सोमवार, 27 फ़रवरी 2023

432-न जाने किनसे रुष्ट हो

 

डॉ. कविता भट्ट शैलपुत्री

 


न जाने किनसे रुष्ट हो -

रोकर अपनी बात समझाना चाहती हो,

लेकिन किन्हें?

सामने तो पत्थर हैं

और पता ही होगा-

पत्थरों में

रक्त, न धमनियाँ, न शिराएँ

न हृदय, न मन, न ही आत्मा

इसीलिए तुम अब

अँधेरों में खो जाओ कविते!

संभवतः नियति यही है।

 

-0-डॉ. कविता भट्ट शैलपुत्री

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2023

431-बरसाते रहो -मैने उम्र गुजार दी

  डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'


बरसाते रहो /मधुमास तुम आते रहो- मधुमाह आवत्तु (पाली अनुवाद)

रचनाकार :डॉ॰ कविता भट्ट: शैलपुत्रीय:

अनुवादक:राम प्रताप सिंह

 

अब्बे सरधा पीती मम,किच्च नेहु बरसत्तु 

जेत्थमिव जीवनत्तथा मधुमाह आवत्तु 

मनस्सरणी आकुलता,विदूरे समुद्दा

नयनपच्छेन मग्गकांकर अपनयत्तु

मधुमाह आवत्तु

जगते सत्पीती नाम,कोपी अस्स न करत्तु

आसञ्दधन कप्पनेन सह सुरञ् मेलयत्तु।

 मधुमाह आवन्तु।

 गेहेदं तव नात्थी मम,बिरथा वाद-विवाद 

चत्तारि दिवसेन सत्थ,पिरित्तिपथे चलन्तु 

मधुमाह आवन्तु

 

ओधुक्किता उपवेत्थाकतम तोम परियोधनप्परि पराच्छादन ।

कालञ् कालञ् भोत्तु हसती अपनयत्तु अब्ब मदञ् ।

मधुमाह आवत्तु

 -0-

  मैने उम्र गुजार दी /  पाली अनुवाद:अहमायू अतीता 

रचनाकार :डॉ॰ कविता भट्ट: शैलपुत्रीय:

अनुवादक:राम प्रताप सिंह


 अतिस्सरलमासीच्च 

नग्गफनीयम वरधियम 

परमहम वरधितुम नासक्कम 

परिसमस्स कारमासीच्च 

पुप्फवरुधम। 

किञ्करन्नानि परम?

मम पुप्फपीती इतासीच्च यद 

हिरिद्दीभूमीसिच्चने 

अहमायू अतीता ।

मितानी पुप्फानी रदनञ्किता

ये अत्तमीसम कथयनुद्दानपालक इति कथयन्ती

 -0-

हिन्दी अनुवाद सहित निम्नलिखित लिंक पर पढ़ सकते हैं-

§  बरसाते रहो / कविता भट्ट

 

 

 

सोमवार, 6 फ़रवरी 2023

427-प्रेयसी हो तुम!

 

डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'


 


अभी भी प्रतीक्षा है

उस क्षण की-

जब तुम कहते

कि प्रेयसी हो तुम-

तुम्हारी पलक झपकते ही

साक्षात् और जीवंत

हो उठती हैं

वेदों की ऋचाएँ

हाँ तुम्हारी मंद स्मित

रामायण- सी

पवित्र कर देती है

मेरी प्रत्येक कामना को।

तुम्हारी सघन केशराशि

एकमात्र प्रतीक है

सूत्रकाल के गुँथे हुए

अनगिनत रहस्यों की।

संहिताएँ ही तो हैं

तुम्हारे कंठ पर लिपटी हुई

चमेली के सुगंधित पुष्पहार में

जो मुझे मंत्रमुग्ध कर देती हैं।

तुम्हारी श्वासों के स्वर ताल पर

नृत्य करती हुई प्रतीत होती हैं

असंख्य अप्सराएँ

स्निग्धा !

तुम्हारी वाणी से

निःसृत शब्दावली

ऋषिकाओं के श्रीमुख से उद्घाटित

अकाट्य सत्य है।

तुम मन्दराचल - समुद्र मंथन से

प्राप्त सुधा का कलश हो।

मैं याचक बनकर

तुमसे कुछ घूँट माँगता हूँ।

भय है तो केवल यही-

कि कभी तुम्हें आघात न दे दूं

तुम्हारा एक अश्रु भी

सृष्टि में प्रलय का सूचक है।

क्योंकि प्रेयसी हो तुम!

