गुरुवार, 6 नवंबर 2025

513-वह मजदूरनी

 

वह मजदूरनी/ डॉ.सुरंगमा यादव

 


अभी है इसमें मज़दूरों की आवाजाही;

क्योंकि अभी है ये निर्माणाधीन इमारत

बाँस की बल्लियों में बँधी पालनेनुमा धोती

उसी में सोया है मजदूरनी का नौनिहाल

उसके सिर पर है ईंटों का भार

मन में ममता भरी है अपार

दूर से ही लुटाती है बार - बार

सीढ़ियों पर चढ़ जाती है तेज रफ्तार

पसीना बहाने में है उसको महारत

अभी कुछ दिन पहले ही जना है लाल

देह भी अपनी अभी नहीं पाई है सँभाल

पर क्या कहे पापी पेट का हाल

ठेकेदार की नरों की सहती है शरारत

साँवला मुखड़ा मगर सलोना है

बड़ी- बड़ी आँखों में दो जून की रोटी का रोना है

नियति, ईंट- गारा और बालू ही ढोना है

वो भला क्या जाने क्या होती है नजाकत

मटमैली धोती और ब्लाउज है देह पर

मर्दाना कमीज़ भी पहनी है उसके ऊपर

सकुचाती है छोटे कपड़ेवालियों को देखकर

 

बार- बार देखती है- कब होगी दोपहर

बच्चे को गोद में लेकर

भूल जाती है दुनिया की आफ़त।

वह मजदूरनी ।

21 टिप्‍पणियां:

  1. वाह, सच में एक स्त्री मजदूर का बहुत खूबसूरती से चित्रिण किया है। मैंने अपने आस पास बनते मकानों में ऐसी स्त्रियों को काम करते और साथ साथ बच्चे को धोती का पालना या किसी पेड़ के नीचे सुलाए देखा है. बधाइयाँ इस दिल को छूती कविता के लिए 🙏

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  2. वाह, संघर्ष और उम्मीद की कविता, हार्दिक शुभकामनाएँ।
    - भीकम सिंह

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  3. यथार्थ को व्यक्त करने वाली रचना है ये और महंगाई के इस युग में सिर्फ मजदूर वर्ग ही नहीं बल्कि कोई भी स्त्री जो किसी भी क्षेत्र में कार्यरत है, उसे इन समस्याओं से किसी न किसी रूप में रूबरू होना ही पड़ता है।
    बहुत ही सुन्दर और संवेदनशील सृजन...👏👏🙏

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  4. किसी स्त्री के जीवन संघर्ष की पूर्ण गाथा है इस कविता में।
    संवेदनशीलता का सुंदर शब्दांकन-शुभकामनाएँ।

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  5. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  6. जीवन जीने का संघर्ष, स्त्री की ममता का सजीव वर्णन। शुभकामनाएं !!

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  7. उत्कृष्ट रचना! यथार्थ चित्रण 👌🏾

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  8. भावुक कर देने वाली सारगर्भित एवं यथार्थ रचना

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  9. आप सभी के प्रति हृदयतल से आभारी हूँ।

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  10. सुरँगमा जी संवेदनशील रचना की बधाई।

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  11. बहुत सशक्त रचना है। महिला मज़दूरों की मानसिक एवं शारीरिक स्थिति पर महत्वपूर्ण लेखन!

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  12. बहुत सुंदर रचना...सटीक चित्रण।

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  13. आदरणीया
    बहुत मार्मिक। यही तो कहा भी गया है : अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आँचल में है दूध और आंखों में पानी। कुल मिलाकर इस दुर्योधनी सभ्यता के दौर में तो :
    - प्रेम के आख्यान में तुम आत्मा से थे चले
    - घूम फिर कर देह की गोलाईयों तक आ गये
    - सभ्यता के पंथ पर यह आदमी की यात्रा
    - देवताओं से शुरू की वहशियों तक आ गये
    पर पौराणिक संदर्भ में तो नारी मातृरूपेण, शक्तिरूपेण सहित अनेक स्वरूपों में स्वयं सिद्धा है और पूरे साहस सहित खड़ी है।
    सो यही समय है सही समय है दुराचारियों का दुर्गा बन समाप्त करने का। उत्तिष्ठ जाग्रत नारी देवो भवः।
    सार्थक लेखन हेतु हार्दिक बधाई सहित सादर

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  14. हार्दिक धन्यवाद- आभार आप सभी का।

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  15. एक चित्र सा खींच दिया है आपने । आपकी सूक्ष्म दृष्टि ने शब्दों को मूर्त कर दिया । बहुत सुंदर । बधाई ।

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  16. आपने बहुत ही मर्मस्पर्शी और चिंतनशील रूप में अपनी रचना के माध्यम से एक मजदूर महिला की ममता, श्रम और संघर्ष को दर्शाया है। यह गहन विचारणीय विषय है कि वह नवजात शिशु के साथ निर्माणस्थल पर काम करते हुए गरीबी, सामाजिक असमानता और ठेकेदार की दृष्टि से जूझती हुई भी अपने कर्तव्यों को निभाती है।

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  17. डूबते को तिनके का सहारा भी बहुत होता है ।
    बच्चे की सलामती के आगे हर दुख छोटा है ।

    आपने भीङ में कहीं खोई मजदूर माँ की बेबसी और ताक़त दोनों महसूस की ...अच्छा लगा ।

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