सोमवार, 26 नवंबर 2018

94-अब तुम करो प्रहार !


अब तुम करो प्रहार !
डॉ.कविता भट्ट 'शैलपुत्री'

घाटी में रोता-चीखता बूढ़ा खड़ा चिनार
तिरंगे में लिपट आ अब तक शहीद हज़ार ।
डल झील सिसकती रही, करती रही विलाप ॥
जागो भरतवंशियों अब तुम करो प्रहार ।

गले मिला था जिस गली में मुझसे मेरा प्यार
दामन में उसने ही भरी थी मेरे बहार ।
उसी गली में आज मैं करती हूँ यह प्रलाप ॥
जागो भरतवंशियों अब तुम करो प्रहार ।

बाबू जी उठो, तो सुनो तुम बेटे की पुकार ।
माँ पूत तेरा करेगा फिर शत्रु का संहार
अजर-अमर-अभय है माँ तेरा यह लाल
हर जनम में करेगा माँ भारती से यह प्यार ॥
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शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

93-लोकमत



‘लोकमत  समाचार’ दैनिक के   दीपावली के उत्सव प्लस विशेषांक( कला एवं साहित्य)  में मेरी चार लघुकथाओं को भी  स्थान दिया ,इसके लिए मैं सम्पादक श्री  विकास मिश्र एवं प्रकल्प सहयोगी श्री हेमधर शर्मा और श्री स्वप्निल जैन की हृदय से आभारी हूँ। आशा है इस  विधा का मेरा यह प्रथम प्रयास आपको पसन्द आएगा
डॉ.कविता भट्ट







सोमवार, 19 नवंबर 2018

92-लोकमत

[आज लोकमत के बृहद  विशेषांक में  प्रकाशित  रामेश्वर काम्बोज' 'हिमांशु ' की लघुकथाएँ दी जा रही हैं .इन लघुकथाओं में निहित  कथ्य की शक्ति पढ़कर ही जानी जा सकती  है . डॉ. कविता भट्ट ]












गुरुवार, 15 नवंबर 2018

91


श्रीनगर गढ़वाल, उत्तराखण्ड

चल पड़े राहों में कदम,अब न रुक पाएँगे हम
सत्ता हमें क्या रोकेगी,इंकलाब लाएँगे हम।।
हम  ऐसा एक नया जहाँ बनाएँगे,
जहाँ मानव-मानव का शोषण ना कर पाएँगे
धन-बल का न राज होगा,नशे का सर्वनाश होगा
फिर ना सीता हरेगी और ना दुश्शासन होगा
मेरे शहीदों के सपनों का एक नया भारत होगा।।

जहाँ किसान ना बेबस होगा, फसले फिर लहराएँगी
संकुचित ना होगी शिक्षा,पूर्ण प्रकाश फैलाएगी
एक आदर्श होगा हर मानव बेमानी भी घबरागी
सैंतालीस की मिली तभी आजादी कहलागी।।

परिवर्तन तो लाना होगा समय की यही पुकार
देश से मुँह मैं कैसै मोड़ूँ स्वार्थी जीवन को घिक्कार
पलट देंगें ऐसी सत्ता को,जहाँ ना होगा समान अधिकार
उच्च नीति-नैतिकता को लेकर चलना होगा मिलकर साथ
जाति  भेद  नहीं होगा , फिर न होगी धर्म की बात
सत्ता के गलियारों में प्रपंचकों की चाल ना होगी
फिर होली दिवाली क्या ईद रौशन हर रात  होगी
मेरे भारत देश की तब एक ही पहचान होगी
खुशी और मृद्धि जहाँ  प्यारा  विहान होगी

शुक्रवार, 9 नवंबर 2018

90-बूढ़ा दिया


   बूढ़ा दिया  
डॉ कविता भट्ट 

अमावस की
कल थी काली रात   
मैं वह दिया 
दीपमालिका का जो-  
अँधियारे से 
जूझा पूरी रात हूँ    
जगमगाता   
कोना-छत-मुँडेर    
मंदिर-घर
रौशन की गलियाँ 
कल ही हुआ  
पूजन वंदन 
अभिनंदन   
आज पड़ा हुआ  हूँ 
एक कोने में 
घर के बुजुर्ग-सा 
फेंका जाऊँगा
अब कल गंगा में 
है न आश्चर्य?
नाम दिया जाएगा 
इसको  विसर्जन 


मंगलवार, 6 नवंबर 2018

88


हम कैसे पर्व  मनाएँ

संजीव द्विवेदी

हम कैसे पर्व मनाएँ तुम बोलो होली व  दीवाली का ।
 सदियों से भूखा नंगा फुटपाथों  वाली थाली का ।
 क्या दिवाली का बोनस है, क्या होली का है पुरस्कार ।
खुशियों का  क्या  मतलब होता कोई बतला दे इक बार 
पत्थर  तोड़ती नारियाँ हैं बच्चे मजदूरी करते हैं 
हो गए बुज़ुर्ग जवानी में जो हाय हजूरी करते हैं 
भारत के गाँव में देखो जो आधा जीवन जीते हैं ।
 आधे से भी आधे  जीवन खानाबदोश में  बीते हैं ।
 जो जीवन शेष बचा रहता  वह मिट जाता है रोने में ।
 भारत दिखलाई देता है जीवन के बस एक कोने में ।
 दुख दर्द न कोई  समझेगा  जब तक गरीब की थाली का ।
हम कैसे पर्व मनाएँ तुम बोलो होली व  दीवाली का ।
 बोलो यह आजादी है क्या इसको हम  त्योहार कहें  ?
धनिको की लगी बाज़ारों के या इनके अत्याचार कहें?
 मिट्टी के दीप बेचते जो उन पर होता है मोल भाव 
जो माल खड़े हैं अरबों के जिनके चेहरे हैं बेनक़ाब 
 उनके दामों में छूट नहीं करते गरीब से मोलभाव ।
 धनिको पर नहीं शिकंजा है जो महँगाई के चले दाँव 
जब तक भारत के नक्शे से  मिटता न वेश कंगाली  का ।
हम कैसे पर्व मनाएँ तुम बोलो होली व दिवाली का ।
सदियों से भूखा नंगा हूँ फुटपाथों वाली थाली का ।


