डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'
गुरुवार, 30 नवंबर 2023
शुक्रवार, 17 नवंबर 2023
शनिवार, 11 नवंबर 2023
शनिवार, 4 नवंबर 2023
बुधवार, 18 अक्टूबर 2023
482
तिरता फूल / अनीता सैनी 'दीप्ति'
घर की दीवारों से टकराते विचार 
वे पहचानने से इंकार करती हैं
आँगन भी बुझा-बुझा-सा रहता है!
मैंने कब उससे
उसकी कमाई
का हिसाब माँगा है?
अंतस् के पानी ने 
भावों की डंडी से रंगों का घोल बनाया 
वे वृत्तियों के साथ तिरकर
मन की सतह पर आ बैठे  
शिकायत साझा नहीं कर रहा हूँ 
अपनों से मिलने की तड़प सिसकियाँ भर रही थीं
 कि मैं
उतावलेपन में जवानी सरहद पर भूल आया।
गुरुवार, 12 अक्टूबर 2023
481
चैत की रात / नंदा पाण्डेय
चैत की रात का उत्साह ऐसा कि 
बिना किसी अनुष्ठान के उसने 
अपनी अतृप्त कामनाओं में 
रंग भरने का निश्चय कर लिया
आज पहली बार 
आँगन में बह रही
पछुआ हवा के विरुद्ध 
जाकर वह
अपनी तमाम दुविधाओं को
सब्र की पोटली में बाँधकर
मौन की नदी में गहरे गाड़ आई
बहा आई आस्थाओं, संस्कारों,
परम्पराओं और नैतिकताओं के उस 
भारी भरकम दुशाले को भी 
जिसे ओढ़ते हुए उसके काँधे झुकने लगे थे
ढिबरी की लाल-लाल रोशनी 
और ढोल मंजीरों की आवाजों के बीच
सबसे नजरें बचाकर
अपने वक्ष में गहरे धँसी सभी कीलों को 
चुन-चुनकर उखाड़कर फेंकती गई
अंत कर 
दिया उसने अँधेरों के प्रारम्भ को ही 
अब आँगन
का मौसम बदल गया
टूटी हुई वर्जनाओं और मूल्यों की
 रस्साकसी में खींचते 
सदियों से उजड़े उस आँगन
की रूह आज फिर से धड़क उठी थी
वर्षों से जो ख्वाब ! 
उसकी बंद मुठ्ठी में कसमसा रहे थे
अब उनमें
पंख उग आये हैं...!
-0-राँची
गुरुवार, 5 अक्टूबर 2023
480
दीवार
प्रियंका गुप्ता 
लोगों को कहते सुना है-
दीवारों के भी कान होते हैं
मैं कहती हूँ
दीवारों की आँखें भी होती हैं
ज़ुबान भी
और कहीं किसी कोने में
धड़कता है - एक नन्हा सा दिल भी 
क्योंकि अगर ऐसा न होता,
तो क्यों
तुम्हारे जाने के बाद
सबकी बतकहियों के बीच भी
इतना सन्नाटा -सा होता ?
क्यों कहीं किसी कोने में
मेरे आँसुओं के समांतर
नम- सी दिखती दीवार ? 
ऐसा क्यों होता माँ
कि
कभी लड़खड़ाने पर
झट सहारा देती मुझे
फिर कोई दीवार
ठीक तुम्हारी तरह
क्यों सुनाई देती है कोई सिसकी- सी
रात के सन्नाटे में?
क्या सच में ऐसा है
या फिर कोई वहम?
पता नहीं क्यों लगता है
तुम कहीं नहीं गई
बस छिपी हो इन्हीं किन्हीं 
दीवारों के पीछे
और एक दिन
जब सब काम करते-करते 
मैं बहुत थक जाऊँगी
तुम किसी दीवार के पीछे से
आवाज दोगी मुझे
पर तुम्हें पास बुलाने को
या फिर
तुमसे मिलने आने को
उन दीवारों के बीच
कोई दरवाज़ा मिलेगा क्या ?
-0-
मंगलवार, 3 अक्टूबर 2023
479
भुवनपति शर्मा (वर्जिनिया, यूएसए)
 1-हार नहीं मानूँगा
कुछ तो है जो
आज भी स्पष्ट नहीं
अपरिभाषित
शब्दातीत
चल रहा मन में
पर मस्तिष्क में
तरंगों मे निहित
शब्दों तक पहुँच
पाता नहीं
क्यों होता हाँसी
कि विराटतम भी
सूक्ष्मतम भी होता
मस्तिष्क की क्षमता
से परे
कहना चाह कर भी
कह नहीं पाता
गूँगे के गुड के स्वाद सा
अपरिभाषित ही रहता
उसी अ कहे अ सोचे
अनचीन्हें
को अभिव्यक्त करने
मे
एक बार फिर चूक गया
पर हारा नहीं
प्रयास फिर करूँगा
ही
अभी नहीं तो फिर
कभी सही
हार नहीं मानूँगा|
-0-
2-ब्रह्म है शब्द 
मैंने शब्दों को
देखा
संसार बनाते हुए
रोज़ देखता हूँ
चतुर्दिक
रेडियो दूरदर्शन
हर व्यक्ति नर नारी
के माध्यम से
निःसृत
अनंत शब्द बनाते
हैं
वास्तविक या
काल्पनिक
संसार एक
मस्तिष्क उलझा रहता
उनकी उलटबांसियों
में
काल्पनिक वास्तविक
सब
हो जाता गड्ड- मड्ड
शब्दों की लीला
शब्दों के माध्यम
से
होती नहीं
अभिव्यक्त
कल्पना मस्तिष्क
विचार भाव
एक व्यक्ति के साथ
एक संसार नष्ट होता
है
जैसे एक जन्म से
नया
संसार लेता है जन्म
संभावनाओं के जन्म
विनाश की
दैनंदिन कथा सिरजते
है
शब्द यह
तभी तो ब्रह्म है
चतुर्दिक व्याप्त
यह शब्द
-0-
3-मंथन
  
