मंगलवार, 29 नवंबर 2022

405

 डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'

(नीलाम्बरा का आरम्भ 26 नवम्बर 2017 को हुआ था।  अपने पाँच वर्ष पूरे करने के बाद इस अन्तर्जाल ने 27 नवम्बर से छठे वर्ष में प्रवेश किया। 27 को ही इस सम्मान की घोषणा हुई। अंक6 और 4 का बहुत महत्त्व है। 6 अप्रैल जन्म होने के कारण। पुरस्कार की सूची में 4 का क्रम।  )

  


























(पुरस्कृत पुस्तक)

शनिवार, 19 नवंबर 2022

402

 डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'


































फिर  मिलेंगे [पूरी कविता]


जब आप बैठते हो ट्रेन में
जाते हो दूर- किसी अपने से
ट्रेन की स्पीड के साथ
कदमताल करती धड़कनें
तेज़ होती जाती हैं-
स्टेशन के पीछे छूटते हुए
आपको लगता है
दम घुट जाएगा
, साँसें रुक जाएँगी
आप दरवाज़े से बाहर झाँकते हुए
रोते हो बेतहाशा-
रुकता ही नहीं
,
आँसुओं का सैलाब।
धीरे-धीरे ओझल हो जाता है-
आपका वह अपना- हाथ हिलाते हुए
;
आप बर्थ पर ढेर हो जाते हो
फिर काँपते हाथों से
मोबाइल निकालकर-
कॉल लगाते हो
;
उधर से आवाज आती है-
'रोओ मत, अपना ध्यान रखना
तुम्हें पता है ना
, तुम्हारा रोना
दुनिया में सबसे बुरा लगता है
,
आँसू पोंछो
, मुस्कराओ,
जल्दी ही फिर मिलेंगे।
'
फिर आप सिसकते हुए
धीरे-धीरे चुप हो जाते हो
इस उम्मीद में कि फिर मिलेंगे ही।
काश! दुनिया के स्टेशन पर खड़े होकर
जीवन की आखिरी ट्रेन में बैठे
किसी अपने को कोई अपना
ये दिलासा दे पाता-
रोओ मत
, जल्दी ही फिर मिलेंगे!

 


गुरुवार, 17 नवंबर 2022

401

 डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'

(जीवन का उजियारा पुस्तक में हिन्दी’पुस्तक’ विषय  पर भारत के 38 कवियों की 39 चुनी हुई कविताएँ, हरमन हेस जर्मन कवि की अनूदित कविता सहित 40 कविताएँ हैं। इनमें राम नरेश त्रिपाठी, रघुवीर सहाय, कुँवर नारायण, गुलज़ार, सफ़दर हाशमी जैसे लब्धप्रतिष्ठ कवियों के बीच मेरी भी एक कविता है। इसे टैगोर विश्वविद्यालय  भोपाल ने प्रस्तुत किया है। चयन एवं सम्पादन विनय उपाध्याय जी का है।)




सोमवार, 14 नवंबर 2022

400

 प्रिय दीदी के लिए

रश्मि विभा त्रिपाठी


1

लगे न टोना!

लगा दूँ दुआओं का

आओ! दिठौना।

2

तुम्हारी आँखें!

मेरी साँसों का स्रोत

जीवन- ज्योत!!

3

जग अभागा!

सुनो! बाँधो दुआ का

ये काला धागा!!

4

मन मचला!

प्रणय में प्रिया की

मैं ले लूँ बला।

5

मिलीं जो आँखें 

मुझे आकाश मिला

फैलाऊँ पाँखें।

-0-
























गुरुवार, 3 नवंबर 2022

397- जीना पड़ता है

 रेखा चमोली

(श्रीनगर गढ़वाल, उत्तराखण्ड)

 


खुद के अंतस् की पीड़ा संग

खुद ही जीना पड़ता है।

अपनी आँखों के बहते अश्कों को

खुद ही पीना पड़ता है।

हँसती आँखों के संगी तुझको

 मिल जाएँगे क सफर में,

दर्द- भरी उधड़ी चादर को

खुद ही सीना पड़ता है।