पसरा सन्नाटा  मुफ़लिस को अपने बेगाने लगते हैं 
अंतर्मन की पीड़ा कहने को भी गरीब अब डरते हैं 
क्या पर्व दिवाली का पूछो निर्धन के घर में जाएगा ।
भूखों की भूख मिटाएगा या दीप बुझा कर आएगा ।
यह भारत खड़ा रो रहा है है प्रश्न राष्ट्र रखवाली का ।
हम कैसे पर्व मनाएँ तुम बोलो होली दिवाली का ।

मुफ़लिस धर्म नहीं पूछा मज़हब ने भी त्योहार नहीं ।
खुशियाँ भी मौन हो गई है देखा गरीब का द्वार नहीं ।
जब तक गरीब की आँखों में पीड़ा के आँसू आएँगे ।
लेता सौगंध दुखी मन से हम  कोई न पर्व मनाएँगे
सिसकियाँ भरी झोपड़ियों में है खड़ा प्रश्न खुशहाली का।
हम कैसे पर्व मनाएँ तुम बोलो होली दिवाली का?
  ( वरिष्ठ अधिवक्ता,उच्च न्यायालय, लखनऊ, उ प्र)

सोमवार, 5 नवंबर 2018

87-सर्दी के हाइकु


सर्दी के हाइकु
 डॉ .कविता भट्ट
1
सर्दी में ली थी
गरमी में लौटाई
उसने धूप
2
स्पर्श तुम्हारा 
भिखारी को कम्बल 
शीत-प्रतीक्षा

3
तुम्हारा प्रेम-
गरीब को अलाव 
मात्र सहारा
4
कभी तो चखो
सर्दी में हलुवे -सी
मेरी प्रीत है
5
तुम्हारा आना   
सर्दी में लिहाफ-सा
साँसें दहकी
6
छीन न लेना
एक ही लिहाफ है 
तेरी प्रीत का
7
शीतनिशा है
जीवन का संघर्ष 
तू रवि- रश्मि
8
करवा चौथ
मैं हूँ प्रतीक्षारत  
तुम हो चाँद
9
हुआ विलम्ब
तुम्हें आने में प्रिय
श्वेतकेशा मैं
10
जीवन भर
अँगीठी -सी सुलगी
मन क्यों सीला
-०-

गुरुवार, 1 नवंबर 2018

86

[ डॉ. कुमुद बंसल , निदेशक हरियाणा साहित्य अकादमी के निर्देशन में महाविद्यालय के विद्यार्थियों  को लेखन से जोड़ने का एक अभियान चलाया गया । आज हमने ‘नवांकुर’ स्तम्भ के अंतर्गत उनकी रचनाएँ नीलाम्बरा पर देने की शुरुआत की है . आशा है। अन्य रचनाकारों  को भी हमारा यह प्रयास पसंद आएगा ।
डॉ.कविता भट्ट, हेमवती नन्दन बहुगुणा ,केन्द्रीय विश्वविद्यालय श्रीनगर , गढ़वाल (उत्तराखंड ) ]
-0-
1-मोहन लाल
जरा -सा सँभलकर उड़ना ए परिंदों
परों को काटने वाले अपने भी होते है...
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2- माँ    ( माहिया छंद )
राहुल लोहट
1
कष्टों का हरण करें
मिलती हैं खुशियाँ
माथा माँ-चरण धरे।
2
दु:ख, सुख बन हँसते हैं
सारे ईश्वर- गुण
माँ के मन बसते हैं।
3
कड़वाहट मन भाती
मीठी डाँटे माँ
अनुशासन सिखलाती।
4
हँसती शीतल बनके
माँ की सब बातें
हिम्मत बन दिल खनके।
5
भोली माँ सूरत है
पर भोली सूरत
ईश्वर की मूरत है।
6
शीतलता काया में
है आनंद मिले
ममता की छाया में।
7
फूलों की डाली है
माँ सूरज किरणें
माँ सुख की प्याली है।

8
मन हर्ष सजाता है
माँ मुखड़ा दीपक
अँधकार मिटाता है।
-0-
3-कीमत
हिमांशी धीमान   (पानीपत)


रोशनी की कीमत वो जानता है,
जिसने कभी अँधेरे को सहा हो।
मकान की कीमत वो जानता है,
जो कभी सड़कों पर रहा हो।।

मेहनत का मतलब वो जानता है,
जिसका कतरा-कतरा ख़ून बहा हो।
खुशियों की कीमत वो जानता है,
जिसने जीवन में दुःख सहा हो।

जीत की कीमत वो जानता है,
जो हर कोशिश में हारा हो।
सम्मान की कीमत वो जानता है,
जो अपनों की नज़र में बेचारा हो।

पैसों की कीमत वो जानता है,
जिसने जीवन में गरीबी देखी हो।
ईमान की कीमत वो जानता है,
जिसने हमेशा की बस नेकी हो।

प्यार की कीमत वो जानता है,
जिसने उसका इंतज़ार किया हो।
विश्वास की कीमत वो जानता है,
जिसने धोखे का घूँट पिया हो।
-0-