आने वाली नई पीढ़ी जो हमसे और ज्यादा आधुनिक पीढ़ी तैयार हो रही है, विज्ञान की दृष्टि से समृद्ध है, तो हमको अभी यह कोशिश करना पड़ेगी कि उनके स्तर पर जाकर बाल साहित्य रचा जाए। मुझे लगता है कि यह एक बड़ा काम हो जाएगा और यह काम कभी नहीं रुकने वाला है, यह बात पक्की है। भारत में मैं इस बात की कमी अनुभव करता हूँ कि जैसे एक विश्व विश्वविद्यालय गुजरात में खुल गया है, ‘चिल्ड्रन यूनिवर्सिटी’ वैसा ही भारत के प्रत्येक राज्य में ‘एक चिल्ड्रंस यूनिवर्सिटी’ होनी चाहिए, जो बच्चों से जुड़े हुए प्रत्येक विषय पर रिसर्च करें और समाज को और अकादमिक क्षेत्र को लगातार अपने निष्कर्षों से अवगत कराती रहे।

 

प्रश्न: एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न कि पाठक मंच की जो योजना सुचारू रूप से चल रही थी, उसे विगत वर्ष से रोक दिया गया। क्या उसे पुनः आरंभ करने की योजना है?

उत्तर: वास्तव में पाठक मंच की योजना तो एक थोड़े से गति अवरोध का शिकार हुई है। ऐसा हुआ था कि पिछले चार-पाँच वर्षों के सम्मान-पुरस्कार, अकादमी के बाकी थे और मेरे सामने वैकल्पिक रूप से यह स्पष्ट कर दिया गया था कि आप यह जो एक वर्ष का बजट है। इस वर्ष में या तो आप कार्यक्रम कर लें पाठक मंच चला लें और या फिर यह सम्मान-पुरस्कार पिछले वर्षों का दें। मुझे ऐसा लगा कि साहित्यकारों के अधिकारों का जो सम्मान पुरस्कार वह उन तक पहुँचना चाहिए। इसलिए मैंने सम्मान-पुरस्कार देने को प्राथमिकता के आधार पर तय किया। उसका शिकार यह बाकी सारी योजनाएँ हुईं। स्वाभाविक रूप से शासकीय तंत्र में यह बहुत स्पष्ट बात होती है कि अगर बजट होगा तो कार्यक्रम चलेगा। बजट के अभाव में पाठक मंच लगभग एक पूरे वर्ष में बाधित रहे और उनको पुस्तकें खरीद कर नहीं दे पाए। लेकिन इस 31 मार्च के बाद अगले आने वाले वर्ष में फिर से पहले के वर्षों में जितना काम हुआ उससे और अधिक तीव्र गति से काम होगा।

मुझे यह बताते हुए बहुत हर्ष होता है कि कल तक मध्य प्रदेश में जो 40, 45, 48 तक पाठक मंच होते थे उनकी संख्या अब 170 तक पहुँच गई है। हम तहसील और ब्लॉक लेवल तक जाकर साहित्य के प्रचार-प्रसार में इन पाठक मंचों की भूमिका को सुनिश्चित करेंगे ऐसा मेरा मानना है।

 

प्रश्न: नवोदित रचनाकारों को क्या संदेश देना चाहेंगे।

उत्तर: देखिए मुझे ऐसा लगता है कि लेखन के क्षेत्र में ही क्या बल्कि सामान्य मनुष्य के जीवन में हम लोगों ने अनुभव किया है कि हम जब छोटे थे, सबसे पहले बच्चा केवल करवट ले लेता है, तो पूरा परिवार प्रसन्न हो जाता है कि अरे आज पहली बार बच्चे ने करवट ली। वही बच्चा जब बैठने लगता है तो हम बड़े खुश होते हैं। वही बच्चा घुटनों के बल चलता है फिर पैर पर चलता है, उसको कोई हाथ पकड़ता है, कोई अँगुली पकड़ता है, दादा-दादी चलाते हैं, माँ चलाती है। यह प्रक्रिया लेखन में भी होती है। जितने नवोदित रचनाकार हैं, कोई ऐसा तो है नहीं निराला, प्रेमचंद बनकर ही अपनी माँ कोख से आए हैं, ऐसा तो हम लोग भी अनुभव नहीं करते हैं। 30-35 साल से लिख रहे हैं लेकिन अभी भी हमको सीखने की आवश्यकता है। लगातार अपने बड़ों से हम सीखते हैं। अपनी न्यूनताएँ हमारे ध्यान में आती हैं तो मुझे ऐसा लगता है कि जो नई पीढ़ी है, यह जैसा भी लिख रही है, सबसे पहली बात तो यह है कि आप सबसे पहले तो उनको यह आश्वस्ति दें कि ठीक है आपने लिखना स्टार्ट किया अच्छी बात है। क्योंकि इन दिनों बच्चे पढ़ना-लिखना छोड़ चुके हैं। पहले तो उनको प्रोत्साहन देना, उसके बाद फिर दूसरे क्रम पर जैसे हमारे भक्ति काल के कवियों ने दोहे लिखे हैं, कि कुम्हार की तरह अंदर से चोट देना और बाहर से चोट देना तो हमको मटका बनाने वाले कुम्हार की तरह हमें उन बच्चों को सहेजना पड़ेगा। उनको बताना पड़ेगा कि भाई देखिए मैं जो इससे पहले बड़े साहित्यकारों की बात कर रहा था, कह रहा था कि इन नवोदित रचनाकारों को लगातार वैचारिक जहर भरने का काम भी हमारे यहाँ चल रहा है। अच्छी चीजें हैं उन चीजों को लेकर वे लगातार विकृत प्रकार का लिख रहे हैं और जब बच्चों को ध्यान में लाते हैं तो वे कहते हैं कि अरे हमें पता ही नहीं था!

