वह मजदूरनी/ डॉ.सुरंगमा यादव
अभी है
इसमें मज़दूरों की आवाजाही;
क्योंकि
अभी है ये निर्माणाधीन इमारत
बाँस की
बल्लियों में बँधी पालनेनुमा धोती
उसी में
सोया है मजदूरनी का नौनिहाल
उसके सिर
पर है ईंटों का भार
मन में
ममता भरी है अपार
दूर से
ही लुटाती है बार - बार
सीढ़ियों
पर चढ़ जाती है तेज रफ्तार
पसीना
बहाने में है उसको महारत
अभी कुछ
दिन पहले ही जना है लाल
देह भी
अपनी अभी नहीं पाई है सँभाल
पर क्या
कहे पापी पेट का हाल
ठेकेदार
की नज़रों की सहती है शरारत
साँवला मुखड़ा मगर सलोना है
बड़ी- बड़ी
आँखों में दो जून की रोटी का रोना है
नियति, ईंट-
गारा और बालू ही ढोना है
वो भला
क्या जाने क्या होती है नजाकत
मटमैली
धोती और ब्लाउज है देह पर
मर्दाना
कमीज़ भी पहनी है उसके ऊपर
सकुचाती
है छोटे कपड़ेवालियों को देखकर
बार- बार
देखती है- कब होगी दोपहर
बच्चे
को गोद में लेकर
भूल जाती
है दुनिया की आफ़त।
वह मजदूरनी
।
वाह, सच में एक स्त्री मजदूर का बहुत खूबसूरती से चित्रिण किया है। मैंने अपने आस पास बनते मकानों में ऐसी स्त्रियों को काम करते और साथ साथ बच्चे को धोती का पालना या किसी पेड़ के नीचे सुलाए देखा है. बधाइयाँ इस दिल को छूती कविता के लिए 🙏
जवाब देंहटाएंवाह, संघर्ष और उम्मीद की कविता, हार्दिक शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएं- भीकम सिंह
यथार्थ को व्यक्त करने वाली रचना है ये और महंगाई के इस युग में सिर्फ मजदूर वर्ग ही नहीं बल्कि कोई भी स्त्री जो किसी भी क्षेत्र में कार्यरत है, उसे इन समस्याओं से किसी न किसी रूप में रूबरू होना ही पड़ता है।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर और संवेदनशील सृजन...👏👏🙏
किसी स्त्री के जीवन संघर्ष की पूर्ण गाथा है इस कविता में।
जवाब देंहटाएंसंवेदनशीलता का सुंदर शब्दांकन-शुभकामनाएँ।
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जवाब देंहटाएंजीवन जीने का संघर्ष, स्त्री की ममता का सजीव वर्णन। शुभकामनाएं !!
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट रचना! यथार्थ चित्रण 👌🏾
जवाब देंहटाएंभावुक कर देने वाली सारगर्भित एवं यथार्थ रचना
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर।
जवाब देंहटाएंआप सभी के प्रति हृदयतल से आभारी हूँ।
जवाब देंहटाएंसुरँगमा जी संवेदनशील रचना की बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत सशक्त रचना है। महिला मज़दूरों की मानसिक एवं शारीरिक स्थिति पर महत्वपूर्ण लेखन!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना...सटीक चित्रण।
जवाब देंहटाएंआदरणीया
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक। यही तो कहा भी गया है : अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आँचल में है दूध और आंखों में पानी। कुल मिलाकर इस दुर्योधनी सभ्यता के दौर में तो :
- प्रेम के आख्यान में तुम आत्मा से थे चले
- घूम फिर कर देह की गोलाईयों तक आ गये
- सभ्यता के पंथ पर यह आदमी की यात्रा
- देवताओं से शुरू की वहशियों तक आ गये
पर पौराणिक संदर्भ में तो नारी मातृरूपेण, शक्तिरूपेण सहित अनेक स्वरूपों में स्वयं सिद्धा है और पूरे साहस सहित खड़ी है।
सो यही समय है सही समय है दुराचारियों का दुर्गा बन समाप्त करने का। उत्तिष्ठ जाग्रत नारी देवो भवः।
सार्थक लेखन हेतु हार्दिक बधाई सहित सादर
हार्दिक धन्यवाद- आभार आप सभी का।
जवाब देंहटाएंएक चित्र सा खींच दिया है आपने । आपकी सूक्ष्म दृष्टि ने शब्दों को मूर्त कर दिया । बहुत सुंदर । बधाई ।
जवाब देंहटाएंआपने बहुत ही मर्मस्पर्शी और चिंतनशील रूप में अपनी रचना के माध्यम से एक मजदूर महिला की ममता, श्रम और संघर्ष को दर्शाया है। यह गहन विचारणीय विषय है कि वह नवजात शिशु के साथ निर्माणस्थल पर काम करते हुए गरीबी, सामाजिक असमानता और ठेकेदार की दृष्टि से जूझती हुई भी अपने कर्तव्यों को निभाती है।
जवाब देंहटाएंसुंदर
जवाब देंहटाएंबेहतरीन
जवाब देंहटाएंडूबते को तिनके का सहारा भी बहुत होता है ।
जवाब देंहटाएंबच्चे की सलामती के आगे हर दुख छोटा है ।
आपने भीङ में कहीं खोई मजदूर माँ की बेबसी और ताक़त दोनों महसूस की ...अच्छा लगा ।
वाह बहुत सुन्दर
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