स्मृति के महासागर
में
मंथन चल रहा अविराम
मेरे ही मन के देव
दानव
चाह रहे अमृत पर
अप्रिय दुखद व घृणा
उपेक्षा का
हलाहल कालकूट जो
निकलता है
पचाने उसे
करने धारण गले में
मेरा शिव जगता है
समाधि से
और फिर सुखद क्षणों,
अनुभूतियों
की संपदा के बाद
स्नेह प्रेम का
निकलता है अमृत
देता है जीवन मेरे
देवत्व को
मेरे असुरत्व मेरे
देवत्व और मेरे शिव को
स्मरणों में ढो रहा
मैं
प्रतीक हूँ अमृत
मंथन का
-0-Email: swahim12@gmail.com 
शनिवार, 30 सितंबर 2023
478
फिर से
राधा मैंदोली
लौ-सी फड़फड़ाकर 
शांत हो जाने के बाद
एक हिचकी अनमनी- सी 
फिर जला जाती है, जी ।
टूटकर सब तार, वीणा के
 बिखर जाने के बाद
एक सरगम मधुबनी -सी
फिर जुड़ा जाती है, जी ।
 क्या कहूँ ? तुमको ,जो 
मुझ में ही रहे,  वर्षों  के बाद
 छुअन तेरी, मूर्छिता का
 फिर जिला जाती है, जी ।
-0-
गुरुवार, 28 सितंबर 2023
477-अतृप्ता संग्रह से
लिली मित्रा
1- प्यार को पूर्णता कहाँ ?
क्या होगा 
जब हमारा प्यार 
अंतर्मुखी हो जाएगा ? 
रस्मों रिवाज़ों से
हो मजबूर दूर से ही 
प्रीत की उष्मा पाएगा, 
कोई राह तुम तक 
नहीं पहुँची होगी, 
बस कल्पनाओं में ही 
अपनी मंज़िल पाएगा,
मन घर का कोई 
ऐसा कोना खोजेगा, 
जहाँ कोई और 
न आएगा जाएगा, 
आँखें मूँदकर
फिर तुम्हारी यादों का 
बटन दबाएगा, 
मानस पटल पर 
कल्पनाओं का
 स्क्रीन सेट करेगा,
उस पर उभरेंगे 
वो सजीव से चलचित्र 
जिसमें हमारी 
अभिलाषाएँ और 
इच्छाएँ मेरे निर्देशन में
अभिनय करती नज़र आएँगी, 
शुरुआत से 
अंत सब मेरे मुताबिक़ 
घटित होगा, 
हाँ तब तक मैं
 बहुत परिपक्व हो जाऊँगी,
तुम्हें पाने की चाह को
 मन में छुपाकर,
 सबके साथ
पूर्णता से 
जीना आ जाएगा 
किसी की पुकार पर
अचानक उसे बंद कर
 दिया जाएगा,
 कुछ बिखरे
कामों को 
समटते हाथ, 
पर मन उन्हीं लम्हों को दोहराएगा,
कोई शब्द  तुमसे जुड़ा 
कानों मे गूँज जाएगा,
 लिखे अल्फ़ाज़
में 
तुम्हारा चेहरा नज़र आएगा,
 'बातों का
समय' तब भी 
यादों का अलार्म बजाएगा, 
प्यार को पूर्णता कहाँ 
यह सत्य भली-भाँति समझ आ जाएगा ।
-0-
2-न जाने कैसा हो मेरा अवसान
मैं गुजरते वक़्त के दरख्तों पर
कुछ कोपलें लम्हों की रख आती हूँ.... 
न जाने कैसा हो अवसान मेरा मैं
 खिड़कियों के क़रीब 
बड़े पेड़ों की पंगत गोड़ आती हूँ...
बरसाती मौसम की लाचारी भाँपते हुए 
देखती हूँ चींटियों को अथक, 
एकजुट दाना जुगाड़ते हुए ... 
यही सोच मैं भी 
सुनहरे दानों का जुगाड़ करती हूँ...
 न जाने कैसा हो अवसान मेरा
 मैं दिल के गोदाम में 
यादों के भोज्य पहाड़ करती हूँ....
दीवारें कमरों की रंगीन ही सही
 मगर छतों की कैनवस सफ़ेद ही रखती हूँ
न जाने कैसा हो अवसान मेरा 
सीधे लेटकर उकेरने के लिए
कुछ तस्वीरें करीबी... 
मैं आँखों में बहुरंगी जमात
 रखती हूँ....
-0-
अतृप्ताः लिली मित्रा, पहला संस्करण : 2019, पृष्ठः 116, मूल्य : ₹200 $8, -0-ISBN: 978-93-87464-37-7 पहला संस्करण : 2019, पृष्ठः 116, मूल्य : ₹200 $8, -0-ISBN: 978-93-87464-37-7, प्रकाशक :हिन्द-युग्म ब्लू, 201 बी पॉकेट ए, मयूर विहार फेस-2, दिल्ली- 110091
Email : sampadak@hindyugm.com
Website : www.hindyugm.com

 









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