-0-डॉ . कविता भट्ट, श्रीनगर, उत्तराखण्ड

रविवार, 5 फ़रवरी 2023

426-दोहे

  डॉ. उपमा शर्मा

1

कदमों को मैं चूम लूँ, अधरन बनूँ सुहास।

बिछूँ तुम्हारी राह में, बनके फूल सुवास

2

बातों से तेरी मिले, शीत-पवन अहसास।

हँस दे तो ऐसा लगे, फूल झरे हों पास।

3

आकर देखो ये करें, कितना रोज़ निहाल।

मुझसे क्यों रुकते नहीं,तेरे कभी ख़याल।

4

हाथ छुड़ाके जब गया, वो मेरा चितचोर।

नयन- कुंज के नीर में, फिर सुधियों का शोर।

5

 नहीं खिसकते क्यों कभी , यादों- भरे पहाड़।

उतनी तेरी आहटें, जितने बंद किवाड़।

6

तुमसे मेरा मन जुड़ा, तुम ही अब संसार।

बाँटो तुम सुख-दुख सदा, बाँटे ज्यों परिवार।

7

स्वाति के बिन पपीहरा , लेता आँखें मूँद।

प्यासा कितना भी रहे, पि न जल की बूँद।

8

कहीं रहूँ ,भूलूँ नहीं, हूँ उदास या शाद।

आती हर पल क्यों मुझेबस तेरी ही याद।

9

 निश्छलता जिसमें मिले, उस दिल की है आस।

जिससे मन मैं खोल दूँ , करूँ सहज विश्वास।

10

 अपने दिल पर ध्यान दो ,हर पल आठों याम।

 रखना बहुत सहेजकर, मेरा है यह धाम।

11

जबसे इस मन तुम बसे , सुरभित है परिवेश।

मन-नभ दिनकर प्रेम का, फैलाए संदेश।।

12

कोरे उर के पृष्ठ पर, लिखे प्रीत के गीत।

जब से नयनों में बसे,तुम मेरे मन-मीत।

13

उर -वीणा के राग में, तेरा ही अनुनाद।

कितना भूलूँ मैं मगर, आती तेरी याद।

14

नयनों ने कह दी सखी, नयनों की यह बात।

नयन बंद कर सोचती, प्रिय को मैं दिन-रात।

15

चंचल नयन निहारते, तुझको ही सब ओर।

तुझ बिन कैसे हो पिया, जीवन की यह भोर।

16

नयनों में आँसू भरे ,अटके पलकन ओट।

छलकें जब यह याद में, दिल पर करते चोट।

17

उर- वीणा के तार हो, अनहद हो तुम राग।

सात सुरों की साधना, यह अपना अनुराग।

18

साँसों की सरगम रहे, अधरों पर हों गीत।

चन्द्रकलाओं-सी बढ़े, अपनी पावन प्रीत।

19

तुम जो मुझको हो मिले, खिले ख़ुशी के रंग।

ख़ुशबू का झोंका बहे, जैसे समीर संग।

20

पोर-पोर में पुष्प के, ज्यों बसता मकरंद।

प्रेम करे पा वही ,अन्तर्मन में छंद।

21

तुम बिन सूना सब रहा, सूने सारे राग।

तुम जब उर में आ बसे, मन हो जा फाग।

22

पिया सलोने सुन ज़रा,क्या है तुझमें  राज़।

पंख बिना भरने लगी, देखो मैं परवाज़।

23

मन को बरबस बाँधती, नेह-प्रेम की डोर। 

मन-अँगना आई उतर, खींचे तेरी ओर।

24

पथ सारे महके लगें, मन में उठे हिलोर।

दो दीवाने जब चले, प्रेम -डगर की ओर।

25

 दूर फिज़ाओं में घुले, शोख़ प्रेम के रंग।

धरती-अम्बर से मिले, जब हम दोनों संग।

26

लिखती तुझ पर काव्य जब,चुरा पुष्प से रंग।

छलक- छलक जाती तभी, मन में भरी उमंग।

27

लाख छुपाने से कभी , छुपे नहीं जज़्बात।

व्याकुल नैना कह रहे, मन की सारी बात।

28

बंधन मन के जब जुड़ें, कहाँ रहे फिर होश।

आँखें ही तब बोलतीं,अधर रहें ख़ामोश।

29

तुमसे ही ये मन जुड़ा, दूर रहो या पास।

सुधियाँ  देती हैं मुझे ,मोहक मधुर सुहास।

30

उल्टी नैया प्रेम की, उल्टी इसकी रीत।

जो डूबा सो पार हो, ऐसी होती प्रीत।