जैसे हिंदू धर्म के प्रतीकों को लेकर मजाक बनाना, सहज रूप से कोई भी कविता में लिख देता है कि संत व्यभिचारी होते हैं, मेरे कहना है कि संत शब्द कितना गरिमामय है, संत व्यभिचारी थोड़े होता है, कोई मनुष्य व्यभिचारी हो सकता है। अगर व्यभिचारी होना है, तो पादरी भी हो सकता है, मौलवी भी हो सकता है; लेकिन हम अपनी ही परंपराओं को नकारते हैं, अपने ही परंपराओं को लक्षित करते हैं बिना सोचे-समझे। इसमें बड़ा गौरव भी अनुभव करते हैं। साहित्य क्षेत्र में मेरा ऐसा निवेदन रहता है कि बच्चों को यह सब बातें हम बताते रहें, तो नई पीढ़ी इस चीज को समझेगी भी और नई पीढ़ी से तो यही आह्वान करता हूँ कि आप लोग वैचारिक दृष्टि से समृद्ध हैं। और हमारा जो कुछ अच्छा है, हमारे पुरखों ने जो ज्ञान परंपरा सौंपी है, उसके प्रति गौरव का भाव रखते हुए लिखना प्रारंभ करिए। नई पीढ़ी के हाथ में पूरी एक प्रकार से सत्ता है। लेखन की अब पिछली पीढ़ियाँ क्रमशः विदा हो रही हैं। देखते ही देखते जो वैचारिक परिवर्तन साहित्य जगत में आना है, आज जो पीढ़ी है, यह 2047 में अपने स्वतंत्रता का शताब्दी वर्ष मनाने वाली है और यह पीढ़ी तब तक 50 वर्ष की हो जाएगी। मेरा ऐसा कहना है कि इस पीढ़ी को बहुत कुछ विचार करना है। 2047 का भारत कैसा होगा, यह सुनिश्चित करेगा साहित्य और 2047 का साहित्य कैसा होगा, यह सुनिश्चित करेगा आज की युवा पीढ़ी साहित्यकारों की है तो हम सब मिलकर प्रयास करेंगे कि भारत का भविष्य उज्ज्वल होगा। यह हम सब लोग सुनिश्चित करेंगे ऐसा मुझे लगता है।

-0-डॉ. विकास दवे , संपादक साक्षात्कार एवं निदेशक साहित्य अकादमी , संस्कृति भवन , बाणगंगा चौराहा, भोपाल ४६२००३ (म. प्र .) 

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जया केतकी शर्मा 


23 अगस्त ,1965को जबलपुर म. प्र. में जन्मी, एम.ए., एलएल. बी.एम.ए, बी. एड., मास्टर ऑफ जर्नलिज्म., डीआईएसएम, राष्ट्र भाषा रत्न हैं। आपने उर्दू भाषा में डिप्लोमा भी किया है। साहित्य की विभिन्न विधाओं में सृजनरत रहते हुए भोपाल के हिंदी भवन की पत्रिका 'अक्षरा' के संपादन में सहयोग कर रही हैं।   उनकी अब तक पाँच पुस्तकें प्रकाशित हैं : साहित्यकारों के साक्षात्कार पर आधारित फेस टू फेस, भारतीय स्वाधीनता के महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व (निबंध संग्रह) , मैं प्रश्न कर रही हूँ गर्भ से (कविता संग्रह), मेरी चुनिंदा कहानियाँ एवं 'बात उस रात की'    म. प्र. साहित्य अकादमी की पत्रिका साक्षात्कार में 2012 से 2017 तक संपादन सहयोग भी किया। वे वर्तमान में विश्व मैत्री मंच की प्रांतीय निदेशक हैं।

उन्होंने दो बड़े पुरस्कार प्रायोजित किए हैं -- राधा-अवधेश स्मृति साहित्य सम्मान एवं सुन्दरबाई शंकरलाल तिवारी समाजसेवी सम्मान।

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