मंगलवार, 20 सितंबर 2022

391-प्रिय! आ चलें इक साइकिल पर...

 

डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'

 

केवल तू है और एक मैं

मीलों दूर तक इस अंबर में

प्रिय! आ चलें

इक साइकिल पर...

 

यह एक सड़क जाती है

रंग - बिरंगे पहाड़ी फूलों से

लदे हुए किनारे सुंदर

सुरभित है यह प्रेमलोक

कल्पलोक आनंद लोक

आ चलें इक साइकिल पर

पहाड़ी बलखाती पगडंडी पर

तेज पैडल मार जरा, आगे मुझे बिठाकर

मैं सकुचाती - मुस्काती - इठलाती

तेरी बाँहो की परिधि में

तेरी ठुड्ढी मेरे काँधे पर

कुछ चुम्बन मेरी गर्दन पर

रोमांचित तन- आनंदित मन

फिर झटके से साइकिल रोककर

पहाड़ी फूलों की डाली के आगे

मेरी लहराती केशराशि में

फूल लगा दे कुछ चुनकर

आ सुन तो- अब खो जा

सुरभित उड़ती केशराशि में

मुझे उतार, तू भी उतर जा

डाली फूलों वाली हिलाकर

कुछ फूल बरसा झर -झर

हम दोनों पर पुष्पित निर्झर

आजा अब आलिंगन कर

तन - मन के झंकृत हों स्वर

प्रिय! आ चलें

इक साइकिल पर...-0-