31

जीवन में अब आ घुले , मोरपंख से रंग।

ख़ुशियों से आँचल भरा,जब तुम मेरे संग।

32

तेरे-मेरे बीच का, बंधन है बस नेह।

मन तुझसे मंदिर हुआ,आँखें तेरा गेह।

33

तुमसे ऐसे है जुड़ा, मन का ये संबंध।

फूलों में जैसे बसी  ,मोहक-मधुर सुगंध।

34

 हिय में हो तुम ही बसे,आये नैनन द्वार।

पढ़ लो मुखड़ा साथिया, ये ताजा अख़बार।

35

दीप जलाती नेह का, हर पल आठों याम।

कुटिया-सा तेरा हिया, मेरे चारों धाम।।

-0-

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2023

425-अंतर्यात्रा

डॉ. एम. एन. गैरोला



 द्वार खोला घुप्प अँधेरा ।

और नीरव,

दूर धूमिल ज्योति ,

लेकिन

रास्ता कोई न सूझा।

पाँव ठोकर खा रहे थे,

हाथ साथी की ललक में

 और निर्बल हो रहे थे।

मन बहुत घबरा गया था।

 दूर से ही ज्योति  का आलोक कर,

 अब न मुमकिन हो सकेगा

यह  सफ़र- ज्योति का आवेश मुझमें।

 लौट आया, तेज कदमों

 हड़बड़ाहट, बदहवासी ।

द्वार के इस पार,

मनमोहक  वसंत,

चटख रोशनी, आकाश नीला

झरनों का कलरव, अल्हड़ बहती नदियाँ।

उषा का आगमन, चिड़ियों की चहचहाहट।

गोधूलि की बेला , आकाश की स्वर्णिम आभा।

वही परिचित मित्र, हँसते ठहाके  लगाते,

खुशी में खुश और दु:ख में दु:खी होते।

 -----                ------

अब रम गया हूँ  मैं इसी संसार में,

खुशी में हँसने और दुःख में रोने के लिए।

 अब नहीं दिखती मुझे वह

       ज्योति निर्मल।

  खो चुका आवेश सारा---।

मस्त होकर  झूमता  हूँ इस धरा पर,

खुशी में हँसना मुझे,

और रोना है दु:खों में।

 यही है अब नियति मेरी,

 दूर  खोकर ज्योति को।

-0-श्रीनगर (गढ़वाल),उत्तराखण्ड


424-सांस्कृतिक चेतना एवं राष्ट्रवाद

 डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'












गुरुवार, 2 फ़रवरी 2023

423-एक नए सवेरे की तलाश / एका नवीन पहाटेच्या शोधात

  डॉ.कविता भट्ट

 

बहुत परेशान था मन,

शिथिल होकर

लड़खड़ा गया था।

अलगाव चाहता था सपनों से;

आँसू जिन्दगी में घुल चुके थे

जैसे- शराब में बर्फ की डली;

लेकिन शायद उसे हारना नहीं था।

उस शान्त-सी दिखने वाली लड़की ने

फिर से चुपचाप उठाई;

बैशाखी- टूटते हुए सपनों की,

अपेक्षा और आशा को आवाज़ दी

और चल पड़ी पहाड़ी पगडंडी पर

एक नए सवेरे की तलाश में

जबकि नहीं जानती वह

कितना चलना होगा अभी?

चोटी फतह करने को।

-0-

 

 

एका नवीन पहाटेच्या शोधात (मराठी अनुवाद)

डॉ. सुरेन्द्र हरिभाऊ बोडखे -महाराष्ट्र

  

खूप अस्वस्थ होते मन,

सुस्त होउन

डळमळून गेले होते.

 वेगळे व्हायचे होते स्वप्नांपासून;

जीवनात अश्रू विरघळले होते

जसे- दारू मध्ये बर्फाचे तुकडे;

पण कदाचित तिला हरायच नव्हतं.

 

त्या शांतशा दिसणाऱ्या मुलीने

निमूटपणे पुन्हा उचलली

कुबडी - तुटलेल्या स्वप्नांची,

 

अपेक्षा आणि आशेला आवाज दिला

आणि चालून गेली डोंगराच्या वाटेवर

एका नवीन पहाटेच्या शोधात

जरी  तिला माहित नव्हतं

अजून किती चालायचे आहे?

शिखर सर करण्यासाठी.