शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

67-कारवाँ गुज़र गया

मेरी माँ ने मुझे कई बार बताया कि मेरा जन्म हमारे मिट्टी पत्थर वाले पहाड़ी घर में हुआ। मेरी माँ गानों की बहुत शौकीन हैं और उन दिनों शहर नगर गाँव -गाँव रेडियो ही मनोरंजन का सर्वसुलभ साधन था। मेरे जन्म के समय रात को आकाशवाणी विविध भारती पर कार्यक्रम छायागीत चल रहा थागीत बज रहा था , 'शोखियों में घोला जाए , फूलों का शबाब ....' चित्रपट था प्रेम पुजारी और गीतकार सबके प्रिय ‘नीरज’, वर्ष 1979 बसंत का मौसम ..प्रेम पुजारी 1970 में आई थीलेकिन इस फ़िल्म के गीत हवाओं में गुंजायमान थे और सदियों तक रहेंगे। अनेक अन्य फिल्मों के लिए भी उनकी लेखनी ने विविध रंग बिखेरे। 'मेरा नाम जोकर' फ़िल्म  का मुक्त छन्द में लिखा गीत-‘ऐ भाई जरा देख के चलो’ भी बहुत चर्चित हुआ और जनसाधारण की जुबान पर भी चढ़ा।
प्यार अगर न थामता पथ में , उँगली इस बीमार उमर की
हर पीड़ा वेश्या  बन जाती , हर आँसू आवारा होता जैसे गीतों के रंग ही अनोखे हैं। कौन कहता है कि नीरज चले गएउनके तराने हवाओं को हमेशा ताज़गी देते रहेंगे। नवांकुरों के प्रति इतना स्नेह था उनके मन में कि 1927 से निरंतर प्रकाशित हिंदी की सबसे पुरानी पत्रिका जिसका आरंभ गांधी जी ने किया थाउसमें पिछले वर्ष मेरा भारतीय दर्शन पर केंद्रित आलेख पढकर उन्होंने मुझे कॉल कियामेरे आलेख की प्रशंसा की और आशीर्वाद दियाबोले कि लिखना कभी मत छोड़ना। साहित्य ऋचा पत्रिका के कवर पर उनके चित्र के साथ मेरा चित्र और मेरी रचनाएँ भी प्रकाशित हुई थी पिछले वर्ष। उनका चित्र और दो पंक्तियाँ मैं ने अपने अध्ययन कक्ष में दो वर्ष पूर्व लगाया थाजो अभी भी जस का तस है। नीरज आप अंतिम साँस तक गुनगुनाये जाते रहोगे। वस्तुतः नीरज एक युग का नाम है- अविस्मृत !
स्मृति स्वरूप उनका एक गीत यहाँ दे रही हूँ-

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कारवाँ गुज़र गया
गोपालदास नीरज

स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गए सिंगार सभी बाग के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!
नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठें कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क बन गए,
छंद हो दफन गए,
साथ के सभी दिए धुआँ-धुआँ पहन गए,
और हम झुके-झुके,
मोड़ पर रुके-रुके,
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना सिहर उठा,
इस तरफ़ ज़मीन और आसमाँ उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ,
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली,
और हम लुटे-लुटे,
वक़्त से पिटे-पिटे,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुजर गया, गुबार देखते रहे।
हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यों कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गए किले बिखर-बिखर,
और हम डरे-डरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!
माँग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमुक उठे चरन-चरन,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन,
पर तभी ज़हर भरी,
गाज एक वह गिरी,
पोंछ गया सिंदूर तार-तार हुईं चूनरी,
और हम अजान-से,
दूर के मकान से,
पालकी लिए हुए कहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
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बुधवार, 18 जुलाई 2018

प्रेम-अँजुरी-66

डॉ.कविता भट्ट

नित वन्दन
मैं करती रही हूँ
तेरा ही प्रिय
मंदिर की पूजा -सा
मेरा प्रेम है
दीपशिखा -सी जली
किया प्रकाश
तेरे घर- आँगन,
रही पालती
मन में यह भ्रम
मंदिर- सा ही
कभी न कभी तुम
मेरे देवता
प्रसाद में दोगे ही
प्रेम-अँजुरी
किन्तु यह क्या  मिला !
तुम सदैव
सशंकित, क्रुद्ध ही
और रहते
उद्धत उपेक्षा को
नहीं जानती
तप जिससे होओ 
तुम प्रसन्न 
जबकि मैं तो प्रिय
हूँ प्रेम-तपस्विनी!