बुधवार, 30 मई 2018

62-अर्सा रुटाना कख गैनी (गढ़वाली गीत)


डॉ.कविता भट्ट

मैत्यों का अर्सा रुटाना कख गैनी
कंडी लाल डोली छतर पुराणा कख गैनी...

छुम-छुम करदू छौ बसंत डांडियों माँ
मसक-ढोल-दमौं बजदा छा ऊँच्ची कान्ठ्यों माँ
जनना-बैखू का ठुमका मस्ताना कख गैनी...
मैत्यों का अर्सा रुटाना कख गैनी

सुपिनी सजी जान्दी छै ब्योलों कि आन्ख्यों माँ
सजीं रैन्दी छै थौलेरू की टोली पाख्यूं माँ
थड्या चौफुला माँगुल सुहाना कख गैनी
मैत्यों का अर्सा रुटाना कख गैनी

घुघूती की घू-घू हर्ची रौला-धौलों माँ
दांदी सुपी सर-सर बदली ग्यायी थौलों माँ
पापड़ी-स्वालीं दादी की कथौं का ज़माना कख गैनी
मैत्यों का अर्सा रुटाना कख गैनी

विकासा नौं पर सडक्यों का जाल बणी गैनी
ये ज़ाल माँ धारा नौला पन्यारा छणी गैनी
लय्या-जौ-ग्यों का मेरा पुंगडा सुहाना कख गैनी
मैत्यों का अर्सा रुटाना कख गैनी

बाँज-बुराँस अर डाली-बोटी कटी गैनी
म्यारा नर्सिंग भैंरों घर-घर देली कख छूटी गैनी
बोलान्दा द्यो-देवतौं का ऊ ज़माना कख गैनी
मैत्यों का अर्सा रुटाना कख गैनी
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1
कविताकोश में हिन्दी रूपान्तर
2
कविताकोश में गढवाली



शुक्रवार, 25 मई 2018

61-सपने

डॉ.कविता भट्ट

मन की भूमि के गर्भ में
भविष्य के बीज बोकर
जब मैं आशा से सींचती हूँ,
परिश्रम की खाद देकर
उगाना चाहती हूँ सपने,
अंकुरित होते इन सपनों को
साहस की गुनगुनी धूप दिखाती हूँ,
कल्पनाओं की अँगड़ाई लेते
चित्र :गूगल से साभार 
सपनों के अंकुरों पर
अतिसभ्य कहलाने वाले
झूठे सच कर देते हैं- तुषारापात
जो अनुभूति तक न पहुँच सके.
प्राकृतिक नहीं, हाय यह !
है मानवीय कुठाराघात कि
कोई उन अंकुरों पर
क्रूरता से
तुषारापात करता है
दंभ की हुंकार भरता है
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[7:58 अपराह्न , 25 मई2018]-
लिंक कविताकोश -सपने

गुरुवार, 24 मई 2018

60-प्रेम है अपना



डॉ.कविता भट्ट

(चित्र :गूगल से साभार) 
वेदों की ऋचा-सा प्रेम अपना
मधुर ध्वनि में इसको गाना।
अक्षर-अक्षर पावन मन्त्रों-सा
आँख मूँद हमें है जपते जाना।

गंगाजल-सा शीतल मन है
और दीप्त शिखा-सा मेरा तन है।
पत्र-पुष्प काँटों में से चुनती हूँ
जीवन विरह का आँगन-उपवन है।

भगवद्गीता के अमृत-रस-सा
घूँट-घूँटकर तुम पीते जाना।
वचन-वचन पावन श्लोकों-सा
तर्कों में इसको न उलझाना।

तुमने कानों में रस घोला
होंठों पर मुस्कान सजाई।
रोम-रोम प्रियतम बोला
कामनाओं ने ली अँगडाई।

उपनिषदों के तत्त्वमसि-सा
साँस-साँस तुम्हे रटते जाना।
तुम चाहो इसको जो समझो
मैंने तुम्हे परब्रह्म-सा माना।
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बुधवार, 2 मई 2018

57-विषवृक्ष

 डॉ.कविता भट्ट

विषवृक्ष उगता है-
विष में
विष में पल्लवित होता
विष ही हवा में घोलता
उसकी छाया में विवश यात्री
करता रहता विषपान
हो जाता है नीलकंठ
कभी कुछ नहीं बोलता
यह नीलकंठ रामेश्वर
माँगता है राम से फिर भी
विषवृक्ष के लिए सद्बुद्धि
लेकिन स्वभाव से विवश
उस वृक्ष पर
डोलते रहे विषधर
विषधरों की माला धारण कर
रामेश्वर पुनः हो जाते-
सत्यं-शिवं-सुंदरम्
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(12-04-2018)