शुक्रवार, 26 जनवरी 2018

मुकद्दमा

मुकद्दमा
-डॉ.कविता भट्ट 

अरे साहेब! एक मुकद्दमा तो उस शहर पर भी बनता है
जो हत्यारा है– सरसों में प्रेमी आँख-मिचौलियों का 

और उस उस मोबाइल को भी घेरना है कटघरे में  
जो लुटेरा है– सरसों सी लिपटती हँसी-ठिठोलियों का 

हाँ- उस एयर कंडीशन की भी रिपोर्ट लिखवानी है
जो अपहरणकर्त्ता है- गीत गाती पनिहारन सहेलियों का

और उस मोबाइल को भी सीखचों में धकेलना है
जो डकैत है- फुसफुसाते होंठों-चुम्बन-अठखेलियों का 

उस विकास को भी थाने में कुछ घंटे तो बिठाना है
जिसने गला घोंटा; बासंती गेहूं-जौ-सरसों की बालियों का

लेकिन इनका वकील खुद ही रिश्वत ले बैठा है
फीस इनसे लेता है; और पैरोकार है शहर की गलियों का

ओ साहेब! आपकी अदालत में पेशी है इन सबकी 
कुछ तो हिसाब दो उन मारी गयी मीठी मटर की फलियों का 

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